भेड़िए
आते थे पहले जंगल से
बस्तियों में होता था रक्तस्राव
फिर वे
आते रहे सपनों में
सपने खण्ड-खण्ड होते रहे।

अब वे टीवी पर आते हैं
बजाते हैं गिटार
पहनते हैं जीन
गाते-चीख़ते हैं
और अक्सर अंग्रेज़ी बोलते हैं

उन्हें देख
बच्चे सहम जाते हैं
पालतू कुत्ते, बिल्ली, ख़रगोश हो जाते हैं जड़।

भेड़िए कभी-कभी
भाषण देते हैं
भाषण में होता है नया ग्लोब
भेड़िए ग्लोब से खेलते हैं
भेड़िए रचते हैं ग्लोब पर नये देश
भेड़िए
कई प्राचीन देशों को चबा जाते हैं।
लटकती है
पैट्रोल खदानों की कुँजी
दूसरे हाथ में सूखी रोटी

दर्शक
तय नहीं कर पाते
नमस्ते किसे दें
पैट्रोल को
या रोटी को।
टीवी की ख़बरें भी
गढ़ते हैं भेड़िए
पढ़ते हैं उन्हें ख़ुद ही।

रक्तस्राव करती
पिक्चर-ट्यूब में
नहीं है बिजली का करण्ट
दर्शक का लहू है।

कुबेर दत्त की कविता 'स्त्री के लिए जगह'

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कुबेर दत्त
(1 जनवरी 1949 - 2 अक्टूबर 2011) जनवादी लेखक संघ हिन्दी के मशहूर कवि