Ye Pari Chehra Log | a story by Ghulam Abbas
पतझड़ का मौसम शुरू हो चुका था। बेगम बिल्क़ीस तुराब अली हर साल की तरह अब के भी अपने बँगले के बाग़ीचे में माली से पौधों और पेड़ों की काँट-छाँट करा रही थीं। उस वक़्त दिन के कोई ग्यारह बजे होंगे। सेठ तुराब अली अपने काम पर और लड़के-लड़कियाँ स्कूलों-कॉलिजों में जा चुके थे। चुनांचे बेगम साहिब बड़ी बेफ़िक्री के साथ आराम कुर्सी पर बैठी माली के काम की निगरानी कर रही थीं।
बेगम तुराब अली को निगरानी के कामों से हमेशा बड़ी दिलचस्पी रही थी। आज से पंद्रह साल पहले जब उनके शौहर ने—जो उस वक़्त सेठ तुराब अली नहीं बल्कि शेख़ तुराब अली कहलाते थे और सरकारी तामीरात के ठेके लिया करते थे—इस नवाह में बंगला बनवाना शुरू किया था तो बेगम साहिब ने इसकी तामीरात के काम की बड़ी कड़ी निगरानी की थी और ये उसी का नतीजा था कि ये बंगला बड़ी किफ़ायत के साथ और थोड़े ही दिनों में बनकर तैयार हो गया था।
बेगम तुराब अली का डील-डौल मर्दों जैसा था। आवाज़ ऊँची और गम्भीर और रंग साँवला जो ग़ुस्से की हालत में स्याह पड़ जाया करता। चुनांचे नौकर-चाकर उनकी डाँट-डपट से थर-थर काँपने लगते और घर-भर पर सन्नाटा छा जाता। उनकी औलाद में से तीन लड़के और दो लड़कियाँ सन-ए-बलूग़त को पहुँच चुके थे मगर क्या मजाल जो माँ के कामों में दख़ल देना या उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई काम करना पसंद करते थे। चुनांचे बेगम साहिब पूरे ख़ानदान पर एक मलिका की तरह हुक्मराँ थीं। उम्र और ख़ुशहाली के साथ-साथ उनकी फ़र्बही भी बढ़ती जा रही थी और फ़र्बही के साथ रोब और दबदबा भी।
इन पंद्रह बरस में जो उन्होंने इस नवाह में गुज़ारे थे, वो यहाँ के क़रीब-क़रीब सभी रहने वालों से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गई थीं। बाज़ घरों से मेल-मिलाप भी था और कुछ बीबियों से दोस्ती भी। वो इस इलाक़े के हालात से ख़ुद को बा-ख़बर रखती थीं। यहाँ तक कि इमलाक की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त और बंगलों में नए किरायादारों की आमद और पुराने किरायादारों की रुख़्सत की भी उन्हें पूरी-पूरी ख़बर रहती थी।
इस वक़्त बेगम तुराब अली की तेज़ नज़रों के सामने माली का हाथ बड़ी फुर्ती से चल रहा था। उसने पौधों और छोटे-छोटे पेड़ों की काट-छाँट तो क़ैंची से खड़े-खड़े ही कर डाली थी और अब वो ऊँचे-ऊँचे दरख़्तों पर चढ़कर बेगम साहिब की हिदायत के मुताबिक़ सूखे या ज़ाइद टहने कुल्हाड़ी से काट-काटकर नीचे फेंक रहा था ।
कुछ देर बाद बेगम साहिब बैठे-बैठे थक गईं और कुर्सी से उठकर बँगले की चारदीवारी के साथ-साथ टहलने लगीं। बँगले के आगे की दीवार के साथ-साथ जो पेड़ थे, उनमें दो एक तो ख़ासे बड़े थे जिनकी छाँव घनी थी, ख़ासकर विलायती बादाम का पेड़। उसका साया निस्फ़ बँगले के अंदर और निस्फ़ बाहर सड़क पर रहता था। दिन को जब धूप तेज़ हो जाती तो कभी-कभी कोई राहगीर या ख़्वांचे वाला ज़रा दम लेने को उसके साये में बैठ जाता था।
बेगम बिल्क़ीस तुराब अली जैसे ही उस पेड़ के पास पहुँचीं, उनके कान में दीवार के बाहर से किसी के बोलने की आवाज़ आयी। उन्होंने उस आवाज़ को फ़ौरन पहचान लिया। ये उस इलाक़े की मिहतरानी सगू की आवाज़ थी जो अपनी बेटी जग्गू से बात कर रही थी। ये माँ-बेटियाँ भी अक्सर दोपहर को इसी पेड़ के नीचे सुस्ताने या नाशता पानी करने बैठ जाया करती थीं।
बेगम बिल्क़ीस तुराब अली ने पहले तो उनकी बातों की तरफ़ ध्यान न दिया। मगर एकाएकी उनके कान में कुछ ऐसे अल्फ़ाज़ पड़े कि वो चौंक उठीं। सगू अपनी बेटी से पूछ रही थी, “क्यों री तूने तोते वाली के यहाँ काम कर लिया था?”
