मेरी कविताओं का चेहरा, दुल्हन की छवि जैसा होता,
जो नयन तेरे इनको पढ़ते, जीवन श्रंगार मिला होता।
होंठो से तुम जब छू लेते, ये अमरगीत में ढल जाती,
हर अर्थ में तेरा नाम छिपा कर, सदा सुहागन बन जाती।
शब्दों के मोती गुंथ जाते, तेरे नाम के काले धागे में,
कोरी-सी इन कविताओं पर, सिंदूरी प्रेम चढ़ा होता।
हंसना-रोना, पाना-खोना, हर इक चलचित्र सजा लेते,
इक दूजे के प्रतिबिंबो में, दर्पण प्रतिरूप बना लेते।
तुम साथ अगर न चल पाते, मैं साथ तुम्हारें चल लेती,
तुम साथ मुझे चलने देते, कहीं कोई ऐसा पथ होता।
चंदा-तारों की छांव में, आंगन एक सजा होता,
अपरिभाषित संज्ञा का, परिभाषित प्रेम मिलन होता।
अनकहे अनंत भावों का, मौन अचानक स्वर लेता,
नदी की कलकल धारा-सा, शब्दों में मधु भरा होता।
इक प्रेम निवेदन तुम करते, मैं सकुचाती न-न करती,
फिर आंखों में आंखें होती, सांसो में इत्र घुला होता।
विरह की पीड़ा कट जाती, पावन प्रेम जिया होता,
इन होंठो को उन होंठों का, स्पर्श यदि मिला होता।
जिस क्षण हृदय-गति अंतिम, तेरे आलिंगन में रुक जाती,
अनंत, अपार रतजगों की, सदा को तृष्णा मिट जाती।