जीवन के जिस अन्तरावकाश में
सुनी जा सकती थी
धरती और चाँद की गुफ़्तगू,
वहाँ मशीनी भाषाओं में हुए
कई निर्जीव सम्वाद।
जहाँ तराशा जा सकता था
प्रेम का नया स्थापत्य,
वहाँ उठा दिए गए
महलों के कंगूरे और मल्टीकॉम्पलेक्स।
जहाँ खोजे जा सकते थे
संघर्ष के नए फ़ॉन्ट,
वहाँ दोहराए गए
‘दो दूनी चार’ के वणिक छाप सूत्र।
जहाँ लिखा जा सकता था
हरियाए पेड़ की देह का गीलापन,
वहाँ थामे हिंसक अस्त्र
ढहाए गए धरती के हाथ
चीरा गया धरती का सीना।
जहाँ जिया जा सकता था
मिट्टी की गन्ध का सोंधापन,
वहाँ हवाओं में घोली गई बारूदी गन्ध।
जीत का भ्रम पालकर
बढ़ता रहा रथ,
किन्तु
नेपथ्य में चलता रहा कुछ और ही,
कि एक लड़ाई जीतने के साथ ही
हारी गईं सौ-सौ लड़ाइयाँ।
दूर को थामने की कोशिश में
फिसलता रहा पास,
बहरहाल नदी बह चुकी थी अपनी उम्र,
पानी उतरने के साथ
उतरता गया पानी का रंग भी,
और किनारे खड़े हो गए थे
नदी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लेकर।