वो जो कोई थी
किसी ज़माने में
मेरी उम्र के सफ़ेद और काले पन्नों के बीच
किसी सतरंगी चित्र-सी
जिसका तय था सम्बन्ध
हमारे मिलने के
बहुत पहले से ही,
बनना था उसे
एक कुलीन घर की बहू
जैसे हवेली में होता है
कोई झूमर
हो चुकी थी घोषित धर्मपत्नी,
विवाह की
संकरी स्याह अँधेरी गुफाओं की
भूलभुलैया से बिना गुज़रे,
किसी कथित राजकुमार की
बनना था उसे कोख का पिटारा
कुलीनता के भ्रम पालते
वंश का अंश ढोने के लिए
बंधुआ मज़दूर की तरह
मगर फिर भी
हमारी नज़दीकियों के तराने
यूँ ही रोज़ मिल जाने के बहाने
मुलाक़ातों के क़िस्से दर क़िस्से
ज़िन्दगी के चीथड़ों को रफ़ू करते हैं
उसका प्रारब्ध तय था
मगर मेरा नहीं
उसके साथ सदियाँ गुज़ारनी थीं
और हर एक लम्हे में
सदियाँ गुज़ारी गईं
न कभी दिल की बात कही गई
न कभी दिल की बात सुनी गई
हमें तो बस एक-दूसरे की नज़दीकियाँ
ठण्ड के बीच किसी अलाव-सी सुहाती थीं
इस अनकहे अहसास का
यह रेशमी धागा
वक़्त के खंजर पर टिक न सका
कॉलेज का बसन्त लौट गया
रह गए बस
उसकी यादों के पीले टूटे पत्ते
उसे लौटना था
कुलीनता के वक्रजाल में
और मुझे समेटने थे पैर
अपनी हैसियत की गुदड़ी में
इस सीमारेखा के
उस पार उसकी रियासत
इस पार मेरा छप्पर
यहीं से हम लौट गए
अहसास के दो टुकड़े होकर
मेरे चेहरे पर थी फीकी हँसी
और उसके गालों पर
ढलता हुआ एक आँसू।