कई बार मैं उससे ऊबा
और
नहीं—जानता—हूँ—किस ओर
चला गया।

कई बार मैंने संकल्प किया।
कई बार
मैंने अपने को
विश्वास दिलाने की कोशिश की—
हम में से हरेक
सम्पूर्ण है।

कई बार मैंने निश्चय किया
जो होगा, सो होगा
रह लूँगा—
और इस ख़याल पर
मुग्ध होता हुआ
कि मैं एक पहाड़ हूँ
समूचे आकाश को
अकेला सह लूँगा।

कई बार मैंने पौरुष का नक़ाब ओढ़
वह कुछ छिपाना चाहा
जो अन्दर
कुरेद रहा था।
कई बार एक अँधेरे से निकल
दूसरे अँधेरे में
जाने की कोशिश की,
लेकिन प्रत्येक बार
रुका
और
मुड़ा
और
नहीं जानता हूँ क्यों
अपने ही बनाए हुए
रास्तों को
अपनी ही
पीठ लाद
वहाँ लौट आया
वह जहाँ
निढाल पड़ी हुई थी
कई बार मैं उससे
ऊबा
लेकिन प्रत्येक बार
वहीं लौट आया।

श्रीकांत वर्मा की कविता 'बुख़ार में कविता'

Book by Shrikant Verma:

श्रीकान्त वर्मा
श्रीकांत वर्मा (18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986) का जन्म बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। वे गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। ये राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ', 1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1973 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये।