अमेरिकी लेखक और स्तम्भकार मिच एलबॉम की किताब ‘ट्यूज़डेज़ विद मॉरी’ (Tuesdays with Morrie) एक मशहूर और प्रशंसित किताब है। इस किताब में मिच एलबॉम ने अपने समाजशास्त्र के प्रोफेसर मॉरी श्वार्टज़ के साथ बिताये गए समय और उनकी बातों को याद किया है। मिच कुछ सोलह सालों बाद अपने प्रोफेसर से मिले और जाना कि मॉरी बीमारी के कारण अपने अंतिम दिनों में हैं। इन्हीं दिनों में चौदह मंगलवार मिच ने मॉरी से मुलाक़ातें की और दोबारा उनके छात्र हो गए। मॉरी ने भी एक शिक्षक के रूप में मिच से जीवन और मृत्यु पर बातें की, जिनका प्रभाव मॉरी की मृत्यु के बाद भी मिच के जीवन पर रहा और जिसे मिच ने आगे चलकर इस किताब का रूप दे दिया।

इसी किताब और इससे जुड़े कई सूक्ष्म विषयों पर पूजा भाटिया और तसनीफ़ हैदर ने ईमेल द्वारा बातचीत की है, जिसके अंश यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं! आशा है कि ये अंश आप में इस किताब को पढ़ने की उत्सुकता जगा देंगे.. आप भी इस किताब के साथ अपना अनुभव साझा करें!


तसनीफ़:

आदाब पूजा!

आप तो जानती हैं कि मैं किसी भी ऐसे इंसान, किताब या फिर स्पीच से बचता हूँ जो कि प्रेरणादायक हो। मुझे लगता है कि आदमी की ज़िन्दगी, क़ुदरत का सारा निज़ाम और आर्ट की सारी गहमा-गहमी सिर्फ़ और सिर्फ़ दुख से क़ायम है। दुख जो हमारी ज़िन्दगियों में बहुत सी अलग अलग कहानियों को जन्म देता है। एक ऐसी दुनिया, जहाँ कोई मुक़ाबला न हो, ईर्ष्या न हो, घुटन न हो, दर्द न हो, हारने और खोने का अहसास न हो और किसी प्रोत्साहन देने वाली मैजिक वॉन्ड से हर चीज़ का इलाज कर दिया जाए, तो क्या दुनिया में बहुत बोरियत नहीं हो जायेगी। लड़ना, मुक़ाबला करना और इस मुक़ाबले में क्रूरता की हद तक दूसरों को पछाड़ने की ये जंग क़ुदरत के उसूलों में से एक है। इसलिए जब मैं कोई ऐसी किताब पढ़ता हूँ जो मुझे ज़िन्दगी में कामयाबी हासिल करने के सीक्रेट्स समझाए तो बड़ी उलझन होती है।

लेकिन आज मैं आपसे ‘मॉरी’ पर बात करना चाहता हूँ। मैंने अभी तक ज़िन्दगी को आगे बढ़ाने, उसे हौसला देने या उसके बारे में कुछ पॉज़िटिव नुक़्ता ए नज़र अपनाने के लिए जितनी किताबें पढ़ी हैं, उनमें ये किताब मुझे बहुत हद तक पसंद आयी है। और शायद उसकी भी बड़ी वजह ये है कि ज़िन्दगी के एक बड़े दुख और डर से जूझने वाले दिमाग़ से ये किताब आँख मिलाती है, मैंने मौत के बारे में कई बार सोचा है, बड़े-बड़े फ़लसफ़ी और राइटर्स की इस मुआमले में राय पढ़ी है, मगर मॉरी ने जो नज़रिया दिया है, उसमें घुटन के ख़ौफ़ से निजात मिलती नज़र आती है। मैंने आपको बताया था कि मैं दिल्ली में कैसे धूल और धुंए का शिकार होकर एक अजीब नफ़्सियाती उलझन का शिकार हो गया था। उसी ज़माने में ये किताब पहली बार पढ़ी थी, इसने मुझसे कहा कि ख़ौफ़ भी एक तरह का जज़्बा है, जितना उससे भागोगे, वो उतना ही तुम्हारे पीछे दौड़ेगा, उसे ठहर कर देखो, एक लहर की तरह ख़ुद पर से गुज़र जाने दो, तब तुम्हें मालूम होगा कि इससे कैसे निपटना है। तब तुम जानते होगे कि किसी कीड़े की शक्ल देख कर उससे डरते रहना, हमें कभी उस कीड़े को जानने का मौक़ा नहीं देगा। और फिर मैं उस डर से गुज़रा या यूँ कहूं कि वो लहर मेरे सर से गुज़री, और अब मैं अपने ख़ौफ़ को जानता हूँ। मॉरी से वो पहली पहचान थी, बाद में तो इस किताब ने बहुत सी बातों पर ख़ुश हो कर इसे गले लगाने पर मजबूर किया और बहुत सी बातें इससे झगड़े की वजह बनीं, मगर इस ‘मंगलमय’ किताब का दरवाज़ा खुल चुका था, आपसे आगे इस पर तब बात करूँगा, जब आपकी इससे शनासाई का कच्चा चिट्ठा सुन लूंगा, अभी के लिए इजाज़त, फिर हाज़िर होता हूँ।

