ज़िन्दगी से सिर्फ़ इतना वास्ता रक्खें विकल
अपने घर से उसके घर तक रास्ता रक्खें विकल
देख हमको इक सरापा है संवरता बारहा
क्या ज़रूरत है हमें के आइना रक्खें विकल
जब चराग़ाँ जल रहे हों साजिशों की बू लिए
बेहतरी है रोशनी से फ़ासिला रक्खें विकल
चन्द अहसानों के बदले लब पे ताले हैं मगर
ज़ख्म को कैसे बताओ बेज़बां रक्खें विकल
जब हक़ीक़त से भी ज़्यादा ख़्वाब में आया मज़ा
तब ये सोचा ज़िन्दगी को ख़्वाब सा रक्खें विकल