ये असंगति ज़िन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोयी
बाँह में है और कोई, चाह में है और कोई
साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनों भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोयी
देह में है और कोई, नेह में है और कोई
स्वप्न के शव पर खड़े हो
माँग भरती हैं प्रथाएँ
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रहीं कितनी व्यथाएँ
ये कथाएँ उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई
जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कण्ठ के नीचे सँजोयी
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई!
भारत भूषण की कविता 'मन, कितना अभिनय शेष रहा?'