‘Wo Sundar Ladkiyan’, a poem by Ruchi
वो ख़ूबसूरत लड़कियाँ थीं,
बचपन ये सुन-सुनकर गुज़रा-
“चाची, चला ऐकर चिंता त खत्म,
सादी बियाहे में परेसानी न होई।”
बचपन से ही पनपने लगा,
कुछ ख़ास होने का छलावा।
बहनों की ईर्ष्या का कारण बनीं,
तो सहेलियों के अकारण द्वेष का।
जितनी संख्या में सराही गयीं,
दुगनी मिली उसकी वैमनस्यता।
कक्षा में टोका गया इनको शिक्षकों द्वारा,
“सुन्दर होने से कुछ नहीं होता, शक्ल से सुन्दर, दिमाग़ ख़ाली है क्या?”
सांस्कृतिक गतिविधियों में अगुआ बनायी गयीं,
और दबाव रहा अच्छे प्रदर्शन का।
ख़ूबसूरती का परिहास उड़ाया गया,
अन्य दैनिक असफलताओं पर।
लड़कियों के काॅलेज में ही दाख़िला लेना,
चेताया गया हर दूसरे शुभेच्छु द्वारा।
माँ देती है दुहाई, बाप भाई की इज़्ज़त की,
पसन्दीदा विषय के लिए सहशिक्षा काॅलेज चुनना,
बताया गया- “सुन्दर है पर आवारा, भुगतेगी करम अपना।”
वाक़ई भुगतती रहीं, अपना करम,
सुन्दरता चाटता रहा दीमक आहिस्ता।
विज्ञान, गणित के प्रैक्टिकलों में,
असुविधा होने पर शिक्षकों ने दिया,
विशेष कक्षाओं का आश्वासन,
शर्त ये थी कि अकेले आना होगा।
घर पर दुरादुराई गयीं, “कहा था ना,
गृह विज्ञान लेकर महिला विद्यालय चुनो!
अब पढ़ो चाहे न पढ़ो, घर गृहस्थी सीखो,
अगले बरस तक बियाह दी जाओगी।”
ससुराल में बताया गया, शक्ल के नाते,
कम दहेज लिया गया नहीं तो लड़का तो करोड़ों का था।
पति के बाहर बहकते क़दमों पर ,
मुँह दबाकर हँसी सुनायी देती नन्द भौजाई की,
“थू है ऐसी सुन्दरता पर नयकी!”
सास ससुर से चेताया जाता है,
पति को बाँध क्यूँ नहीं पायी,
सारी सुन्दरता धता बतायी गयी।
पति को समझाने की कोशिश पर
नीली मुहरों की सौगात मिलती देह पर
“साली, सुन्दरता का रौब मुझ पर गाँठने की सोचना भर मत।”
मायके में भौजाई सिखाती पति बाँधने के गुन,
और न बाँध पाने की स्थिति में व्यंग्य करती आँखों से
“जीज्जी, इतनी सुन्दर हो शक्ल से, कहीं ठण्डी…”
माँ को हो आती है अचानक से उस लड़की की चिंता,
जिसका भाग्य बचपन भर सराहा गया।
भाई-पिता बताते हैं यह सहशिक्षा में जाने का है दुष्परिणाम।
तमाम प्रश्नचिह्नों के बावजूद गोद भराई की रस्मअदायगी होती है,
पति समझाता है प्यार से घर और बाहर के खाने का भेद,
और रौंद देना चाहता है सुन्दरता इस हद तक कि
सुन्दरता बगावत को सोच भी काँप जाए।
गोद भरते ही आश्वस्त हो जाते हैं सब,
सुन्दरता बेड़ियों में सुरक्षित कर दी गयी है,
माँ लेती है, भरे-पूरे परिवार की बलैंया,
सास पोते-पोती को देख अघाती है,
पति फ़ुरसत में रहता है बीबी से,
बाल बच्चों में व्यस्त है, कहाँ जाऐगी उड़कर।
ताने परिष्कृत होते जाते हैं,
“साज शृंगार से मिल गयी हो फ़ुरसत, तो ज़रा घर के काम में दिल लगा लिया करो।”
“तुमको क्या ज़रूरत है सँवरने की, बाल बच्चों में ध्यान दो।”
आईने को पीठ दिखा जग जीतना चाहती हैं वो सुन्दर लड़कियाँ, पर हर जगह मुँह की खाती हैं, सुन्दर लड़कियाँ।
सुन्दरता अन्य गुणों पर पोत देती है कालिख,
उपलब्धियों, सफलता पर जताया गया-
“सुन्दर है, सफलता तो मिलनी ही थी।”
असफलताओं पर सुनाया गया,
“शक्ल से हर जगह दाल नहीं गलती।”
सुन्दरता सशंकित रही हमेशा प्रेम के प्रति,
अधिकाशंतः चेहरे और देह पर ही फिसलता रहा प्रेम,
बुरी तरह विमूढ़ रहीं सुन्दर लड़कियाँ,
ख़ुद को सुरक्षित करते करते।
भूल चुकी हैं छल कपट का भेद,
फ़र्क़ नहीं कर पातीं अच्छे बुरे इन्सान का,
क्योंकि रोपा गया था बड़े जतन से,
बचपन से ही सुन्दरता का छलावा।
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