‘Tumhara Jana’, a poem by Santwana Shrikant

समाज के अपरिभाषित
तानों से लहूलुहान होकर,
जब झटक दोगे तुम हाथ मेरा,
छुअन भी-
जो वर्षों संजोयी है मैंने,
हथेली की लकीरों पर
तुम्हारी उंगलियों के पोरों से।

अंतस का उजास,
दम तोड़ देगा,
मौन ही,
तुम्हारी बाहों में।

जाने दूँगी फिर तुम्हें,
जानते हुए भी कि
‘जाना’
हिन्दी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है
अग्रज ने बताया था।
महसूस भी किया
जब पिता चले गए थे,
बिना बताए।

तुम्हें जाने दूँगी
क्यूँकि,
तुम नहीं जानते,
‘तुम्हारा जाना’
कभी ना लौटने के लिए,
अर्थहीन है।
जब-
कोई बन्धन ना हो,
पाप पुण्य का लेखा न लिखना हो,
और तब भी
जिए गए हों कई युग,
कुछ ही लम्हों में।

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