‘Wah Prem Mein Nahi, Deh Mein Sthir Tha’, a poem by Saraswati Mishra

वह देह में खोज रहा था प्रेम
ठीक उसी समय सुदूर बैठी वह
प्रेम के धागों से बुन रही थी देह

वह तृषित मन लिए तलाश रहा था
देह में छुपी तृप्ति
वह नेत्रों की तृप्ति से तृप्त कर रही थी मन

उसके हाथ खटखटा रहे थे
देह की साँकल निरन्तर
इधर वह स्मित-हृदय प्रफुल्ल-मन से
बिछा रही थी चौकी पर आँचल
प्रिय का आसन बना

उसके हाथ की पकड़ में उतर आया था
उसका पुरुषत्व
और वह पकड़ की पीड़ा को
समझ रही थी प्रिय की अज्ञानता,
भोलेपन पर रीझती आँखों से पार रही थी
प्रिय के माथे पर दिठौना

वह प्रेम में नहीं, देह में स्थिर था
उस हृदयहीन की खुरदुरी उँगलियों ने
खींच दिए थे तमाम धागे
प्रेम तंतुओं से बुनी देह के,
रेशे-रेशे बिखरी अपनी देह को समेट
वह ओढ़ा रही थी प्रियतम को,
हृदय का तकिया बना तसल्ली कर रही थी
उसकी बेहतर नींद की

दोनों दो अलग-अलग ध्रुवों के निवासी थे
वह देह को झकझोर कर
निचोड़ लेना चाहता था प्रेम
और यह प्रेम को झाड़कर
ओढ़ लेती थी देह की तरह।

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