कई बार मैं उससे ऊबा
और
नहीं—जानता—हूँ—किस ओर
चला गया।
कई बार मैंने संकल्प किया।
कई बार
मैंने अपने को
विश्वास दिलाने की कोशिश की—
हम में से हरेक
सम्पूर्ण है।
कई बार मैंने निश्चय किया
जो होगा, सो होगा
रह लूँगा—
और इस ख़याल पर
मुग्ध होता हुआ
कि मैं एक पहाड़ हूँ
समूचे आकाश को
अकेला सह लूँगा।
कई बार मैंने पौरुष का नक़ाब ओढ़
वह कुछ छिपाना चाहा
जो अन्दर
कुरेद रहा था।
कई बार एक अँधेरे से निकल
दूसरे अँधेरे में
जाने की कोशिश की,
लेकिन प्रत्येक बार
रुका
और
मुड़ा
और
नहीं जानता हूँ क्यों
अपने ही बनाए हुए
रास्तों को
अपनी ही
पीठ लाद
वहाँ लौट आया
वह जहाँ
निढाल पड़ी हुई थी
कई बार मैं उससे
ऊबा
लेकिन प्रत्येक बार
वहीं लौट आया।
श्रीकांत वर्मा की कविता 'बुख़ार में कविता'