‘अनसोशल नेटवर्क’ किताब भारत के विशिष्ट सन्दर्भों में सोशल मीडिया का सम्यक् आकलन प्रस्तुत करती है। जनसंचार का नया माध्यम होने के बावजूद, सोशल मीडिया ने इस क्षेत्र के अन्य माध्यमों को पहुँच और प्रभाव के मामले में काफ़ी पीछे छोड़ दिया है और यह दुनिया को अप्रत्याशित ढंग से बदल रहा है। इसने जितनी सम्भावनाएँ दिखायी हैं, उससे कहीं अधिक आशंकाओं को जन्म दिया है। वास्तव में राजनीति और लोकतंत्र से लेकर पारिवारिक और व्यक्तिगत सम्बन्धों तथा उत्पादों और सेवाओं की ख़रीद-बिक्री तक शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जो सोशल मीडिया के असर से अछूता हो। यह एक ओर जनसंचार के क्षेत्र को अधिक लोकतांत्रिक बनानेवाला नज़र आया तो दूसरी ओर इस क्षेत्र को प्रभुत्वशाली शक्तियों के हित में नियंत्रित करने का साधन भी बना है।
ऐसे ही अनेक पहलुओं का विश्लेषण करते हुए यह किताब सोशल मीडिया की बनावट के उन अहम बिन्दुओं की शिनाख़्त करती है जो इसे ‘अनसोशल’ बनाती हैं। यह किताब सोशल मीडिया के अध्येताओं के साथ-साथ इसके यूज़रों के लिए भी ख़ासी उपयोगी है। किताब दिलीप मंडल और गीता यादव द्वारा लिखी गयी है और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है किताब का एक अंश—
क्या आपने सोशल मीडिया में अपना नाम और अपनी तस्वीर पोस्ट कर दी है और वे वास्तविक हैं? क्या आपने सोशल मीडिया में अपना सम्पर्क पता, फ़ोन नम्बर और ईमेल सार्वजनिक किया हुआ है? अगर हाँ तो आपको चिन्तित हो जाना चाहिए। आप सिर्फ़ यह सोचकर संतोष कर सकते हैं कि यह सब शेयर करनेवाले आप अकेले नहीं हैं।
तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, पुणे के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर धीरज सिंह ने जब 200 स्टूडेंट्स और टीचर्स के बीच यही सवाल पूछे तो उन्हें पता चला कि 90 प्रतिशत ने अपना वास्तविक नाम और 92 प्रतिशत ने अपना असली फ़ोटो सोशल मीडिया पर लगाया है। 88 फ़ीसदी ने अपना फ़ोन नम्बर और 66 प्रतिशत ने अपना ईमेल एड्रेस सार्वजनिक किया हुआ है। 33 फ़ीसदी ने तो अपने घर का पता और 24 प्रतिशत ने अपनी वैवाहिक स्थिति की जानकारी सोशल मीडिया पर दे दी है। यह वो जानकारियाँ हैं जो सोशल मीडिया पर लोग देख सकते हैं। हमारे पास यह जानने का कोई ज़रिया नहीं है कि इस सर्वे में हिस्सा लेनेवाले प्रतिभागियों ने जो जानकारियाँ अपने बारे में दीं, वे सही हैं या नहीं, लेकिन हम अनुमान लगा सकते हैं कि काफ़ी लोग ऐसी सूचनाएँ सोशल मीडिया पर डालते हैं।
भारत में चूँकि डाटा प्राइवेसी को लेकर कोई क़ानूनी फ़्रेमवर्क नहीं है और पश्चिमी देशों की तरह यूज़र का डाटा सार्वजनिक करने के लिए कम्पनियों पर भारी जुर्माना नहीं लगाया जा सकता, इसलिए यहाँ किसी के बारे में डाटा किसी को दे दिए जाने को लेकर कोई हंगामा नहीं होता और न ही किसी सोशल मीडिया कम्पनी को इसके लिए क़ानून की नज़र में दोषी क़रार दिया जा सकता है। इस पुस्तक के लिखे जाने तक पर्सनल डाटा प्रोडक्शन बिल पास नहीं हुआ था और 2020 की शुरुआत से इस पर संसदीय समिति विचार कर रही थी।
अभी स्थिति यह है कि भारत में ऐप डेवलपर या ऐप के मालिक आपसे आपका डाटा लेने से पहले कई बार साफ़ शब्दों में आपसे मंज़ूरी नहीं लेते। जबकि अमेरिकी और यूरोपीय देशों में ऐसा करना बेहद ज़रूरी है। जब भी आप कोई ऐप डाउनलोड करते हैं तो आपसे कई तरह की परमिशन ली जाती है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में यूज़र बिना टर्म और कंडीशन को पढ़े ही उनकी शर्तों पर सहमति जता देता है। कई बार तो इस सहमति के बिना ऐप डाउनलोड भी नहीं होते यानी ऐप चाहिए तो आपको डेवलपर की शर्त माननी होगी। इस वजह से यूज़र कई बार सोचे-समझे बिना ही, सहमति के बॉक्स पर टिक कर देता है।
