अमृता जी अब नहीं है देखा जाए तो कहीं नहीं हैं, अमृता होना या उनका नहीं होना आसान है क्या। पर इस फेरे में जो आता है वह जाता भी है। कुछ लोग होते हैं जो रहकर भी नहीं रहते और कुछ होते जो जाकर भी नहीं जाते। आप जाकर भी नहीं जा पायीं।

अमृता होना अगर किसी स्त्री के बस में होता तो शायद हर वो स्त्री अमृता होती जो छोड़ना, और बिना झुके, बिना लुढ़के किसी के पैरों में, जानती है निभाना। सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार करना। प्यार करना किसी इबादत की तरह। जिस समय आपने घर, जिसके दायरे इतने सीमित होते हैं कि औरत पैर भी लम्बे कर ले तो कानाफुसी होती है उस समय आपने हिमालय से भी ऊंची दहलीज़ लांघी थी वो भी तब जब आपके हाथ पैर सब बेड़ियों से जकड़े हुए थे। शादी की बेड़ियां, जो हर लड़की के गले बचपन में ही पड़ जाती थीं, जो उस समय ग़लती से पैदा हुई। आपने किस मन से, किस संयम से, और किस हिम्मत के औज़ार से उसे तोड़ा होगा सोच कर ही एक लौ जलती है अंदर कहीं।

जब ये अहसास हो जाये कि बग़ैर उसके जीना नहीं तब अमृता को अमृता होना पड़ता है। जिस बात का आज विकृतिकरण हो रहा उसे आपने उस समय अपनाया जब किसी जीव के सपने में भी बिना शादी के साथ रहना नहीं आया होगा। आपने सपना भी देखा, उसे पूरा भी किया और निभाया भी पूरी मर्यादा, पूरी शिद्दत से। कहते हैं प्यार ताक़त देता है। आपने जो लोहा खाया, जो लोहा पिया उसी लौहतत्व ने उस कालेपन को नई रोशनी से भर दिया। ना जाने कितनी आत्माओं को ये सम्बल दिया कि प्रेम करना बुरा नहीं, बशर्ते उसमें कोई दावा ना हो, बशर्ते वो ख़ालिस हो, बशर्ते उसका कोई नाम ना हो।

घर को छोड़ना उसके लिये जिसके लिये शायद तुम उतने ज़रूरी ना हो, ना मिलने पर कोई तमाशा नहीं, गिड़गिड़ाना नहीं- पूरे स्वाभिमान से अलग हट जाना यक़ीनन आपकी अना ही रही होगी। टूटना इतना कि नर्वस ब्रेक डाउन भी हो जाए तब भी भीख में भी प्यार ना मांगना। यही स्वाभिमान, यही अना हमें आईने के सामने खड़ा रख पाती है। चाहे पैरों में खड़े रह सकने लायक़ ताक़त ना भी बची हो। लेकिन टूट कर गिरना भी तो अकेले में, उसके सामने तो हरगिज़ नहीं। जिसे ना समझना होगा वो नहीं ही समझेगा उसे बोल कर क्या बताना। आपकी वही अना आज भी कई दिलों में धधक रही है जो प्रेम को सोने से खरा बना देती है।

प्रेम का खरापन बहुत खारा भी होता है जिसे दिन रात गटकना पड़ता है। जीभ ही नहीं अंदर की आतें तक गल जाती है उस नमक के खारेपन से। नमक खाने में डालकर खाना और बात है।

आप सबकी अमृता बन गईं! जिसने भी जाना समझा, इस दुनिया के कड़वे घूँट पिये, वो मीरा की तरह गली गली गाने वाली, कृष्ण की चाह में दर दर भटकती मीरा हो गई। सभी तो नहीं बन पाई अमृता… वो अमृता कैसे बनती कैसे हो पाती वो किसी की अमृता, उन्हें कहाँ मिला कोई इमरोज़।

