ऐसा नहीं था कि प्रेम में नहीं थी लड़की
पर यह ज़रूर था
कि उसके प्रेम पर हावी हो गयी थी ज़िन्दगी

ज़िन्दगी के फेर में पड़ी लड़की भूल गयी थी
प्रेम में गुलाबी पहनना,
हवा में फर-फर दुपट्टा उड़ाती लड़की
दुपट्टे को कवच बनाना सीख गई थी,
आँखों में काजल की जगह
चिंताएँ आँजती थी,
प्रिय को निहारते हुए सीख गयी थी आँखें पढ़ना

झुमके की लड़ों में दुनिया बांध चहकने वाली लड़की
हर छोटी आवाज़ पर चौकन्नी होने लगी थी

उलझी लटों को उंगलियों से सुलझाती लड़की
अब सुलझाने लगी थी
फुसफुसाहटों के पीछे के समीकरण

तमाम फ़िक़रों को हवा में उछाल
बेबात हँसती बेफ़िक्र लड़की
अब थामकर रखती थी क़दम,
होठों के भीतर हँसना सीख रही थी

घंटों आईना निहारने वाली लड़की ने
तोड़ दी थी आईने से दोस्ती
ठहरे हुए पानी की सतह अब उसका आईना थी
जिसमें ख़ुद को खोजा करती थी अक्सर

सखियों से घण्टों बतियाती लड़की ने
अब अपनी परछाई से दोस्ती कर ली थी
दोपहर के सन्नाटे और सूनी शामें भी
ख़ास दोस्त थे उसके

लड़की ने जान लिया था
ख़ूबसूरत दिखती ज़िन्दगी को बुनने वाले
करघे में निकली हैं तमाम नुकीली कीलें

उसकी उँगलियों से प्रायः रिस आता है ख़ून
वह अधिक सावधान हो बुनने लगती है ‘ज़िन्दगी’!

सरस्वती मिश्र की कविता 'देह से परे भी है प्रेम'

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