वह दीवाल के पीछे खड़ी है
दीवाल का वह तरफ़ उसके कमरे में है
जिस पर कुछ लिखा है
कोयले से

कोयले से की गयी हैं चित्रकारियाँ
वन-उपवन, पशु-पक्षी, देश-विदेश
सब उभर आए हैं
दीवाल पर

वह खड़ी है जहाँ, ठीक वहीं
दीवाल के बाहर से फूट रहा है
पीपल का एक पौधा, उसकी फूटती आँखें
ठीक वहीं से दुनिया को देखती हैं

वह कोयले से आँक रही है दुनिया
दीवाल में अपनी तरफ़, दीवाल के बाहर
असली दुनिया झुलस रही है, पेड़ पौधों
बागड़ से लेकर दूर-दूर की इमारतें
नदी, पहाड़, झरने सब झुलस रहे हैं

एक अदृश्य आकाश से
टप-टप तारे गिरते हुए
एक ग़ायब संसार के
अस्पर्श्य छलावे में
तमाम पड़ोस से अनसुनी
एक चीख़ पीछा कर रही है
भागते हुए कवि का,
शब्दों के बीच जगह ढूँढती एक
पागल चील की प्यासी चीख़

वह दीवाल के पीछे खड़ी है
उसे अभी किसी ने नहीं देखा है
कवि को भी इससे ज़्यादा
उसके बारे में क्या मालूम हो सकता है
जो सदियों से उसी तरफ़ खड़ी है
दीवाल के पीछे
ग़ायब संसार की बेवजह नोक पर!

सुदीप बनर्जी की कविता 'उतना कवि तो कोई भी नहीं'

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