1

ये जो अंधे हुक्मरां का हुक्म है
आदमी के साथ कैसा ज़ुल्म है
अपने रिश्तों और ज़मीनों पर मुदाम
आदमी क्यों काग़ज़ों का हो ग़ुलाम
कौन सा काग़ज़ बताएगा कि हम
क्यों हैं ख़ाली हाथ और ख़ाली शिकम
ये मसाइब, ये निज़ाम ए ज़ात-पात
मज़हबी तक़सीम की लम्बी बरात
इनसे हमको हाकिम ए आली सिफ़ात
कौन सा काग़ज़ दिलाएगा निजात
औरतों पर होने वाले जब्र को
कौनसे काग़ज़ से नापा जाएगा
आदमी पर होने वाले ज़ुल्म को
कौनसे काग़ज़ से ढांपा जाएगा
आदमी देहक़ान है, मज़दूर है
आदमी, हिजरत पे जो मजबूर है
कौनसी इक क़ौम से मंसूब है
आदमी तो हर जगह मसलूब है
हाकिम ए इंसाफ़ परवर सोचिये
वो कोई क़ातिल, कोई ख़ूनी नहीं
भूक और अफ़लास का मारा हुआ
कोई इंसां ग़ैर क़ानूनी नहीं!

2

औरतो! रास्ता दिखाओ हमें

हम जिन्हें नफ़रतों के मौसम में
मौत की फ़स्ल बोना आती है
हम जिन्हें आँधियों के आँगन में
अपनी हर शम’अ खोना आती है
सरहदों, झाड़ियों, फ़सीलों से
अपनी उम्मीद बांधते हैं हम
मरना और मारना ज़रूरी है
सिर्फ़ इतना ही जानते हैं हम

औरतो! तुम मोहब्बतों की अमीन
दर्द ओ ग़म को समझने वाली हो
जन्नतों और जह्न्नमों से परे
सच्ची दुनिया बनाने वाली हो
ऐसी दुनिया कि जिसमें लोगों को
अपने हम-साये से मोहब्बत हो
ऐसी दुनिया जहाँ ख़ुदाओं को
सिर्फ़ इंसान की ज़रूरत हो
ऐसी दुनिया जो रहने लायक़ हो
ऐसी दुनिया जो ख़ूबसूरत हो
जंग और भूक से बहुत आगे
जहाँ जज़्बों की क़द्र होती हो
जहाँ उम्मीद रोज़ आँखों में
इक तमन्ना का बीज बोती हो
आदमी ने गढ़े हैं जो मज़हब
वो बहुत सख़्त और काले हैं
औरतो बस तुम्हारे दामन में
अब नयी सुबह के उजाले हैं

3

नस्लों में ख़ूँ की ख़ुश्बू फैलाने वाले
धर्म के नाम पे लड़ने और लड़ाने वाले
मेरे दोस्त नहीं हो सकते

पागल हो जाने वाले वहशी जज़्बों से
इस दर्जा बेज़ार मोहब्बत के रिश्तों से
भेड़ियों के हामी, जंगली कुत्तों के आशिक़
इतने घिनौने, इतने बुरे और इतने मुनाफ़िक़
मेरे दोस्त नहीं हो सकते

जो ज़ालिम के आगे सजदे में गिरते हों
ख़ून के क़श्क़े माथों पर लेकर फिरते हों
तालिब-इल्मों को अपना दुश्मन कहते हों
जाहिल राह-नुमाओं को मोहसिन लिखते हों
शमशानों, क़ब्रस्तानों को चमन कहते हों
मेरे दोस्त नहीं हो सकते

दिल में मज़हब का मीनार उगाने वाले
ख़्वाब में लाशों के अम्बार लगाने वाले
मेरी उम्मीदों का मद्फ़न हो सकते हैं
मेरे क़ातिल, मेरे दुश्मन हो सकते हैं
मेरे दोस्त नहीं हो सकते

