‘Tum Mere Apradhi Ho’, a poem by Rupam Mishra
मैंने अपराधी के सीने से लगकर उसके अपराध कहे
और हृदय से सुना हृदय का अपराधबोध
और जाना कि संसार में सबसे ज़्यादा समर्पण और छल दोनों प्रेम ही कर सकता है
साँसें थीं कि सिसकियाँ समाने में अवरोध कर रही थीं
ज़बान थी कि लफ़्ज़ों का साथ नहीं दे रही थी
मुझे लगा था अपराधी चीख़ पड़ेगा क्रोध से, चिल्लाएगा कि किसने कहा तुमसे
उसने अपने सूखे होंठों से मेरी आँसुओं से भरी आँखों को चूम लिया धीरे से कहा- कुछ नहीं! सब झूठ है!
और खींच लिया ख़ूब मज़बूती से मेरी दुःख में डूबी देह को अपने सीने के और क़रीब
ग्लानि से देह का दमकता रंग लाल हो गया, खीझी मुस्कान ने चेहरे को बेचारगी से भर दिया
देर तक उसी अवस्था में सिर पर हाथ फेरना जैसे बच्ची की अनमोल और सबसे प्रिय चीज़ पिता कहीं खोकर आ गया है
मैंने एक बार भी नहीं कहा कि अपराधी तुम मेरे अपराधी हो
क्योंकि नेह की वज्र गाँठ थी या कुछ और था जो मुझे इतना निर्लज्ज नहीं होने दे रहा था
मैंने कहा- अपराधी तुम मुझे अकेला छोड़ दो
अपराधी की आँखें नीची थीं, जाने कैसे हँसते हुए कहा- मैंने किया क्या?!
अब शब्द की जगह मौन आमन्त्रित था
आत्मा ने आग पी ली थी पर डर अधिक था कि मुखरता तुम्हें तोड़ न दे! क्योंकि अपराधी तुम मुझे प्रिय हो! मैंने तुमसे प्रेम किया है!
अपराधी ने चुप रहकर ही कहा- मैंने तुम्हें कोई चोट नहीं पहुचायी
तुम्हारे हिस्से जितना प्रेम था उसे तुम्हारे लिए आरक्षित रखा
मैंने मौन होकर कहा- पर मेरे विश्वास और एकनिष्ठा का क्या
अपराधी तुम मेरी तीज की रात के निर्जल जागरण का फल थे
तुम मेरी छोटी सखियों से हमेशा पूछे जाने वाले रहस्य थे कि ब्याह से पहले मैंने कौन-कौन से व्रत किए
उसने मौन रहकर ही जवाब दिया
तो बात प्रेम की नहीं है, वर्चस्व की है
मुझे लगा कि प्रेम ने तुम्हें इतना पीड़ित किया है
पर बात यहाँ एकाधिकार की है
रही बात विश्वास की तो मैं हमेशा कहता रहा
मुझपर अटूट विश्वास न करो
तभी मेरी ही आत्मा के पार्श्व से एक नयी आवाज़ उठी
ये हिंसा है! कोई मनुष्य मन तुम्हारी सम्पत्ति नहीं
एक वात्सल्य दुःख ने प्रणय की घोर उपेक्षा की थी
ये प्रणय का प्रतिकार है
मैं दिल से इतनी मजबूर थी कि अपराध से घृणा की और अपराधी से प्रेम!
अपराधी तुम्हारा झाँवर हुआ मुख कितना करुण हो गया था कि
मेरी ही जाति से मुझे फटकार मिली कि कितनी कठिन करेजी लड़की है
और इस तरह कुछ समझौते बिन कहे हुए
बड़की आजी किसी नयी दुल्हन के पति से पिटने पर फटकारतीं
बड़े धाक से कहतीं- जेकरे गोंदिया सोयी, ओकरे मारे रोयी!
बड़की आजी पुरुष दासता की लम्बी अवधि ने तुम्हें पुरुष बना दिया
नहीं तो कैसे नहीं जानती ये पीड़ा कि सब भूलकर एक देह के पीछे चलना फिर उसी देह से छिलना
वो सर्वस्व लेकर भी वो चोट क्यों देता है बड़की आजी?!
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