“हाँ।” जग्गू ने अपनी महीन आवाज़ में जवाब दिया।
“और खिलौने वाली के यहाँ?”
“वहाँ भी।”
“और तप-ए-दिक़ वाली के यहाँ?”
अब के जग्गू की आवाज़ सुनायी न दी। शायद उसने सर हिला देने पर ही इक्तिफ़ा क्या होगा।
“और काली मेम के यहाँ?”
अब तो बेगम तुराब अली से ज़ब्त न हो सका और वो बेइख़्तियार पुकार उठीं, “सगू, अरी ओ सगू। ज़रा अंदर तो आइयो।”
सगू के वहम-ओ-गुमान में भी ये बात न थी कि उसकी बातें कोई सुन रहा होगा। ख़सूसन बेगम बिल्क़ीस तुराब अली जिनकी सख़्त मिज़ाजी और ग़ुस्से से उसकी रूह काँपती थी। वो पहले तो गुमसुम रह गई। फिर मरी हुई आवाज़ में बोली, “अभी आयी बेगम साहिब!”
थोड़ी देर बाद वो आँचल से सीने को ढाँपती, लहँगा हिलाती, बँगले का फाटक खोल अंदर आयी। जग्गू उसके पीछे-पीछे थी। दोनों माँ-बेटीयों के कपड़े मैले चिकट हो रहे थे। दोनों ने सर में सरसों का तेल ख़ूब लीसा हुआ था।
“सलाम बेगम साहिब!” सगू ने डरते-डरते कहा। अभी तक उसकी समझ में न आया था कि किस क़सूर की बिना पर उसे बेगम साहिब के हुज़ूर पेश होना पड़ा।
बेगम साहिब ने तहक्कुमाना लहजे में पूछा, “क्यों री मुर्दार, ये तो बाहर बैठी किन लोगों के नाम ले रही थी?”
“कैसे नाम बेगम साहिब?”
“अरी तू कह रही थी न तोते वाली, खिलौने वाली, तप-ए-दिक़ वाली, काली मेम?”
सगू ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा, “वो तो बेगम साहिब, हम आपस में बातें कर रहे थे।”
“देख सगू सच-सच बता दे वर्ना मैं जीता न छोड़ूँगी।”
सगू पल-भर ख़ामोश रही। उसने जान लिया कि बेगम साहिब से बात छुपानी मुश्किल होगी और उसने बड़ी लजाजत से कहना शुरू किया, “वो बात ये है बेगम साहिब, हम लिखत पढ़त तो जानते नहीं और हमको लोगों के नाम भी मालूम नहीं। सो हमने अपनी निसानी के लिए उनके नाम रख लिए हैं।”
“अच्छा तो ये तोते वाली कौन है?”
“वो जो बड़ा-सा घर है न अगली गली में नुक्कड़ वाला…”
“फ़ारुक़ साहिब का?”
“जी बेगम साहिब वही। उनकी बीवी ने तोता पाल रखा है। हम उनको निसानी के लिए तोते वाली कहते हैं।”
“और ये खिलौने वाली कौन है?”
“वो जो मसीत के बराबर वाले बँगले में रहती हैं।”
बेगम तुराब अली ने उस इलाक़े का नक़्शा ज़हन में जमाया, ज़रा देर ग़ौर किया, फिर बोलीं, “अच्छा बख़्श इलाही साहिब का मकान?”
“जी सरकार वही।”
“अरी कम्बख़्त तू उनकी बेगम को खिलौने वाली क्यों कहती है। जानती भी है वो तो लखपती हैं लखपती, खिलौने थोड़ा ही बेचते हैं।”
“जब देखो उनकी कोठी में हर तरफ़ खिलौने ही खिलौने बिखरे रहते हैं। बहुत बढ़िया-बढ़िया खिलौने। ये बड़े-बड़े हवाई जहाज़। चलने वाली, बातें करने वाली गुड़िया। बिजली की रेलगाड़ी, मोटरें…”
“अरी मुई, ये खिलौने तो वो ख़ुद अपने बच्चों के खेलने के लिए विलायत से मँगवाते हैं, बेचते थोड़ा ही हैं।”
“हम तो निसानी के लिए कहते हैं बेगम साहिब।”
“और ये काली मेम किस बी साहिबा का ख़िताब है?”
“वो जो क्रिस्टान रहते हैं ना…”
“मिस्टर डी फिलौरी?”
“जी हाँ वही।”
“हे कमबख़्त तेरा नास जाए…और तप-ए-दिक़ वाली कौन है?”
