मौजूदगी

एक बेशकीमती दिन बचा रहता है
कल के आने तक
हम बांसुरी में इंतज़ार के पंख लपेट हवा को बुलाने से ज़्यादा, कुछ नहीं करते
एक अनसुनी धुन बची रहती है
हर फूँक से पहले

तुम दीवार पर लगे चित्र को देख मुस्कुराते हो
बेशक, तुम्हारी मुस्कुराहट चित्र से परे दृश्य को ना देख पाने का एक अफ़सोस भर है
चित्र के पीछे छिपी दीवार पर जमी मिट्टी को खुरचो
उग आने की जगह निश्चित नहीं होती

जिन जंगलों से गुजरोगे
वहाँ आखेट के लिए सिर्फ तितलियाँ ही बचेंगी
तुम तीर चलाकर किसी हवा को जख़्मी कर जाओगे, पत्तों से खून टपकेगा, तितलियाँ फ़रार हो जाएंगी मीलों दूर

उड़ने की ललक ही अभेद रख पाती है देह को
नव कण पराग मौजूद रहता है फूलों पर, हर नव छुअन से पहले..

लगभग

सारे आसमान के नीचे, एक दिन
शीशों के पर्दे होंगे
तुम, लगभग देख लोगे पूरा आसमान
बाज़ों की हल्की उड़ान
तुम, लगभग महसूस करोगे
अपनी पेशानी पर बारिश की टपकन, किरणों की चुभन

पूरी पृथ्वी के ऊपर, एक दिन
रूई के खेत होंगे
तुम, लगभग पोंछ लोगे छलकते ख़ून
तौलते रह सकोगे, ज़ख्मों को साँस रहने तक

तमाम शहर की सड़कों पर, एक दिन
दौड़ेगा कोई खूँख़ार जानवर
रेंगेगा भयानक अजगर
तुम भी दौड़ोगे, फुफकारोगे,
लगभग बचा लोगे मनुष्यता को निगलने से, खींचकर उनकी अंतड़ियों से

किसी दिन, पसीजेगा शीशा : ख़ून टपकेगा : मैं समझूँगा लगभग बारिश
महकेगी रूई : मैं सूँघूँगा लगभग गुलाब
दम्भ भरेगी मनुष्यता : मैं भरूँगा : किसी दिन और…

अधहरी चाह

बास्केटबॉल कोर्ट की सीढ़ियों से
निहार रहा था आसमान
कि भनक लग गयी हवाओं को

इतनी तेज़ बही कि
क्षण में बुला लायी बादल
देखने भी ना दिया; ढाँप लिया पूरा आकाश

मुँह चिढ़ाते, बाल उड़ाते
बहने लगे ऊपर से नीचे
झाड़ गए नीम के अधहरे पत्ते

मैंने पूछा झरते पत्तों से
दर्द नहीं हुआ?
कहते, उड़- फड़फड़ाकर ज़मीन की पंखुड़ियों पर बैठने की ललक थी
सो पता न चला कब छूट गए टहनी से

पर अब जो गिरे हैं तो
छिटक गए हैं बास्केटबॉल कोर्ट की फ़र्श पर
थोड़ी चोट लगी, थोड़ी ज़मीन न मिली,
सो दर्द है

तुम अबकी निहारो ना ज़मीं को
कहीं फिर भनक लगी हवाओं को
तो उड़ा ले आएँगी कुछ धूल, थोड़ी सी मिट्टी
तुम्हारे लिए, हमारी खुशियों के लिए..

किसी दिन

जिन कविताओं को सोचकर छोड़ दिया
कभी किन्हीं काँपती पुतलियों पर
कभी किसी सफर की थकान में
कभी किसी अधपकी रोटी में
उन्हें फिर जब देखूँगा, लौटूँगा
पाऊँगा एक कोना, अपने स्मृति की कक्षा में

मैं, फिर सोच रहा हूँ: रात है
चाँद मेघ में क़ैद है, मैं तेरी स्मृतियों के गृह में
जिसकी दीवार पर किसी बेचैन दीये की लौ से खींची कालिख की काजल लगा मैं अपने चक्षुओं में जल भरता हूँ

रात के तीसरे पहर जब दायीं करवट लेता हूँ, मेरा दायाँ कंधा तेरे भार से सुन्न पड़ जाता है
एक प्रतीक्षा रहती है मुझमें, असहनीय है, रुके हुए रक्त की छटपटाहट है

तुम, दीवार के उस तरफ की दीवार पर हरा लिखती हो
इस तरफ पीला उग आता है
झर जाऊँगा किसी पल मैं भी पीला होकर
उन्हीं काँपती पुतलियों पर, उन्हीं सफर की थकान में, उन्हीं अधपकी रोटियों पर
उन्हीं कविताओं को सोचकर..

