जब उम्र की हो ढलान,
तब ज़िन्दगी नहीं होती आसान ।

ज़िम्मेदारियाँ ज़रूर पूरी हो जाती हैं तब तक,
चुनौतियाँ नयी-नयी देने लगती हैं दस्तक ।

सपनों से टूटने लगता है नाता,
यथार्थ पंख फैलाने है लगता ।

सोचती हूँ सत्य, यथार्थ से दूर,
कुछ पल के लिए हो जाऊँ मजबूर।

उगते सूरज के उमंग-उत्साह में जागूँ,
डूबते सूरज के साथ सुख-शांति में डूब जाऊँ ।

जब जीवन रसमय होगा,
तब कविता में नवीनता प्रस्फुटित होगी ।

बादल बरसेगा, बिजली चमकेगी,
सोंधी मिट्टी की महक में हवा गुनगुनाएगी,
फूलों के रंगों की छटा लुभाएगी…

ऐसे में उमर फिसलेगी नहीं,
कुछ पल के लिए वहीं थमी रह जाएगी ।