तसनीफ़ हैदर


पूजा:

प्रिय तसनीफ़

आदाब

मंगलमय किताब मुबारक हो। इस से पहले कि हम किताब पर बात शुरू करें, मैं कहना चाहूंगी कि मुझे ख़ुशी है कि तुम्हारे प्रेरित होने के जज़्बे को start करने वाला ट्रिगर ‘मॉरी’ के रूप में तुम्हें मिल ही गया। तुम्हारा कहना एक हद तक ठीक भी है कि क़ुदरत का निज़ाम दुख का ही जाया है, पर दोस्त ये है सुख की खोज में। हर सिन्फ़ जो दुख की वजह से अपने बेहतरीन रूप को इख़्तियार करती है उसे बनाने का मकसद सुकून होता है। सो सुख और दुख ज़िन्दगी के दो पहलू हैं.. अपरिहार्य, अविभाजित किताबों की दुनिया का एक बड़ा भाग प्रेरणादायक किताबों से अटा पड़ा है। आपने मॉरी को ही क्यों पसंद किया? सोचा आपने? मैं बताती हूँ.. आप उन्हीं से relate कर पाते हैं जो कम ओ बेश आपकी तरह सोचते हों। मॉरी की सादा बयानी, ज़िन्दगी को पारदर्शी तरीक़े से देखने का नज़रिया, मॉरी की बातों और क़िस्सों में ज़िन्दगी से उसका नज़दीकी रब्त..! वहां भाषण बाज़ी नहीं है; वहां सादगी है, सच्चाई है, ज़िन्दगी को औरों के लिए ही नहीं बल्कि औरों के साथ जीने की बात है। जिससे आप ख़ुद को जोड़ के देखें तो अच्छा महसूस करते हैं, एक जुड़ाव महसूस करते हैं और उसकी बातों पर ग़ौर करने को जी चाहता है, उन्हें अपनाने को जी चाहता है। यही वो वजूहात होती हैं जो हर शख़्स अपनी मोटिवेशनल बुक में या हर उस चीज़ में ढूंढता है जहां से उसे प्रेरणा मिलती है। आपको ये सब मॉरी ने दिया। सही कहा न मैंने?