अमृता आप तो बहुत सी आत्माओं में आ गईं, जन्म भी लिया कई कई बार, लेकिन इमरोज़ तो दोबारा नहीं आ पाए। कैसे हो जाये वो बिना छत के क्योंकि आपने ही तो कहा था ना कि अगर साहिर आसमान हैं आपके लिये तो छत इमरोज़ हैं फिर बिना किसी छत के खुले आसमान में तो रहा नहीं जा सकता। ये वाजिब भी नहीं। अगर साहिर ने अमृता की लेखनी को ताक़त दी तो इमरोज़ उसका काग़ज़ बन गए, कोरा काग़ज़। बिना काग़ज़ के लेखनी अधूरी है।

प्रेम और स्वतंत्रता, स्त्रियों की क़िस्मत में होने ही चाहिये। तभी स्वतंत्रता दिवस मनाया जा सकता है। तभी ना कोई एक शख़्स बनेगा स्वतंत्रता दिवस।जैसे इमरोज़ थे अमृता के। इमरोज़ ये जानते थे कि सोते जागते साहिर का नाम गुनगुनाती हो आप और जब भी लिखना चाहे तो हाथ ख़ाली ना भी हों तो क्या? पीठ तो है। एक सवाल के जवाब में कहा भी था उन्होंने आपसे स्कूटर चलाते वक़्त कि बुरा क्यों लगेगा जो मेरी पीठ पर साहिर लिखा तुमने, साहिर भी तुम्हारे और पीठ भी तुम्हारी। तो ये है महीन कपास की मोहब्बत, मलमल के कपड़े सी झक्क सफेद। मलाई सी पाक और स्वादिष्ट।

जिसने की होगी इस तरह वही जान सकता है वरना इमरोज़ से बड़ा पागल कोई नहीं इस दुनिया में जो किसी और के प्रेम में पगी एक ज़हीन, ख़ुद्दार स्त्री का स्वतंत्रता दिवस बन जाए। जो रात बेरात अपनी लिखावट की दुनिया में रहे बेसुध और एक निस्पृह आदमी चाय का कप रख जाए चुपचाप। उस चाय के कप से बढ़कर और इबादत क्या होगी जिसमें चीनी भी है, दूध भी, बस चाय की पत्ती के साथ ख़याल की पत्ती भी।

कैसे कैसे लोग होते हैं ना दुनिया में- कोई तो अपने पेड़ का एक फूल तक ना दे किसी को और दूसरी तरफ़ कोई जो अपनी पूरी ज़िन्दगी दे दे। किस मिट्टी से पैदा होते हैं, ना जाने कौन सी खाद से इनका पोषण होता है। क्या ये उस हाड़मांस से बने नहीं होते जिनसे वो जो नाकाम होने पर किसी जीते-जागते इंसान को राख का ढेर बना देने में भी कोताही नहीं बरतते। और दूसरी तरफ़ चंद लोग जो इसे उपवन बना देते है महकता, खिलखिलाता, चिड़िया की चहचहाती आवाज़ों का उपवन। अमृता और इमरोज़ का उपवन जिसमें हर पौधे पर साहिर नाम का फूल खिलता है।

अमृता आप अमृता हुईं तो कई अमृताओं के पंखों में जान आयी। कई अमृताओं को लगा कि प्रेम केवल पाने का और पाकर खोने का नाम नहीं है! प्रेम केवल जीने का नाम है, प्रेम में केवल और केवल होने का ही अर्थ है, ना होना तो सभी तरफ़ है।

प्रेम कोई मंज़िल नहीं है, एक राह है चलते जाने के लिये। किस लड़की के ख़्वाबों में कोई एक साहिर नहीं आता। लेकिन हर लड़की अमृता हो नहीं पायी। कुछ आधी अधूरी हुई लेकिन हुई। उनके आधे होने में भी आपकी पूरी जीत है।

आप जानती हैं आपकी रसीदी टिकट के भरोसे ना जाने कितनी चिट्ठियाँ भेजी गईं बिना पते के। आपकी सोच, आपकी बनायी एक अलग राह पर वो चलती हैं और जीती हैं जीवन की वो भूली बिसरी कहानियाँ जो दर्ज है सिर्फ़ डायरियों में।

हर अमृता सिर्फ़ आपको कहती है …तुम्हारी अमृता!! और रोज़ सोते वक़्त ख़ुद से कहती है ‘मैं तुम्हें फिर मिलूँगी!’

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