4

अब हम सड़कों पर उतरे हैं तो पूछेंगे

तालीम मिली है कितनों को, कितनों की ग़रीबी दूर हुई?
कितनों को मिली रोज़ी रोटी, कितनों की दुआ मंज़ूर हुई?
वो शहर, चमकते शहर कि जिनका वादा था, किस राह में हैं?
वो ख़्वाब जो तुमने दिखाए थे, क्या नींद की शहर ए पनाह में हैं?
हम पूछेंगे किस जुर्म पे हमको आपस में लड़वाते हो
क्यों कमज़ोरों और नादारों को जीते जी मरवाते हो
जो सच बोले उस आदमी को ज़ंजीर ब कफ़ क्यों करते हो
जो लोग सवाल उछालते हैं उन लोगों से क्यों डरते हो

अब हम सड़कों पर उतरें हैं तो पूछेंगे

क्यों अपने वतन की सब राहें आबाद नहीं हो पाती हैं
क्यों औरतें अपने मुल्क में ही आज़ाद नहीं हो पाती हैं
क्यों शहर की राह में दर्द के दरिया, ज़ख़्म के मौसम पलते हैं
क्यों गाँव अभी तक बोसीदा वहमों की आग में जलते हैं
इफ़लास और भूक के चेहरों पर क्यों अब भी बला की ताज़गी है
अहल ए सियासत हम सब से तुम लोगों की क्या नाराज़गी है
इस बार हवा लहरायेगी, इस बार ज़मीं मुंह खोलेगी
बरसों की उदासी चीख़ेगी, सदियों की ग़ुलामी बोलेगी

अब हम सड़कों पर उतरे हैं तो पूछेंगे

क्यों रंगों से और कपड़ों से हम अहल ए वतन को छांटते हो
हम लोग तरक़्क़ी चाहते हैं, तुम लोग तनज़्ज़ुल बांटते हो
पीछे की तरफ़ जाने वालो आगे की तरफ़ कब निकलोगे
किस दर्द की ज़र्ब से जागोगे, किस ख़ूँ की तपिश से पिघलोगे
कब समझोगे इस मिट्टी में आहों का समुन्दर जारी है
छह सात दहाई से हम पर आज़ाद ग़ुलामी तारी है
कहीं फ़िरक़ा परस्ती की लानत, कहीं धर्म की ठेकेदारी है
ये ज़हर बड़ा ही कारी है, ये बात बड़ी बीमारी है

5

मैंने लफ़्ज़ के नक़्श बनाये काग़ज़ की दीवारों पर
हर्फ़ के कितने फूल खिलाये होंठों के अंगारों पर
उन आँखों के तारों पर
नील उड़ाती लहरों पर
मंडलाते चाँद सितारों पर
लेकिन अब मैं धूल भरी गलियों में रहने आया हूँ
इन गलियों में रंग नहीं है, सियह सफ़ैद सज़ाएं हैं
कोड़े हैं, मालाएं हैं
सजदे हैं, पूजाएं हैं
कंकर बोने वाली आँखें, कीचड़ झेलने वाले पैर
इतने सारे ला यानी झगड़े, इतने बे मतलब बैर
इन बैरों पर नाचने वाली सुर्ख़ सियासत ज़िंदा बाद
मुर्दा घरों में घुट घुट कर जीने की आदत ज़िंदा बाद
इंसानों को रौंदने वाले, रंगीं मज़हब शाद रहें
पत्थर बांटने वालों के हाथ ऐसे ही आबाद रहें

6

ऐ ख़ुदा ए ख़ामोशी, ऐ ख़ुदा ए तनहाई
देख तेरी दुनिया में, क़त्ल करने वालों की
हर जगह हुकूमत है, क़त्ल उन हवाओं का
जिनसे तेरे दामन में लफ़्ज़ फूट सकते थे
क़त्ल उन सदाओं का, जिनसे अहल ए नफ़रत के
ख़्वाब टूट सकते थे, संग छूट सकते थे
तू कहीं नहीं मौजूद, फिर भी इन जियालों ने
नाम पर तेरे कैसे सुर्ख़ शोर डाले हैं
हौल इनकी आँखों में, गूंज इनकी बाँछों में
कलमा ए जहालत के बोझ से दबे ये लोग
जो ज़बां निकाले हैं, उस ज़बां पे ताले हैं
अबलहों की आँखों में, अक्स है किताबों का
और उन किताबों का रंग आसमानी है
आसमानी रंगों की हर किताब के अंदर
ख़ून की कहानी है, फिर भी तेरे लोगों को
ये किताबें प्यारी हैं, ये तेरे पुजारी हैं
एक रंग के शैदाई, इक अलम के दीवाने
शह्र ए संग के बासी, ज़िन्दगी से बेगाने