इंटरनेट के आने के कई दशक बाद और सोशल मीडिया के आने के लगभग डेढ़ दशक बाद तक भारत में डाटा सुरक्षित रखने सम्बन्धी क़ानून का न होना यह बताता है कि भारत में डाटा की सुरक्षा को लेकर सिर्फ़ सरकार और नीति नियंता ही नहीं, आम यूज़र भी कितने लापरवाह और बेफ़िक्र हैं। भारत में अभी यह मुद्दा नहीं बन पाया है। हालाँकि इनक्रिप्शन के तमाम दावों के बावजूद, व्हाट्सऐप पर किए गए चैट सार्वजनिक हो रहे हैं और इस बारे में लोगों को झटका भी लगा है, लेकिन लोग कम्पनी से जवाब तलब करने की जगह ख़ुद को इस बात के लिए तैयार कर रहे हैं कि सोशल मीडिया पर क्या बताया जाए और क्या न बताया जाए।
डाटा सिक्यूरिटी को लेकर भारत की स्थिति ज़्यादा नाज़ुक इसलिए भी है क्योंकि भारत में लगभग 98 प्रतिशत स्मार्ट फ़ोन एंड्रायड ऑपरेटिंग सिस्टम (बाकी आईओएस) पर चलते हैं और एंड्रायड सिस्टम पर डाटा की सुरक्षा का अच्छा बन्दोबस्त नहीं है। जब भी कोई यूज़र इस सिस्टम पर कोई ऐप डाउनलोड करता है, वह दरअसल अपना डाटा सार्वजनिक करने का रास्ता खोल देता है।
इसके अलावा भारतीय यूज़र का सोशल मीडिया व्यवहार भी एक पहलू है जिसकी वजह से भारत में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर सार्वजनिक किए गए डाटा की भरमार है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर पोस्ट या स्टेटस की डिफ़ॉल्ट सेटिंग पब्लिक यानी सार्वजनिक होती है, जिसे हर कोई देख सकता है। बहुत कम लोग ही इस सेटिंग को बदलते हैं। इस वजह से फेसबुक जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर 90 प्रतिशत से ज़्यादा स्टेटस सार्वजनिक होते हैं।
कैंब्रिज ऐनालिटिका जैसी कम्पनियों—जो डाटा लेकर उन्हें किसी भी ख़रीदार को बेचती हैं—के लिए भारत एक खुला मैदान है क्योंकि यहाँ उसे डाटा इकट्ठा करने के लिए वो जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती। यूरोप और अमेरिका में उसके लिए यही काम बहुत मुश्किल है।
दरअसल सोशल मीडिया के आने के बाद से इंटरनेट पर व्यक्तिगत जानकारियों की बाढ़ आ गई है। सोशल मीडिया पर ढेर सारा समय बिताने के दौरान यूज़र अपने सामाजिक व्यवहार, ख़रीदारी के व्यवहार, रुचियों, राजनीतिक रुझान, सांस्कृतिक अभिरुचियों आदि के बारे में लगातार जानकारियाँ देता रहता है। इसके साथ अगर किसी आदमी की लोकेशन, उसके ख़र्च करने के तरीक़े, उसके सम्पर्क आदि के बारे में जानकारी मिल जाए तो उस आदमी को समझना और उसके भविष्य के एक्शन के बारे में अन्दाज़ा लगाना आसान हो जाता है। हालाँकि यह अन्दाज़ा ज़रूरी नहीं है कि 100 फ़ीसदी सही हो, फिर भी उसके बारे में अनुमान लगाने का एक वैज्ञानिक ज़रिया तो सर्फ़िंग और स्क्रोलिंग बिहेवियर से मिल ही जाता है।
ऐसी जानकारियाँ कई तरह से उपयोगी होती हैं। इनका इस्तेमाल कम्पनियों से लेकर राजनीतिक दल और सरकारों से लेकर व्यक्ति तक कर सकते हैं। इसलिए डाटा अब बिक्री योग्य वस्तु है और बाज़ार में इसके ढेरों ख़रीदार हैं। यह डाटा सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल कम्पनियों की आमदनी का प्रमुख स्रोत है। इसलिए जब हम बिना कोई ख़र्च किए फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप आदि का इस्तेमाल करते हैं तो दरअसल हम उन्हें कोई रक़म तो नहीं देते, लेकिन उन्हें अपना डाटा सौंपते चले जाते हैं, जिसे यह कम्पनियाँ आगे बेच देती हैं या ख़ुद भी वे इसका इस्तेमाल कर लेती हैं। मिसाल के तौर पर यूज़र के सर्फ़िंग बिहेवियर और उसकी लोकेशन के डाटा के आधार पर यह तय किया जाता है कि वह किस तरह के विज्ञापन देखेगा। यूज़र के पैदा किए हुए डाटा के आधार पर मार्केटिंग और विज्ञापन की रणनीतियाँ बनायी जाती हैं।
