अनछुआ स्पर्श
शरीर की सारी बनावट को चूमता रहता है
जैसे पास बैठी रात अपनी गीली
रौशनी में जुगनुवें बुनती है
खुरदरी मिट्टी की रगड़ पाती मोहब्बत
जब-जब पाँव के पोरों से टकराती है
तालाब के मुहाने पर पैर पसार के
आसमान को ताकती रहती है
शिवलिंग में चढ़े धतूरे की महक
उन दोनों ने बोयी है वहीं मन्दिर की सीढ़ियों पर
वक़्त-बेवक़्त घण्टियाँ बजती चली जाती हैं
बूढ़े बरगद के चरमराए पत्तों के तले
लकड़ी की नोक पर कई हज़ार बार
खरोंचा है दोनों ने एक-दूसरे को
अक्सर प्रेम में वो वहीं आलिंगन करते हैं
बजरी में घुली है स्पर्श की तासीर वहीं
मिट्टी को दबोचा है अलमस्त निढाल बाँहों ने
शब्दों ने भ्रमित करना भी छोड़ दिया है
प्रेम मौन ही तो होता है ये जानते हैं वो
टकटकी लगाकर दोनों डूबते उतरते रहते हैं
आपस में
एक अनछुआ स्पर्श
प्रार्थना का, प्रेम का
तुम्हारा स्पर्श…