मैं वसन्त के ख़्वाबों में सोया हूँ
फूलों के खिलने का एक संगीत होता है
जो जगा देगा मुझे अपने आप,
सूखे पत्तों की चादरें
जो गिरी हुई हैं मुझ पर
सच कहता हूँ
तब मख़मल सी हो जाएँगी,
बहुत मीठा आलस होगा
जब धीरे-धीरे खोलूँगा पलकें—
पारिजात दिखेंगे,
कोयल बोलेगी,
मेरे नंगे तलवों के नीचे
हरी घास होगी

आँखें खुलेंगीं पूरी
तब ग़ायब हो जाएँगी
सुनसान गलियाँ
गुमसुम हुए बच्चों की भोली नाराज़गी,
वो मनहूस उदासी जिसका ज़ंग लग गया है बच्चों की
छोटी साईकलों पर
और वो चिन्ता का तीखा एसिड
जो तैर रहा है हर माँ-बाप की जीभ पर

सच कहता हूँ
सब ग़ायब हो जाएगा
सच कहता हूँ
वसन्त आएगा!

सिद्धार्थ बाजपेयी
हिंदी और अंग्रेजी की हर तरह की किताबों का शौकीन, एक किताब " पेपर बोट राइड" अंग्रेजी में प्रकाशित, कुछ कविताएं कादम्बिनी, वागर्थ, सदानीराऔर समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित. भारतीय स्टेट बैंक से उप महाप्रबंधक पद से सेवा निवृत्ति के पश्चात कुछ समय राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में अध्यापन.सम्प्रति 'लोटस ईटर '.