तस्नीफ़ आपने अपने डर के बारे में बात की जो दिल्ली जाने के बाद कुछ वक़्त तक आपके साथ रहा और फिर आप को मॉरी मिल गए। आपकी तरह कम ओ बेश हर शख़्स के कुछ डर, भय, कमी या ऐसा कुछ होता है जिनसे वो घबराए रहते हैं, निजात पाना चाहते हैं या फिर बचना चाहते हैं। इनमें से कुछ लोग autostart गाड़ी की तरह होते हैं यानी उनका ट्रिगर उनके भीतर होता है यानी स्वप्रेरित जैसे ख़ुद मॉरी, वहीं कुछ लोग किक स्टार्ट गाड़ी की तरह जिन्हें बाहर से ट्रिगर मिलता है जैसे आपको मिला। और कुछ धक्का दे कर चलाये जाते हैं जिनको उनका ट्रिगर ताउम्र नहीं मिलता और वो ज़िन्दगी की गाड़ी को धक्का लगा कर बिता देते हैं। मालूम रहे वो ज़िन्दगी बिताते हैं, जीते नहीं।
किसी को प्रेरित करना, उकसाना ऐसा क्या कर देता है की ज़िंदगी बदल जाती है.. और अगर ऐसा हो जाता है तो क्या ये किसी जादुई छड़ी को घुमाने जैसा ही नहीं है? बहरहाल मैं मॉरी के साथ एक मर्तबा तो वक़्त बिता चुकी पर मन है कि भरा नहीं, फिर पढ़ने को जी चाहता है.. शायद इसीलिए नामचीन दार्शनिक Zig Ziglar ने कहा भी है-

“People often say that motivation doesn’t last. Well, neither does bathing – that’s why we recommend it daily.”

अगली चिठ्ठी में आगे की बातें होंगी.. अभी के लिए इजाज़त। फिर मिलते हैं…

पूजा


तसनीफ़:

आदाब पूजा!

इतनी देर के लिए मुआफ़ी चाहता हूँ। असल में आपका मेल इतना अच्छा था कि जवाब का लुत्फ़ लेने में ही काफ़ी वक़्त लग गया। दूसरे घर के कुछ काम हैं, जिन्होंने पीछा पकड़ रखा था, यहीं से अपनी बात भी शुरू करता हूँ। मॉरी वाली इस किताब में भी एक चैप्टर परिवार पर है, मुझे परिवार कभी ढंग से समझ में नहीं आया, मेरे अपने ख़याल में रिश्तों का जुड़ाव एक तरह से इंसानों को दूसरे और अपने लोगों के शब्दों में विभाजित करता है। मॉरी ने परिवार को एक ख़ास नज़र से देखा है, यानी अगर आप बूढ़े हैं, बीमार हैं, अकेले हैं तो उस समय क्या होगा और जवाब भी लगभग वही टिपिकल है जो हमारा समाज हमें देता है यानी उस समय आपको परिवार की बहुत ज़रुरत होती है। मुझे लगता है कि हमदर्दी दुनिया का सबसे ख़राब जज़्बा है, वो बीमार के साथ हो या तंदुरुस्त आदमी के साथ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मॉरी अपने परिवार से संतुष्ट है क्यूंकि उसे वो बीमारी ही उम्र के ऐसे हिस्से में हुई है, जहाँ उसका कुछ समय बाद दुनिया में न रहना उसके घर वालों के लिए काफ़ी हद तक अपेक्षित है। ये बीमारी मॉरी को अगर जवानी में हुई होती तो यक़ीनन उसके परिवार का और उसका दुख अलग होता, और शायद उसका नज़रिया भी। फ़ैमिली हमें सपोर्ट ज़रूर करती है, मगर वो हमें बहुत कुछ होने से रोकती है, वो हमें मोहब्बत के नाम पर अलग-अलग दुखों और ज़ंजीरों का अनुभव भी कराती है। बुढ़ापा अटल हक़ीक़त नहीं है, मौत अटल हक़ीक़त है। इसके बिलकुल विपरीत मॉरी ने डबल्यू एच आडेन की कविता की जो पंक्तियाँ मिच को समझाने के लिए पढ़ी है वो शायद इस किताब का हासिल हैं और उन पर ज़िन्दगी की बुनियाद रखी जाए तो फ़ैमिली की कोई ज़रुरत ही नहीं है।

Love is the only rational act.

और

Love each other or perish.