उधर को सगू ने हाथ से इशारा करते हुए कहा, “वो बड़ी सड़क पर पहली गली के नुक्कड़ वाला जो घर। उसमें हर वखत एक औरत पलंग पर पड़ी रहे है और मेज पर बहुत-सी दवाओं की सीसियाँ नजर आवे हैं।”
बेगम साहिब बेइख़्तियार मुस्कुरा दीं। उनका ग़ुस्सा अब तक उतर चुका था और वो सगू की बातों को बड़ी दिलचस्पी से सुन रही थीं कि अचानक एक बात उनके ज़हन में आयी और उनके चेहरे का रंग मुतग़य्यर हो गया। माथे पर बल पड़ गए। डाँटकर बोलीं, “क्यों री मुर्दार, तूने मेरा भी तो कोई न कोई नाम ज़रूर रखा होगा। बता क्या नाम रखा है? सच सच बताईओ, नहीं तो मारते-मारते बरकस निकाल दूँगी।”
सगू ज़रा ठिठकी, मगर फ़ौरन सम्भल गई।
“बेगम साहिब, चाहे मारिए चाहे ज़िंदा छोड़िए, हम तो आपको बेगम साहिब ही कहते हैं।”
“चल झूठी मक्कार।”
“मैं झूठ नहीं बोलती सरकार, चाहे जिसकी क़सम ले लीजिए… हम बेगम साहिब को बेगम साहिब ही कहते हैं ना?”
जग्गू ने माँ की तरफ़ देखा और जल्दी से मुंडिया हिला दी।
“मुझे तो तुम माँ-बेटीयों की बात पर यक़ीन नहीं आता”, बेगम तुराब अली बोलीं। इस पर सगू ख़ुशामदाना लहजे में कहने लगी, “अजी आप ऐसी सखी (सख़ी) और ग़रीब परवर हैं। भला हम आपकी सान में ऐसी गुस्ताख़ी कर सकते हैं।”
बेगम साहिब का ग़ुस्सा कुछ धीमा हुआ और उन्होंने सगू को नसीहत करनी शुरू की, “देखो सगू। इस तरह शरीफ़ आदमियों के नाम रखना ठीक नहीं। अगर उनको पता चल जाए तो तुझे एकदम नौकरी से जवाब दे दें।”
“अच्छा बेगम साहिब। इस दफ़ा तो हमें माफ़ कर दें। आगे को हम किसी को इन नामों से नहीं बुलाएँगे।”
सगू ने जब देखा कि बेगम साहिब का ग़ुस्सा बिल्कुल उतर गया है तो उसने ज़मीन पर पड़े हुए टहनों को ललचायी हुई नज़रों से देखा।
“बेगम साहिब”, उसने बड़ी लजाजत से कहना शुरू किया, “ख़ुदा हुज़ूर के साहिब और बच्चों को सदा सुखी रखे। ये जो दो टहने आपने कटवाए हैं ये तो आप हमें दे दीजिए सरकार। झोंपड़ी की छत कई दिनों से डूबी हुई है। उसकी मरम्मत हो जाएगी। ग़रीब दुआ देंगे।”
बेगम बिल्क़ीस तुराब अली पहले ख़ामोश रहीं। मगर जब सगू ने ज़्यादा गिड़गिड़ाना शुरू किया तो पसीज गईं।
“अच्छा अपने आदमी से कहना उठा ले जाए।”
“ख़ुदा आपको सदा सुखी रखे बेगम साहिब, ख़ुदा…”
बेगम साहिब उसकी दुआ पूरी ना सुन सकीं क्योंकि उनको एक ज़रूरी काम याद आ गया और वो बँगले के अंदर चली गईं।
दोपहर को बारह बजे के क़रीब सगू और जग्गू सब काम निमटा घर जा रही थीं कि सामने एक मिहतर मुँडासा बाँधे झाड़ू से सड़क पर गर्द ग़ुबार के बादल उड़ाता जल्द जल्द चला आ रहा था।
ग़ुलाम अब्बास की कहानी 'गूँदनी'
दोनों माँ-बेटियाँ उसके क़रीब पहुँचकर रुक गईं, “आज बड़ी देर में सड़क झाड़ने निकले हो जग्गू के बावा?”
“हाँ, ज़रा आँख देर में खुली थी।” ये कहकर वो मिहतर आगे बढ़ जाना चाहता था कि उसकी बीवी ने उसे रोक लिया।
“सुन जग्गू के बावा। जब सड़क झाड़ चुकियो तो ढडडो के बँगले पर चले जाइयो। वहाँ दो बड़े-बड़े टहने कटे पड़े हैं, उन्हें उठा लाइयो। मैंने ‘ढडडो’ से इजाज़त ले ली है…”