मैंने तेरी अलकों को नहीं
अपनी उलझनों को सुलझाया है!
अपने बच्चों को नहीं
साहबज़ादों को दुलराया है!
तब तुम्हें मुझसे
शिकायत होना वाजिब है
जब साहब को भी शिकायत है!
मैंने प्रेम-पत्र नहीं
आवेदन-पत्र लिखे हैं!
तेरी आँखों का नहीं
साहब की आँखों का रंग देखा है
यही तो मेरी ज़िन्दगी का लेखा है!
घर से जाने से पहले
जब-जब तेरी आँख भर आयी
मैंने साहब की डाँट खायी है
यही तो मेरे जीवन की कमाई है!
तू माने, न माने, सच कहता हूँ
जीवन-संगी तेरा
साहब के संग रहता हूँ।
कामचोर ही होता
तो बंगले पर काम क्यूँ करता?
बेहया होता तो मेम-साहब से क्यूँ डरता?
तू जब-जब रोती है
बरसाती मोती है
शिकार तो मेरी ही ‘केज़ुअल लीव’ होती है!
नौकरी जो भी करता है
कहलाता नौकर है!
ग़रीब की ज़िन्दगी
क्या साहब की ठोकर है?
मदन डागा की कविता 'कविता का अर्थ'