ज्वार से लबालब समुद्र जैसी तुम्हारी आँखें
मुझे देख रही हैं
और जैसे झील में टपकती हैं ओस की बूँदें
तुम्हारे चेहरे की परछाईं मुझमें प्रतिक्षण

और यह सिलसिला थमता ही नहीं

न तो दिन ख़त्म होता है, न रात
होठों पर चमकती रहती है बिजली
पर बारिश शुरू नहीं होती

मेरी नींद में सूर्य-चंद्रमा जैसी परिक्रमा करती
तुम्हारी आँखें
मेरी देह को कभी कंदरा, कभी तहख़ाना, कभी संग्रहालय
तो कभी धूप-चाँदनी की हवाओं में उड़ती
पारदर्शी नाव बना देती हैं

मेरे सपने पहले उतरते हैं तुम्हारी आँखों में
और मैं अपने होने की असह्यता से दबा
उन्हें देख पाता हूँ जागने के बाद

मरुथल के कानों में नदियाँ फुसफुसाती हैं
और समुद्र के थपेड़ों में
झाग हो जाती है मरुथल की आत्मा

पृथ्वी के उस तरफ़ से एकटक देखती तुम्हारी आँखें
मेरे साथ कुछ ऐसे ही करिश्मे करती हैं
कभी-कभी चमकती हैं तलवार की तरह मेरे भीतर
और मेरी यादाश्त के सफ़ों में दबे असंख्य मोरपंख
उदास हवाओं के सन्नाटे में
फड़फड़ाते परिंदों की तरह छा जाते हैं

उस आसमान पर जो सिर्फ़ मेरा है!

चन्द्रकान्त देवताले की कविता 'अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही'

Book by Chandrakant Devtale:

चन्द्रकान्त देवताले
साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन कार्य से संबद्ध रहे हैं। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि।