मूल कविता: ‘वहम’ – विजय राही
अनुवाद: असना बद्र
जब भी सोचा मौत के बारे में मैंने
चंद चेहरे रूबरू से आ गए
वो जो करते हैं मोहब्बत बे ग़रज़ और बे रिया
गो के ये इक व्हम हो शायद मिरा..
व्हम जो बेहद ज़रूरी है अभी मेरे लिए
मैं तो ये भी चाहता हूँ
इस तरह के व्हम हर इंसान के बातिन में हों
इक अगर टूटे तो फिर
वो दूसरे के साथ ज़िंदा रह सके
नन्हे बच्चे व्हम के हाले में बैठे सोचते हों
इक खिलौनों की भी दुनिया है कहीं
इक दिन जहाँ वो जाएँगे
और सब अच्छे खिलौने साथ लेके आएँगे
व्हम हो बूढ़ों के दिल में
उनके बच्चे गर नहीं करते हैं इज़्ज़त ना करें
उनके पोते तो अदब आदाब से पेश आएँगे
औरतों को व्हम हो
के अब ये नाइंसाफ़ियाँ
कुछ रोज़ की ही बात है
ख़त्म होने को सितम की रात है
व्हम हो भोले किसानों को
के अबके जो हुकूमत आएगी
वो मुनाफ़ा देगी जो मलहूज़ है
उनका पैसा इक जगह महफ़ूज़ है
वहम हो मज़दूर को
के एक दिन उसको भी
उजरत वो मिलेगी
जिस का वो हक़दार है
गो अभी लाचार है
सरदहदों पर फ़ौजियों को व्हम हो
के जंग की तमहीद तक टल जायगी
लौट जाएँगे वतन वो
और उनके बाप की दोकान भी चल जाएगी
नौकरी की चाह में भटके हुए बेरोज़गार
ख़ुशगुमानी में रहें
वो बनेंगे अपने प्यारों के लिए वजहे निशात
शादमानी में रहें
आशिक़ों को व्हम हो
के उनकी महबूबा कभी चूमेगी उनको
और करेगी
दावाए पाइंदगी
डूब कर इक नशशाए मसरूर में
कहने लगेगी
तू नहीं तो क्या है मेरी ज़िंदगी।
यह भी पढ़ें: असना बद्र की नज़्म ‘वो कैसी औरतें थीं’