एक कविता कहती है—
“यथार्थ झूठ है, कल्पना सच है।”

तुम मेरी कल्पनाओं का हिस्सा हो
इसलिए सच हो।

जिस किसी दिन,
ज़िन्दगी
बेबस कर देगी मुझे
स्वीकारने को यथार्थ,
डरता हूँ
कहीं स्वीकार न लूँ
कल्पनाओं का कोरापन!

उस दिन,
तुम्हें यकीनन खो दूँगा मैं।

विक्रांत मिश्र
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से हैं। साहित्य व सिनेमा में गहरी रुचि रखते हैं। किताबें पढ़ना सबसे पसंदीदा कार्य है, सब तरह की किताबें। फिलहाल दिल्ली में रहते हैं, कुछ बड़ा करने की जुगत में दिन काट रहे हैं।