निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा ख़ून साफ़ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से माँसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’—यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काँइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।
स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज़ है, स्त्री सम्बन्धी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब सम्बन्धी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं।
मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे— “आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?”
मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा, “वह शराब पीता है।”
निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है।
वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई। उनका चेहरा उतर गया था।
मैंने कहा, “पीने दो।”
वे चकित हुए। बोले, “पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?”
मैंने कहा, “हाँ, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुक़सान भी नहीं है।”
उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे।
तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले, “आप चावल ज़्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पाँव डालते हैं या बायाँ? स्त्री के साथ रोज़ सम्भोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?”
अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे, “ये तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब।”
मैंने कहा, “वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राइवेट बात है। मगर इससे आपको ज़रूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएँगे—वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द की दाल खाता है।”
तनाव आ गया। मैं पोलाइट हो गया, “छोड़ो यार, इस बात को। वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते हैं तुमने मुझे अमर बना दिया। यहाँ तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूँ। (ऋषि को ज़्यादा चढ़ गई होगी) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे।”
चेतना का विस्तार। हाँ, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूँ। एक सम्पन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं। पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं। कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर ख़ुद रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं। पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं—मिरगी की तरह। सुना है मिरगी जूता सुँघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुँघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्ख़ा भी आज़माया हुआ है।
एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे (आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रातः समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं)। यह रोडवेज़ के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेज़ी बोलने लगे। कबीर ने कहा है—‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’। यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेज़ी बोले। नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था। हमने कहा, अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेज़ी बोलने लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार ज़रा ज़्यादा ही हो गया था। कहने लगे, नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफ़ुल मुर्ग़ा। ‘अंग्रेज़ी’ भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज़ को ख़ूबसूरत कह रहे हैं। जो भी ख़ूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है। कहा, इंडिया इज़ ए ब्यूटीफ़ुल कंट्री। और छुरी-काँटे से इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खानेवालों ने कहा, अगर इंडिया इतना ख़ूबसूरत है, तो बाक़ी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया। बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो। अंग्रेज़ ने कहा, अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा, अहिंसक क्रांति हो गई। बाहरवालों ने कहा, यह ट्रांसफ़र ऑफ़ पॉवर है—सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफ़र ऑफ़ डिश’ हुआ—थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई।
वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं।
फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस सम्बन्ध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कही हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर। नुक़सान की ज़िम्मेदारी कम्पनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था।
मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज़ और दुःखी था।
मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया— “और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक सम्बन्ध हैं।”
मैंने कहा, “हाँ, यह बड़ी ख़राब बात है।”
उसका चेहरा अब खिल गया। बोला, “है न?”
मैंने कहा, “हाँ, ख़राब बात यह है कि उस स्त्री से अपना सम्बन्ध नहीं है।”
वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊँचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया।
और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झाँकने के लिए होती है।
कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झाँककर देखती होगी कि किसका सम्बन्ध किससे चल रहा है।
किसी स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोग़ा मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झाँककर पूछते हैं—तेरे भीतर क्या छिपा है?
एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं— “उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है।”
वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डाँटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे।
जिस आदमी की स्त्री-सम्बन्धी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है—ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाज़ारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता।
एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया।
बड़ा सरल हिसाब है अपने यहाँ आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच कि नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे। बहुत-सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा—ज़्यादा झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टाँगों के बीच में रख लो।
हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 'इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर'