तुमको बिठा के मैं बताता क्या?
लफ़्ज़ों की कमी थी मैं सुनाता क्या?
बिताने थे चंद लम्हें ज़िन्दगी के,
ज़िन्दगी ही छोटी थी बिताता क्या?
कभी सहर हुई, कभी शाम हुई,
इंतज़ार की हर घड़ी तेरे नाम हुई,
वादा था मिलने को चांदनी रातों में,
चांद ही छुप गया, तुम्हें दिखाता क्या?
तुमको बिठा के मैं बताता क्या?
लफ़्ज़ों की कमी थी मैं सुनाता क्या?
ख्वाबों के दरिया में गोते लगाता रहा,
खोजा तुझे, सीपों को हटाता रहा,
मिलता जो तू मोती हो जाता मेरा,
ख्वाब ही ना रहा, मैं बचाता क्या?
तुमको बिठा के मैं बताता क्या?
लफ़्ज़ों की कमी थी मैं सुनाता क्या?
शिद्दत भी थी , तेरा ज़िक्र भी था,
मोहब्बत भी थी और फिक्र भी थी,
इकरार-ए-मोहब्बत की कमी रह गई थी,
मोहब्बत ही ना बची, निभाता क्या?
तुमको बिठा के मैं बताता क्या?
लफ़्ज़ों की कमी थी मैं सुनाता क्या?
मयकदे में बैठ भुलाता रहा तुझको,
जिक्र-ए-फ़िराक़ में लाता रहा तुझको,
पूरी शब निकल गई तेरे चर्चा-ए-हुस्न में,
मयखाना सूना पड़ा था, बड़बड़ाता क्या?
तुझे बिठा के मैं बताता क्या?
लफ़्ज़ों की कमी थी मैं सुनाता क्या?
ना हुआ मुकम्मल इश्क़ हमारा कोई ग़म नहीं,
मुहब्बत तुझसे छोड़ दे, उनमें से हम नहीं,
कभी और आएंगे इस दुनियां में तुम्हे लिखाकर,
तकदीर नहीं थी, खुद को समझाता क्या?
तुमको बिठा के मैं बताता क्या?
लफ़्ज़ों की कमी थी मैं सुनाता क्या?