यही सोचकर आज नहीं निकला
गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।
लहराते थे झील-ताल, पर्वत
हरियाते थे
हम हँसते थे झरना-झरना, हम
बतियाते थे
इन्द्रधनुष उतरा करता था
एक इशारे में।
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।
छूती थी पुरवाई खिड़की, बिजली
छूती थी
झूला छूता था, झूले की कजली
छूती थी
टीस गई बरसात भरी
पिछले पखवारे में।
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।
जंगल में मौसम सोने का हिरना
लगता था
कितना अच्छा चाँद का नागा करना
लगता था
मन चकोर का बसता है
अब भी अंगारे में।
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।
कैलाश गौतम की कविता 'गाँव गया था, गाँव से भागा'