उस अंधियारी रात
जब आसमान में
बस तारे थे
चाँद गुम था
मैं हताश था,
गुमसुम था
तब, तुम आई थी

अपने कमरे की
खिड़की फाँद,
मुँह पर दीदी की
चुनरी बाँध,
भीगी-भीगी,
आंखें लेके,
डरते-डरते,
चोरी-चुपके,
सबसे छिपके,
मुझे मनाने आई थी

मैं गुस्से में था
तुम्हारी एक ना मानी
रोंधी-सी सूरत बनाए
पड़ा रहा कमरे में
तुम मेरा जी बहलाने आई थी,
ताश की गड्डी लिए,
खाने की थाली सजाए हाथों में
तुम खेलने-खिलाने आई थी,
लाइब्रेरी से साहिर की
कोई किताब लहाई थी तुमने
इक आख़िरी बार
नज़्म सुनाने आई थी

मेरे दिए सारे तोहफ़े
गुलाब, खत, चुम्बन,
बालियाँ, चूड़ियाँ, कंगन
मुझे लौटाने आई थी

उस अंधियारी रात
जब आसमान में
बस तारे थे
चाँद गुम था
मैं हताश था,
गुमसुम था
तब, तुम आई थी

2018

कुशाग्र अद्वैत
कुशाग्र अद्वैत बनारस में रहते हैं, इक्कीस बरस के हैं, कविताएँ लिखते हैं। इतिहास, मिथक और सिनेेमा में विशेष रुचि रखते हैं। अभी बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से राजनीति विज्ञान में ऑनर्स कर रहे हैं।