तुम कहाँ हो?
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
शायद अन्दर हो
पर हर कन्दरा के मुख पर
भारी शिला का बोझ है
मैं भी
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
शायद अन्दर हूँ
पर यह जो बाहर है
मेरा यह ‘मैं’
यह स्वयं एक शिला है
अन्दर के मार्ग पर रखा
एक कठिन अवरोध
और यों मेरा
स्वयं तक न पहुँच पाना
एक ऐसी दूरी है
जो सदा एक प्रश्न की तरह
ध्वनित होती रहती है
तुम कहाँ हो?
अमृता भारती की कविता 'जब कोई क्षण टूटता'