ये लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं!

जैसे गेहूँ के साथ बथुआ
बिन रोपे ही उग आता है!
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ
बेटों की चाह में अनचाहे ही आ जाती हैं!

पीर से जड़ी सुधियों की माला
पहनकर ये बिहसती रहीं!

ख़ुद को खरपतवार मान, ये साध से गिनाती रहीं कि
भाई के जन्म पर क्या-क्या उछाह हुआ!
और गर्व से बतातीं कि कितने नाज़-नखरे से पला है
हम जलखुम्भीयों के बीच में ये स्वर्णकमल!

बिना किसी डाह के ये प्रसन्न रहीं
अपने परिजनों की इस दक्षता पर कि
कैसे एक ही कोख से… एक ही रक्त-माँस से
और एक ही
चेहरे-मोहरे के बच्चों के पालन में
दिन रात का अंतर रखा गया!

समाज के शब्दकोश में दुःख के कुछ स्पष्ट पर्यायवाची थे
जिनमें सिर्फ़ सटीक दुःखों को रखा गया
इस दुःख को पितृसत्तात्मक वेत्ताओं ने ठोस नहीं माना!

बल्कि जिस बेटी के पीठ पर बेटा जन्मा
उस पीठ को घी से पोत दिया गया
इस तरह उस बेटी को भाग्यमानी कहकर मान दे दिया!

लल्ला को दुलारती दादी और माँ
लल्ला की कटोरी में बचा दूध-बताशा इसे ही थमातीं!

जैसे गेहूँ के साथ बथुआ भी अनायास सींच दिया जाता है! प्यास गेहूँ की ही देखी जाती है!

पर अपने भाग्य पर इतरातीं
ये लड़कियाँ कभी देख ही नहीं पायीं कि
भूख हमेशा लल्ला की ही मिटायी गयी!

तुम बथुए की तरह उनके लल्ला के पास ही उगती रहीं
तो तुम्हें तुरंत कहाँ उखाड़कर फेंका जाता?!

इसलिए दबी ही रहना ज़्यादा छतनार होकर
बाढ़ न मार देना! उनके दुलरुआ का!
जो ढेरों मनौतियों और देवी-देवता के अथक आशीष का फल है!

मृदुला सिंह की कविता 'चौथी लड़की'

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