उसे क्या नाम दूँ जिसे मैंने
अपनी बुद्धि के अँधेरे में देखा नहीं
छुआ
जिसने मेरे छूने का जवाब
छूने से दिया
और जिसने मेरी चुप्पी पर
अपनी चुप्पी की मोहर लगायी
जिसने मेरी बुद्धि के अँधेरे पर
मेरे मन के अँधेरे की
तहों पर तहें जमायीं
और फिर जगा दिया मुझे
ऐसे एक दिन में
जिसमें आकाश तारों से भी
भरा था
वातावरण जिसमें
दूब की तरह हरा था
और कोमल!
अनुपम मिश्र का संस्मरण 'स्नेह भरी उँगली'