आप किसी ख़ास समय में किस स्टोर में घुसकर कौन-सा प्रोडक्ट ख़रीद रहे हैं या किसी ख़ास जगह पर खड़े होकर कौन-सा कैब बुक करके कहाँ जा रहे हैं, जैसे आँकड़े रियल टाइम कोई देख सकता है और इन जानकारियों का इस्तेमाल कर सकता है। यह न सिर्फ़ ग्राहक के तौर पर आपकी पहचान का सार्वजनिक होना है, बल्कि इससे आपकी निजी सुरक्षा को भी ख़तरा हो सकता है।
इसी तरह अगर किसी यूज़र ने अपने सर्फ़िंग बिहेवियर से कोई राजनीतिक रुझान दिखाया तो राजनीतिक दल या कोई कॉरपोरेट उनके लिए ख़ास विज्ञापन उनकी फ़ीड में डाल सकता है। कोई कम्पनी लोगों के सर्फ़िंग व्यवहार के आधार पर यह जानकारी ले सकती है किसी ख़ास अपार्टमेंट के लोग किस पार्टी को पसन्द और किसे नापसन्द करते हैं और विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय क्या है। यूज़र के पैदा किए हुए डाटा के विश्लेषण से ऐसी असीमित सम्भावनाओं को परखा जा सकता है और उन जानकारियों का और उन विश्लेषणों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस डाटा का किस तरह से और कितने तरीक़े से इस्तेमाल होगा, यह अन्दाज़ा लगा पाना यूज़र के लिए सम्भव नहीं है। यह अन्दाज़ा लगा पाना सोशल मीडिया कम्पनियों के लिए भी सम्भव नहीं है क्योंकि जिन कम्पनियों को वे यूज़र का डाटा बेचती हैं, वे इसका किसी भी तरह का इस्तेमाल कर सकती हैं या यही डाटा वे आगे बेच सकती हैं। यह सब इसलिए है क्योंकि सोशल मीडिया का एकाउंट बनाते समय या किसी ऐप को डाउनलोड करते समय हमने यह सोचा भी नहीं है कि उस प्लेटफ़ॉर्म को हम किस तरह के अधिकार दे रहे हैं। कई बार डाटा या अपने बारे में सूचनाओं को सुरक्षित रख पाना नागरिकों के लिए मुमकिन भी नहीं होता क्योंकि ख़ुद सरकार या सरकारी एजेंसियाँ डाटा इकट्ठा करती हैं। आधार से लेकर पैन कार्ड और आरोग्य सेतु तथा आपकी जीपीएस लोकेशन से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस और एटीएम कार्ड तक के बीच अब सम्बन्ध जुड़ गया है और इन सारी सूचनाओं को अगर बिग डाटा एनालिसिस के साथ जोड़ दिया जाए और लोगों के मोबाइल फ़ोन और उनके सोशल मीडिया व्यवहार को भी एक फ़ैक्टर के तौर पर शामिल कर लिया जाए, तो किसी आदमी के बारे में लगभग हर बात जान लेना सिद्धान्ततः सम्भव है।
हालाँकि यह उस स्थिति की बात है, जब हमारे द्वारा दी गई सहमति (जो शायद सोच-समझकर न दी गई हो) के आधार पर हमारे डाटा को बेचा जाए या किसी को दे दिया जाए। इसके अलावा डाटा चोरी हो जाना भी मुमकिन है और ऐसा कई बार हो चुका है।
डाटा प्राइवेसी से जुड़े कई और पहलू भी हैं, जिसमें इंटरनेट फ़्रॉड, रिलेशनशिप को लेकर धोखाधड़ी, बैकिंग फ़्रॉड आदि शामिल हैं। सोशल मीडिया के आने के बाद चूँकि यूज़र जेनरेटेड कंटेंट और डाटा की मात्रा बढ़ी है, इसलिए ग्राहक के तौर पर उनकी प्रोफ़ाइलिंग आसान और ज़्यादा सटीक हो गई है। लेकिन भारत में फ़िलहाल इसे लेकर उतनी गम्भीर चिन्ताएँ नहीं हैं, जैसी चिन्ता पश्चिमी देशों में है। निजता यानी प्राइवेसी का उल्लंघन अभी तक इलीट वर्ग की चिन्ताओं में ही शामिल हो पाया है। इसलिए सोशल मीडिया कम्पनियाँ बेफ़िक्र नज़र आ रही हैं।
डॉ. तुलसीराम की किताब 'मुर्दहिया' का किताब अंश यहाँ पढ़ें