खाली हाथ

मेरे हाथ कुछ नहीं आया,
जब अपने खाली हाथ को मला
तो निकल आये कुछ मैल,
उसमें किसी मिट्टी का
सोंधापन नहीं था आज।

पसीने में सनी कुछ बेरंग शिकायतें थी;
जो अबूझ थी मेरे लिए,
पर गंध थी उसमें
कई लोगों की हथेलियों की
जिनसे मैंने हाथ तो नहीं मिलाया
पर जाने-अनजाने में तब मिल गया
जब मैंने, बसों-मेट्रो में झूलती हुई
कड़ी को पकड़ा था,
खुद को खड़ा रख पाने के लिए।

जब ये तेज़ गुज़रती ज़िन्दगी
अचानक से थम जाती है,
तब ज़रूरत पड़ती है अक्सर
इन्हीं खाली हाथों की,
यही खाली हाथ
सूंघ सकते हैं ऐसी गंध।

ख़त नहीं लिक्खे सदी से!

सुबह उठते ही कहीं से
ओसारे की बैठकी में
पछिया की बयार आयी
जाने कितनी यादें लायी
छप्परों को भेद मुझतक
इक किरण पहुँची व पूछा
लौटे हो तुम किस बदी से?
ख़त नहीं लिक्खे सदी से!

थान पर बैठी थी टिकरी
हो चली थी बुझती ढिबरी
देख मुझको रह न पायी
और उठ कर फिर रंभाई
आँखों से वो पूछती थी
जाके तुम परदेस प्यारे
स्वाद तुम भूले दही के?
ख़त नहीं लिक्खे सदी से!

चल पड़ा मैं, खेत देखूँ
माटी पानी रेत देखूँ
धान की बाली ने पूछा
आम की डाली ने पूछा
वो जो तुमको खिंचती थी
तेरा हर पल सींचती थी
अब वो बहना भूलती है
रोज़ थोड़ा सूखती है
बातें तुमने की नदी से?
ख़त नहीं लिक्खे सदी से!

*
टिकरी – गाय का नाम

चुम्बकीय क्षेत्र में गिलहरी

(ए मर्ग-ए-नागहाँ! तुझे क्या इंतज़ार है? – ग़ालिब)

सारे पेड़ से ऊपर, हरे मकान की छत पर
गांव की ठगी को याद करूँ, हँसू

भयानक-मुरझाई धूप
मेरे रोम खड़े
मैं शिखर पर, नीरवता में
फूलों के गीत, फलों का पीला
पत्तों के राग साथ करूँ

ऐ तार… तार… तार…
आओ, थोड़ा और गर्माओ
मुझे झूला जाओ
अपने विद्युतीय, चुम्बकीय तरंगों से
झंकृत करो, सहलाओ
अतीत के सूरज के गीत गाओ

कुहनियां अब थकती हैं
सांसें अब लटकती हैं
जब-जब तुम कहते हो
अम्बिया वहाँ पकती हैं

चल देती फिर भी मैं
आगे… कुछ आगे
सपनों से तितर-बितर
मन घायल भागे

मैगी, बिस्किट, पिज़्ज़ा
के टुकड़े चबाऊँ
याद करूँ अमरूद की लिबलिब
स्वाद के कितने करीब जाऊँ!

ऐ हवा, ऐ लहर
ऐ मकाँ, ऐ शहर
लुट चुके हैं जामुन सब
झड़ गया गम्हार है
मर्ग-ए-नागहाँ! तुझे क्या इंतज़ार है?

विशेष चंद्र ‘नमन’
विशेष चंद्र नमन दिल्ली विवि, श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज से गणित में स्नातक हैं। कॉलेज के दिनों में साहित्यिक रुचि खूब जागी, नया पढ़ने का मौका मिला, कॉलेज लाइब्रेरी ने और कॉलेज के मित्रों ने बखूबी साथ निभाया, और बीते कुछ वर्षों से वह अधिक सक्रीय रहे हैं। अपनी कविताओं के बारे में विशेष कहते हैं कि अब कॉलेज तो खत्म हो रहा है पर कविताएँ बची रह जाएँगी और कविताओं में कुछ कॉलेज भी बचा रह जायेगा। विशेष फिलहाल नई दिल्ली में रहते हैं।