इंसानी दुखों और ग़मों का मदावा मोहब्बत में है, जिससे हम डरने लगे हैं। मोहब्बत जिसे हमने समझना छोड़ दिया है। ये जो दुनिया मारने मरने और ज़ॉम्बीज़ की तरह एक दूसरे के गलों को भंभोड़ने की फ़िक्र में है, ये दरअसल मोहब्बत की कमी की वजह से है। पता है पूजा! दुःख और सच्चे दुःख की बात ये है कि हम में से न जाने कितने लोगों ने मोहब्बत का कभी अनुभव ही नहीं किया। वो मोहब्बत जो आदमी को दूसरों का ख़याल करना सिखाती है, उन्हें समझना और जानना और मुआफ़ करना सिखाती है।

Morrie Schwartz, Mitch Albom
(c) 1995 Heather Pillar

हम मशरिक़ी लोगों की तो सारी शायरी इश्क़ में दीवाना हो जाने की सीख देती है, जबकि एक अमरीकी शायर उसे रैशनल एक्ट बता रहा है। मैं समझता हूँ, हम सबको इस पर ध्यान देने और सोचने की ज़रुरत है। मॉरी की बातों की ख़ूबी ये है कि उनका पैराडॉक्स भी आपको बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है। आगे आपके जवाब के बाद बात होगी।

अब जा रहा हूँ ‘ऐनी फ़्रैंक’ मेरा इंतज़ार कर रही है। उसकी डायरी बड़ी दिलचस्प है। अब बाक़ी बातें आपके जवाब देने के बाद होंगी। शुक्रिया

तसनीफ़ हैदर


पूजा:

प्रिय तसनीफ़

आपके मेल ने अजब झंझावत पैदा कर दी है ज़हन में। कितना कुछ है जो मैं कहना चाहती हूँ पर कौनसी बात पहले कहूँ किसको बाद में समझ नहीं पा रही हूँ। (बिल्कुल वैसा हाल है जैसा छप्पन भोग व्यंजन सामने होने पर होता है यानी कहाँ से शुरू करूँ?)

चलिए परिवार से ही बात शुरू करती हूँ। मॉरी जब परिवार की बात करते हैं तो उनका मतलब दरअस्ल पति-पत्नी और बच्चे है ही नहीं । मॉरी की परिवार की परिभाषा बेहद व्यापक है, असीमितता की हद तक। Actually world was Morrie’s extended family. बिल्कुल उसी तर्ज़ पर जैसे हम कहते हैं… ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानी समस्त संसार परिवार है। मॉरी के लिये परिवार की अहमियत क्या है यह देखिए जब वो कहते हैं-

“There is no foundation, no secure ground if there is no family.”

फिर George Santayana ने भी कुछ ऐसा ही कहा है-

“The family is one of the nature’s masterpieces.”

ऐसा क्या था जिसने मॉरी को ये व्यापक दृष्टिकोण दिया होगा? मुझे लगता है मानवता में मॉरी का अटूट और अटल विश्वास इसका ख़ास कारण रहा होगा। आपको क्या लगता है?

आपकी मेल पढ़ कर लगा कि आप हमदर्दी के जज़्बे से ख़ासे नाराज़ हैं, मैं तो यही कहना चाहूंगी दोस्त, हमदर्दी तो इन्बिल्ट जज़्बा है, यानी आप जिनसे जुड़े होते हैं उनकी तकलीफ़ आपको भी दुखी कर देती है। (ये बात और है कि इस जज़्बे का सहीह इस्तेमाल जानवर ज़्यादा करते हैं)। मेरे नज़दीक ये जज़्बा लाज़मी भी है और कुछ हद तक ज़ुरूरी भी।

अब बात आती है ज़ोम्बी नुमा दुनिया की, उन बदक़िस्मतों की जिन्होंने प्रेम को जाना ही नहीं। मॉरी की दुनिया प्यार पर टिकी है यही कम ओ बेश उनकी बातों का सार भी है, देखिए जब वो कहते हैं-

“Without love, we are birds with broken wings.”

…कितना सच्चा फ़लसफ़ा है न। और यही तमाम परेशानियों का हल, तमाम सवालों का जवाब भी है।

मग़रिब के किसी मुसन्निफ़ का प्यार को rational कहना कुछ ग़लत नहीं.. वो यूं कि rational का अगर मानी देखा जाए तो sensible, enlightened, well advised, sober, wise, intelligent ये सभी मानी भी इसी लफ्ज़ के हैं और मॉरी यहां तार्किक अर्थ में नहीं, प्यार को इन तमाम अर्थों में लेना चाहते हैं ऐसा मुझे मालूम होता है। मॉरी के अनुसार प्यार के साथ जो चीज़ बेहद ज़ुरूरी है वो है स्वीकारभाव या acceptance. Acceptance का न होना कई तक़लीफ़ों को पैदा करता है। मॉरी कहते हैं-

“Acceptance is must. Accept what you are able to do and what you are not able to do. Accept the past as past without denying it or discarding it.”