7

अच्छा तुम्हें सुनना है तो सुन लो
एक ख़ुदा था
जिसको मिलकर इंसानों ने इतना बनाया
इतना बनाया
कि वो बिगड़ गया
लाल थीं सड़कें
घर ख़ाली थे
फूलों की मासूम तहों में
साँपों के फन तैर रहे थे
रात के मद्फ़न जाग रहे थे
लाशों में वो फड़कती पसलियां ढूंढ रहे थे
आग रवां थी, ख़्वाबों के बे-अंत समुन्दर सूख गए थे

अच्छा तुम्हें सुनना है तो सुन लो
दिल की हिकायत
जां की रिवायत
कैसे ख़ुदा ने
उसी ख़ुदा ने जिसको बनाते बनाते सबने इतना बनाया
कि वो बिगड़ गया
दिन रस्तों पर रात उतारी
हँसते बोलते नाचते गाते इन रस्तों पर रात उतारी
जुज़्दानों में लिपटी हुई इक रात उतारी
रोती हुई इक रात उतारी

तबसे शायर जाग रहा है
तबसे शायर देख रहा है
इन राहों से कैसे कैसे लश्कर गुज़रे
पत्थर उछालते, ख़ून बहाते पैकर गुज़रे
काले चोग़े पहने हुए तख़रीब-परस्त घटाओं के सौ मंज़र गुज़रे
माथों पर टीके चमके, सजदे चमके और अस्तीनों से ख़ंजर गुज़रे
फिर कुछ देर के बाद लबों पर मोह्र लगाए
सूखी आँखे लिए, लाशें सीनों से लिपटाये जो बे-घर गुज़रे
शायर सोच रहा है उनको कैसे संभाले, उनकी ख़ातिर क्या कर गुज़रे

8

सैंकड़ों साल से इंसां के लहू की तकरार
इस तरह गूंजती है वक़्त के एवानों में
जिस तरह दर्द उगलता हुआ कोई ताइर
चीख़ता फिरता हो तारीक शबिस्तानों में
उस तरफ़ नाल से निकली हुई चिंगारियां हैं
इस तरफ़ सोग में ढलती हुई किलकारियां हैं
आग की बाड़ से लिपटा है ज़मीं का दरिया
डूब जाती है यहां कितने ग़मों की आवाज़
तेरी कमख़ाब हंसी नज़्म जो करना चाहूं
मेरे की बोर्ड से आती है बमों की आवाज़
सोचता हूँ कि ये अरबाब ए सियासत कब तक
सरहदों वाले सितारों की तिजारत करेंगे
आदमी, आदमी को मारता जाएगा यूंही
और ये मज़हब की, मज़ारों की तिजारत करेंगे
क्यों समझ में नहीं आता है इन्हें जान ए वफ़ा
कि इसी फ़ाएदे में पहलू ख़सारे का भी है
आग के खेल में नुक़सान अंधेरे का नहीं
आग के खेल में नुक़सान उजाले का भी है
मैं तो शाइर हूँ मुझे मौत का ग़म दूना है
मरने वाले का भी है मारने वाले का भी है

तसनीफ़
तसनीफ़ हिन्दी-उर्दू शायर व उपन्यासकार हैं। उन्होंने जामिआ मिल्लिया इस्लामिया से एम. ए. (उर्दू) किया है। साथ ही तसनीफ़ एक ब्लॉगर भी हैं। उनका एक उर्दू ब्लॉग 'अदबी दुनिया' है, जिसमें पिछले कई वर्षों से उर्दू-हिन्दी ऑडियो बुक्स पर उनके यूट्यूब चैनल 'अदबी दुनिया' के ज़रिये काम किया जा रहा है। हाल ही में उनका उपन्यास 'नया नगर' उर्दू में प्रकाशित हुआ है। तसनीफ़ से adbiduniya@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।