जो अप्राप्य है मुझे
उसकी तलाश में भटकूँगा
ध्रुव की तरह स्थापित हो जाऊँगा किसी दिशा में
या नचिकेता की तरह
यात्रा से उत्तरोत्तर लौटूँगा
स्मृतियों की सतहें बनाऊँगा
एक ढाक की तरह
सीढ़ियाँ बनाऊँगा तहों में उतरने को
अपनी पुनर्स्मृतियों में भी जीवित रखूँगा
तुम्हारी अपेक्षाओं का शरीर
पुआल पीटूँगा
छज्जे बनाऊँगा
ताकि एक घर तैयार हो सके
मेरी उपलब्धियों का
लौटने को एक जगह नहीं
घर चाहिए होता है
चौखट चाहिए होती है
बिस्तर चाहिए होता है
मैं जो नहीं हूँ
वह बनने की कोशिश करूँगा
कविताएँ न लिखने के प्रयासों में
कविताएँ लिखूँगा
कवि को जीवन का कोई अनुशासन नहीं बाँध सकता
दर्पण में बैठकर
दुनिया को शीशा दिखाऊँगा
मोम पिघलाकर लोहा बनाऊँगा
नदियों पर नहीं, छतों पर पुल बनाऊँगा
मैं पानी में तैर सकता हूँ, हवा में नहीं
मेरी दूरबीन पुरानी हो गई है
इसकी नाप का चश्मा अब बाज़ारों में नहीं मिलता
जो असाध्य है मेरे लिए
उसको साधने के तरीक़े खोजूँगा
पुरानी पांडुलिपियों को खोद निकालूँगा
नई तूलिकाओं से उनमें रंग भरूँगा
वो मुझे रास्ता दिखाएँगी
वहाँ पहुँचने के
जहाँ कवियों को देश-निकाला मिला
उनकी अस्थियों को वापस लाऊँगा उनके देश
इतिहास ने दुरूह सम्भावनाओं के
खाँचों से ज़मीनें बाँटी हैं
ज़मीन पर लकीरें खींचने से बड़ा दुस्साहस कुछ नहीं
मैं लकीरें मिटाऊँगा अपनी चमड़ी के रबर से
जैसे अपना बदन घसीटते
एक इल्ली फैलाता है अपने छोटे पंख
और तोड़ देता है अपने रेंगने का अनुशासन
मैं परिस्थितियों के भटकाव में भटकता रहूँगा
मेरी नाव में कोई माँझी रस्सी नहीं बाँधेगा
नाव का धर्म नदी से बँधे रहना है, तट से नहीं
यायावरों का अनुशासन यात्रा है
यात्रा कोई भी अनुशासन नहीं मानती।
आदर्श भूषण की कविता 'भूख से नहीं तो प्रतीक्षा से मरो'