आदमी गर यही इकलौती बात समझ जाए तो तमाम मसअले हल हो जाएं.. नहीं? मॉरी की एक और बात जिसने मुझे बेहद मुतास्सिर किया (शायद इसलिए भी कि ये फ़लसफ़ा मेरी ज़िंदगी का भी अहम हिस्सा है)-

“Pay more attention to the moments and people in front of you.”

मुझे भी यही लगता है कि People are always worthy of our time & energy, मॉरी की ही तरह इसमें मेरा भरोसा बहुत गहरा है।
आख़िर में मॉरी का पूछा गया सवाल मैं आपसे भी पूछना चाहूंगी… बल्कि ये सवाल हम सभी को अपने आप से वक़्त-वक़्त पर पूछते रहना चाहिए… Are you trying to be as human as you can?

यदि नहीं.. तो मॉरी बड़ी मासूमियत से इसका हल भी दे देते हैं-

“There is no such thing as too late in life.” ☺️

चलिए अगले ख़त में फिर मॉरी की बातों से ज़िन्दगी को समझा जाएगा। तब तक के लिए मॉरी का दिया homework करते हैं.. इंसानियत को अपनाते हैं, प्यार को बांटते हैं.. ☺️

पूजा


तसनीफ़:

मैं बात अगर अस्तित्ववाद से शुरू करूँ तो ग़लत नहीं होगा। क्यूंकि इन्ही दिनों सार्त्रे की किताब ‘Existentialism is a humanism’ भी मेरी नज़रों से गुज़री है। हालांकि उस पर पूरी तरह ध्यान देने से बात कहीं और मुड़ जायेगी। मेरी इन बातों से ये मतलब अगर निकल रहा है कि मैं कोई निराशावादी इंसान हूँ तो शायद मैं अपनी बात समझा नहीं पा रहा हूँ। देखिये हम जो हैं, उसे उसी तरह अपनाने और ख़ुद को किसी काम के लिए मोटीवेट करने के फ़लसफ़े आपस में एक दूसरे के बिलकुल ख़िलाफ़ हैं। परिवार वाले मुआमले में जहाँ तक मैं समझता हूँ आपने एक बिलकुल अलग व्याख्या से काम लिया है, जिसे उर्दू में तशरीह और तफ़सीर कहते हैं। ये कहीं न कहीं टेक्स्ट को डी-कंस्ट्रक्ट करने का वो तरीक़ा है, जिसको मैं अक्सर ख़ुद से दूर रखता हूँ, शायद इसी लिए मेरी पोस्ट-मोर्डेनिज़्म से ज़्यादा नहीं बनी और मैं इसे लिटरेचर पढ़ने में मदद देने के बजाये उल्टा नुक़सान पहुंचाने वाली थ्यूरी समझता रहा हूँ। ख़ैर, ये तो मुझ सादा मिज़ाज और कम पढ़े लिखे आदमी का कनफ़्यूजन भी हो सकता है। मगर सार्त्रे की बात मैंने इसीलिए निकाली थी ताकि बता सकूँ कि वजूदी या अस्तित्ववादी विचारधारा के अनुसार भी इंसान को अपने आपको जस का तस क़ुबूल करना ही मानवतावाद है।

मैंने परिवार का मतलब परिवार ही लिया है, जिसे मैं बिलकुल नेचुरल नहीं समझता, बल्कि मेरी नज़र में ये इंसानों का बनाया हुआ एक ऐसा अजीब सिस्टम है जिसके विकल्प को हमेशा तलाश करते और उस पर बात करते रहना ज़रूरी है। मॉरी एक विचार हमारे सामने रखते हैं, जिसको मैं रद्द करता हूँ और आप क़ुबूल करती हैं, मगर इसमें भी हमारे सोचने के ढंग का हाथ है, उस सोचने के ढंग के पीछे हमारे हालात, हमसे मिलने वाले लोग, पढ़ी जाने वाली किताबें और बहुत सी दूसरी चीज़ों का हाथ है।

