विद्योत्तमा शुक्ला, मैं तुम्हें जानती हूँ!

तुम हमारे जौनपुर की ही थीं!

तुम्हारा बेटा मेरे बेटे से कुछ लहुरा या जेठ था
तुम मुझे चौकीया के मेले मिली थीं

गोद में बेटा था, सितारा जड़ी साड़ी को दाँत से दबाकर तुमने मुस्कियाकर कहा था—
हमहू अबकी बम्बई जा रहे हैं

तुम ख़ुशी से फुटेहरा हुए जा रही थीं
पता नहीं ये बम्बई जाने की ख़ुशी थी या साथी के साथ की या एक पुरनम आज़ादी का सपना

क्योंकि मैं सारे शुकुलाने पड़ाने मिश्राने की बहुओं को जानती हूँ— घूँघट जितना लम्बा हो और ज़बान जितनी छोटी हो, बहू उतनी ही सुघड़ है

बेहया होती हैं वो बहुएँ जो चौखट पर खड़ी दुवार झाँकती हैं

विद्योत्तमा शुक्ला मैंने सुना था जब तुमने राह में तड़पकर कहा अब कभी बम्बई नहीं जाना

न जाना बम्बई अबकी यहीं रह जाना

यहीं गाँव के चकरोड पर साथी का हाथ पकड़कर चल लेना
गाँव के बाज़ार में ही साथी के साथ ठेले पर खड़ी गोलगप्पे खाना

गाँव के ही मेले में बड़का झूला दोनों साथ बैठकर झूलना
कोई घूरकर चकबक कहेगा, ये शुकुल की बहू है तो तुम हँसकर साथी को चूम लेना
और कहना मेरा नाम विद्योत्तमा शुक्ला है।