किताब: ‘लाल टीन की छत’ – निर्मल वर्मा
रिव्यू: यशस्वी पाठक
‘लेखक की आस्था’ में निर्मल वर्मा ने लिखा-
“कला मनुष्य के उन स्मृतिखण्डों को नष्ट होने से बचाती है जिन्हें इतिहास भविष्य के ज़ोम में जाकर कूड़ेदानी में फेंक देता है- वे स्मृतियाँ जो अतीत को समेटने या हमारे जीने में सहायक होती हैं और जिनके बग़ैर हम अपने आप से अजनबी बने रहते हैं।”
निर्मल वर्मा की नॉविल ‘लाल टीन की छत’ अतीत की उन्हीं स्मृतियों को सहलाती है जिनके बग़ैर हम अपने आप से अजनबी बने रहते हैं। कहानी काया की है.. नहीं, सिर्फ़ काया की नहीं बल्कि हर उस शख़्स की जो इण्ट्रोवर्ट है, जिसे बाहर की दुनिया से ज़्यादा आपने भीतर की दुनिया रास आती है। नॉविल एक ट्रैंज़िशन पीरिड का सुन्दरतम ख़ाका है। काया उम्र के उस मोड़ पर है जहाँ घटनाओं के मानी बदलने लगे हैं, बचपन छूट रहा है और किशोरावस्था दस्तक दे रही है। उसमें भौतिक यथार्थ की समझ पनपने लगी है, मगर काया उस समझ से डरती है, भागती है और ख़ुद को घसीटकर एकाकीपन के हवाले कर देती है। बचपन की खोल उस पर से उतर रही है जिसमें बार-बार वह चिमटे, दुपके की कोशिश करती है।
वह भटकती है, उम्मीद, जिज्ञासा और जोखिम के साथ आसपास की चीज़ों में कोई न मौजूद, पकड़ में न आने वाली चीज़ की तलाश में। इस तलाश में उसे कोई ऐसी चीज़ मिलती है जो न पूरा-पूरा सुख है और न पूरा-पूरा अवसाद। नॉविल में एक उदासी है। कई बार आप महसूस करते हैं कि इस उदासी से बड़ा कोई सुख नहीं।
काया के अलावा तीन और अहम किरदार हैं- ‘छोटे’, ‘बीरू’, और ‘मँगतू’। तीनों से काया का एक निराकार रिश्ता है, जिसका कोई रूप नहीं। जिसमें मोह है, चाहना है, पीड़ा है और जिस वक़्त यह नहीं है, उस वक़्त कुछ भी नहीं है, उनके होने का आभास भी नहीं… काया बिल्कुल बन्द है… अपने में बन्द।
लाल टीन की छत, पहाड़, बादल, चाँदनी, धुन्ध, बारिश, रेल, झड़ियाँ, पुल, काली का मन्दिर, ऊँचे दरख़्त, लामा का कमरा, मंगतू के पैरों में बंधे चीथड़े, मिस जोसुआ का लेटर-बॉक्स… उसके आसपास की इन चीज़ों ने उसे सोख लिया है। इस चाहना को काया खोना नहीं चाहती इसलिए वह चाचा के घर फ़ॉक्सलैंड जाने से पहले ‘छोटे’ से पूछती है- ‘मेरी चीज़ों को सम्भाल कर रखोगे?’
काया समय को बाँटती है महीनों और दिनों में वापस आने तक।
“वे सुखी दिन थे, लेकिन उसे इसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। बड़ी उम्र में सुख को पहचाना जाता है- छोटी उम्र का दुःख भूल जाता है- जिस उम्र में काया थी, वहाँ पीड़ा को लाँघकर कब सुख का घेरा शुरू हो जाता था, या ख़ुद एक तरह का सुख पीड़ा में बदल जाता था- यह जानना असम्भव था। वे असम्भव दिन थे।”
ये असम्भव दिन नॉविल के आख़िरी पन्ने पर आकर मुक़्त दिन में बदल जाते हैं। काया को फ़ॉक्सलैंड से भी वही चाहना होती है जो उसे अपने घर और घर की चीज़ों से है। वह घर वापस आने के बाद फ़ॉक्सलैंड में अपने ‘न होने’ को देखना चाहती है। उसे एहसास होता है कि वह वहाँ कोई ऐसी चीज़ छोड़कर जा रही है जिसके बारे में वह किसी से न कह सकेगी। बीरू को भी उसका पता नहीं चलेगा, हालाँकि पहली बार उसने ‘उस चीज़’ को अपने और बीरू के बीच देखा था।
किताब पढ़ते वक़्त अतीत की गड्डमड्ड हो चुकी स्मृतियाँ परत दर परत खुलती जाती हैं। नॉविल बचपन के दिनों की यात्रा है या यूँ कहें कि एक थेरपी है, आसपास की चीज़ें ब्लर हो जाती हैं और बस आप होते हैं, पुराने वाले आप… जब जीवन की भयानक कुरूपता से आप न-वाक़िफ़ थे। आप से आप जुड़ने लगते हैं।
मेरे विचार से निर्मल वर्मा के लेखन की सबसे ख़ूबसूरत बात यह है कि उनके किरदारों से ज़्यादा किरदारों की चेतना और भावनाएँ बोलती हैं। वे मनुष्यों की अनुभूतियों और मनोवृत्तियों को चुन-चुनकर अपने किरदारों को ज़बान देते हैं। यही वजह है कि आप पहले ही पन्ने से कहानी से जुड़ जाते हैं। इसके साथ ही उनकी अपनी निजी भाषा शैली है। एक मनोरम भाषा शैली। वे मरे हुए शब्दों का जमघट नहीं लगाते, बल्कि शब्दों के पीछे जीती-जागती आत्मा होती है।
निर्मल वर्मा ने बचपन से किशोरावस्था के उस ट्रैंज़िशन पीरिड में जो कुछ घटित होता है उसे इस नॉविल में एकदम कच्चे रूप में रखा है। नॉविल के हर पन्ने में एक ठहरा हुआ बदलाव है जैसे रेत में कोई दिलफ़रेब तस्वीर छुपा दी जाए और वक़्त के हल्के-हल्के झोंके से रेत उड़ती जाए और तस्वीर आपके सामने आती जाए। अगर आप उन्हीं सुखी और असम्भव दिनों को दोबारा जीना चाहते हैं तो ये किताब आपकी रीडिंग लिस्ट में ज़रूर होनी चाहिए। किताब वाणी प्रकाशन से छपी है।