मगर जहाँ तक मॉरी के दूसरे विचारों की बात है, मैं उन्हें मानता हूँ, मैं उन्हें किसी तरह का मोटिवेशन न मान कर एक तरह का गहरा सत्य समझता हूँ, जिस पर हमारी निगाह देर से या डर-डर के पड़ती है। मॉरी ने भागते हुए लोगों का हाथ पकड़ कर उनसे इस भागने का मक़सद पूछा है, ठहर कर आराम करने, या फिर अपने लिए कुछ समय निकालने के डर के बारे में सवाल किया है। मॉरी ने सवाल पूछा है कि ‘दूसरा नंबर पाने का इतना ख़ौफ़ क्यों है।’ ये हर चीज़ के लिए अहम सवाल है, सिर्फ़ हमारे भविष्य के लिए ही नहीं, मोहब्बत के लिए भी, देखिये मुझे अपना एक शेर याद आ गया-

“मैं आज भी तुझे पाने की दौड़ में शामिल
मगर ज़रा सी भी ख़्वाहिश नहीं कि पहला आऊं”

हम सोचते हैं कि ये पा लें, वो पा लें और इन सब चीज़ों में जो पा सकते हैं वही खो देते हैं। ये एक तरह की ज़बरदस्ती है जो समाज ने हम पर ठूंसी हुई है, अब आप मुझसे उस ज़बरदस्ती के बारे में सवाल करेंगी तो मैं यक़ीनन परिवार तक भी पहुंचूंगा, शादी पर भी सवाल उठाऊंगा। रिश्ते नए पुराने, अपने बेगाने, ज़िन्दगी भर के या फिर कुछ वक़्त के, दूर के या पास के, इन सारे झगड़ों में पड़ कर हाथ से छूट जाते हैं। अच्छा यही है कि जो जितना हासिल है, उतना उसे हासिल रहने दिया जाए और जो जितना ला-हासिल है उतना उसे तस्लीम कर लिया जाए। मगर जो नहीं तस्लीम कर पाते, मैं उनकी फ़ितरत पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं, कि आख़िर वही तो वो हैं। बे चैन, बे क़रार और ज़िद्दी।

मॉरी मेरी नज़र में कोई आदर्श नहीं है, मेरे लिए सबसे अच्छी बात यही है कि मैं उससे लड़-झगड़ कर भी बहुत कुछ पा लेता हूँ। मेरा अपना वजूद उसके सवालों से नए सवाल और उसके जवाबों से नए शक पैदा करता है।

आपसे मॉरी के बारे में मेरी गुफ़्तगू का ये आख़री जवाब है, मगर सिर्फ़ इस सिलसिले में। कभी फ़ोन पर या साथ बैठने पर मज़ीद बातचीत होगी, और मॉरी हमारा एक बेहतरीन टॉपिक रहेंगे। इस बहस में हम और दोस्तों को भी शामिल करेंगे, मज़ा आएगा और यही तो किताबों की दुनिया का हासिल है।

सुबह का पांच बज रहा है, अम्मी अभी आकर डांट कर गयी हैं, अब लेटने जा रहा हूँ। देखिये नींद कब तक आये।


पूजा:

