अनुवाद: मायाप्रकाश पाण्डेय

मैं भी हैरान हूँ
इस परकीय संस्कृति में जन्म लेकर
त्रस्त हृदय मेरे
तू और तुम भी चलो प्रिये
चलो
द्वार-द्वार पर बैठाए मंदिरों को
फेंक दें खाई में…
और… अपने नग्न बच्चों को
वर्णसंकर आचार्य जिन्हें मानते हैं शापित
बहा दें… गंदे नाले में
उन्हें भी अच्छा नहीं लगेगा हमारी तरह
जीना
उस पार गाँव की अपनी झोपड़ी में
सवर्णों को आग लगाने दो
वे भी ज़रूर जलेंगे उसमें
इस अग्नि ज्वाला को
फैला दो क्षितिज के उस पार
भले ही हम सब राख हो जाएँ
शूद्र होने से अच्छा है
चलो प्रिये
मैं भी परेशान हूँ इस परकीय संस्कृति को
ओढ़कर!

दलपत चौहान
दलपत चौहान (जन्म-1945) गुजराती दलित साहित्य में एक महत्वपूर्ण नाम हैं! ये ताउम्र दलित आवाम और समाज को आंदोलन के द्वारा प्रेरित करते रहे और लेखन कार्य द्वारा उनमें जागृति फैलाते रहे!