प्रिय तसनीफ़

पिछली पोस्ट में बात acceptance पर ख़त्म की थी, यहीं से अपनी बात को फिर से शुरू करती हूँ। आपकी ही तरह सार्त्रे के मानवतावाद से मैं भी मुत्तफ़िक हूँ.. इंसान का खुद को और दूसरों को जस का तस अपना लेना ही सच्चा मानवतावाद है इसमें कोई दो राय नहीं। मॉरी भी acceptance के बारे में भी यही कहते नज़र आते हैं। मॉरी की तमाम बातें जो उसके जीवन दर्शन को जताती हैं उनमें कहीं भी, मान ही लिया जाए या आदर्श बना लिया जाए जैसी ललक नहीं दिखाई पड़ती। आप मानें मत, केवल सोचें… तब भी एक क़दम बेहतर ज़िन्दगी की तरफ बढ़ा समझें। और यदि आप उसे सत्य मान रहें हैं तो इसे दो कदम जानें.. ☺️। आपका कहना काफ़ी हद तक सहीह है कि एक आदमी जैसा होता है या सोचता है उसे वैसा बनाने में उसका परिवार, माहौल, उसका पठन, उसे इस जानिब दिशा देते हैं। परंतु हर बात, हर सोच, हर व्यवहार आपके परिवेश का दिया नहीं होता। कुछ चीज़ें आदमी सब देखभाल कर ख़ुद डेवलप करता है। गर ऐसा न होता तो मॉरी को मायूस या निराशावादी होने में उसके माज़ी ने कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी पर मॉरी इसके उलट निकले। हाँ जीवन के बारे में बात करते हुए उन्होंने कभी आदर्श नहीं बनना चाहा सो यदि वो आपके आदर्श नहीं है तो कोई बात नहीं। उन्होंने बात करनी और सुननी चाही वो हो रहा है। इस लिहाज़ से मॉरी सफ़ल रहे।

अब अपनी बात को फिर से परिवार पर लाती हूँ, आपकी या मेरी तरह हर आम-ओ-ख़ास के लिए परिवार का पहला मआनी वही है जो आपने लिया है। पर चूंकि बात मॉरी की हो रही है तो उसकी बात को व्यापक तौर पर समझने के लिए डिकोड करना या तशरीह करना यूं भी ज़ुरूरी हो जाता है कि इस तरह आप मआनी की तहों तक अपनी पहुंच बना सकते हैं। उसे और बेहतर समझ सकते है । वैसे कहा भी गया है हर लफ़्ज़ के होते हैं दस-बीस मआनी (निदा साहब से माज़रत के साथ.. ☺️)

अब चूंकि ये इस किताब पर हमारी आख़िरी मेल है, मैं कुछ और मुद्दों पर बात करना चाहूंगी जो मॉरी ने कहना चाहे हैं। Aging यानी उम्र के बढ़ने पर मॉरी ने कुछ बेहद खूबसूरत बातें कहीं है। उम्र के बढ़ने, बुढ़ापे की ओर बढ़ने के ख़याल तक से लोगों के चेहरे पर घबराहट साफ़ देखी जा सकती है। जिसके लिए मॉरी ने कहा है- “If you found meaning in your life, you don’t want to be young again (जैसा कि आजकल हर दूसरा आदमी चाहता है) and you can appreciate the 23 year old, the 35 year old and the 62 year old”.”

So all you have to do is… Give a meaning to your life…

उम्र और पीरी की अज़ीय्यत या तकलीफ़ को हफ़ीज़ जालंधरी यूँ बयान करते हैं-

“ये अजब मरहला ए उम्र है यारब कि मुझे
हर बुरी बात बुरी बात नज़र आती है”

वहीं कल्चर पर मॉरी का कहना है किसी भी इंसान पर उसके कल्चर का बहुत गहरा प्रभाव होता है। मॉरी ने अपना कल्चर ख़ुद बनाया अपने दिल की सुनी, जो सहीह लगा किया। उसने लोगों में, प्यार में निवेश करने को कहा।

“When all said and done, we will be remembered not by our bank accounts or stock portfolios but by the time we spent listening to a friend or helping a family member.”

सारी बातों का जो सार है वो बस प्यार है..

सो ये है ‘ट्यूज़डेज़ विद मॉरी’ जिस को हमने मंगल से शुरू किया.. जिसने बहुतों का मंगल किया.. और पूरी मंगल भावना के साथ मैं तुम्हें शुक्रिया कहती हूँ जिसने मुझे मॉरी से मिलवाया जिसे पढ़ कर मैंने अपने तमाम भरोसों को और मज़बूत किया। मुझे उम्मीद है कि लोग इसे पढ़ेंगे, समझेंगे और मानें या न मानें पर इस पर बात करेंगे।

प्यार सहित

पूजा

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यह भी देखें:

‘मुराकामी में ऐसा क्या है?’

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