मनोरंजन के ‘तीसरे’ परदे के रूप में उभरे नेटफ़्लिक्स पर आयी फ़िल्म ‘बुलबुल’ इन दिनों ख़ूब चर्चा में है। चर्चा का मुख्य विषय है इस फ़िल्म में एक नारीवादी दृष्टिकोण का चित्रण, और दृश्यात्मक भव्यता। ये दो कारण जो इस फ़िल्म को चर्चित कर रहे हैं, वही मेरी नज़र में इसकी बड़ी कमज़ोरी रहे। क्योंकि यह फ़िल्म पर किया गया एक कमेंट है, इसलिए इसे पढ़ने से पहले फ़िल्म देख लें। आगे के विवरण में स्पॉइलर मौजूद हैं।

कहानी उन्नीसवीं सदी के बंगाल के एक ज़मींदार घराने की है। पेड़ की शाखों पर खेलती एक छोटी-सी मासूम बच्ची बुलबुल इस घराने में अधेड़ उम्र के आदमी—जिसे बड़ा ठाकुर बोला जाता है—से ब्याह दी जाती है। आल्ता लगाए, बिछिया पहने वह लड़की समझ भी नहीं पाती कि उसकी शादी हुई किससे है कि वह ख़ुद को एक नयी दुनिया में पाती है। उसका देवर जो उसका हमउम्र है, उसके साथ खेलते बड़ा होता है, और उन दोनों में एक सहज आत्मीयता व लगाव विकसित हो जाता है। बुलबुल के जवान होने पर अपने देवर सत्या के प्रति उसका लगाव ठाकुर की आँखों में खटकने लगता है और यहाँ से शुरू होती है बुलबुल के ऊपर जघन्य क्रूरता की दास्तान। सत्या को बुलबुल से दूर विदेश पढ़ने भेज दिया जाता है। जब इससे भी बुलबुल के मन का प्रेम शिथिल नहीं पड़ता तो ठाकुर बर्बरता से उसे मारता है। जब वह ज़ख़्मी हालत में बिस्तर पर होती है, तब उसका दूसरा देवर जो कि मानसिक रूप से बीमार है, उसका यौन शोषण करता है। जब सत्या विदेश से पढ़कर वापस लौटता है तो देखता है कि बड़े ठाकुर घर छोड़कर जा चुके हैं, दूसरे भाई यानि मझले ठाकुर की हत्या हो चुकी है और घर की बागडोर अब बुलबुल के हाथ में है। इसी बीच गाँव में किसी चुड़ैल द्वारा लगातार हत्याएँ हो रही हैं।

आमतौर पर एक हॉरर फ़िल्म के रूप में देखी जा सकने वाली इस फ़िल्म में बुलबुल के किरदार, चुड़ैल के प्रतीक और औरतों के प्रति हिंसा करने वाले मर्दों के बर्बर अंत के कारण आलोचकों ने इसे एक ‘फ़ेमिनिस्ट’ फ़िल्म की श्रेणी में रख दिया है। यह बात कुछ हद तक सही भी है कि औरत को हिंसा का ‘पात्र’ भर न दिखाते हुए इस फ़िल्म ने उनकी ख़ुद की ‘एजेंसी’ की बात की है। इस बात को रखने के लिए सहारा लिया गया है बुलबुल के किरदार का। बुलबुल का जीवन संतापों भरा ज़रूर रहता है, किन्तु वह इन संतापों को मौन स्वीकृति नहीं देती। वह समाज द्वारा बनाए ‘चुड़ैल’ रूपी मिथक का उपयोग करती है और न सिर्फ़ अपना बल्कि गाँवों की किसी भी औरत पर हो रहे ज़ुल्म का बदला लेती है। हर आदमी की क्रूरता का क्रूर फल उसे देती है। अपने घर में भी आर्थिक, सामाजिक व यौन रूप से स्वतंत्र व असर्टिव (assertive) नज़र आती है। इस तरह सुनने में यह समाज के अबला स्त्री वाले रूप को तोड़ती एक मज़बूत कहानी जान पड़ती है। मगर इस कहानी की कुछ बुनियादी कमियाँ, और उससे भी ज़्यादा इस कहानी को दर्शाने का तरीक़ा इस पूरी फ़िल्म को तोड़कर रख देता है।

पाताल लोक, सेक्रेड गेम्स, मिर्ज़ापुर इत्यादि आजकल बन रही तीसरे परदे की प्रोडक्शंस में हिंसा और रेप दृश्यों की अधिकता वाद-विवाद का विषय है। जहाँ एक समूह कहानी में इन दृश्यों को तकनीकी अनिवार्यता और सिनेमा की प्रमाणिकता की दृष्टि से देखता है, दूसरा समूह इनकी अधिकता और क्रियात्मकता को बाज़ारोन्मुख रणनीति मानता है। एक तीसरा समूह भी है जो इन दृश्यों को ‘अश्लीलता’ और भारतीय औरतों की अस्मिता पर आघात के रूप में देखता है, मगर यह दलील अपनी संकुचित संरचना के कारण इग्नोर की जा सकती है। इन दृष्यों की अनिवार्यता को परखने के लिए बुलबुल एक ‘केस स्टडी’ की तरह इस्तेमाल की जा सकने वाली फ़िल्म है। और इस स्टडी के तहत ही इस फ़िल्म की एक बड़ी कमज़ोरी भी सामने आती है।

बुलबुल का एक ‘चुड़ैल’ के रूप में परिवर्तन उस पर हुई हिंसा के कारण ट्रिगर हुआ, तो कह सकते हैं कि उस हिंसा का चित्रण (कि यह किस तरह की हिंसा थी) जिसने बुलबुल को ऐसा बना दिया—फ़िल्म की माँग है। मगर यह चित्रण जिस तरह किया गया है, वह फ़िल्म की माँग के कारण उठाया गया क़दम नहीं लगता, बल्कि दर्शकों में हिंसा का स्वाद विकसित कर देने की जद्दोजहद लगती है। ऐसा लगता है कि फ़िल्म की भव्यता में शारीरिक और यौन हिंसा एक अहम् सामग्री की तरह मौजूद हैं।

बड़ा ठाकुर बाथ टब में नहा रही बुलबुल को नग्न अवस्था में ही बालों से खींचते बाहर लाता है। इस विशेष परिस्थिति को इस सीन के लिए क्यों चुना गया, यह समझ से बाहर है। घरेलु हिंसा का शिकार हो रही औरत को भी sexualise करने से निर्माता बच नहीं पाते। इसके बाद ठाकुर एक लोहे की छड़ से बुलबुल के पैरों पर मारना शुरू करता है। ठाकुर पहला वार करने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाता है, लेकिन उसका हाथ ऊपर तक जाने में तीस सेकंड लग जाते हैं। इन तीस सेकंड में स्क्रीन पर एक समाँ बाँधा जाता है जिसमें आगे ठाकुर की भव्य हवेली है और पार्श्व में उत्तेजित करता बैकग्राउंड संगीत। हाथ ऊपर तक पहुँचने के बाद ठाकुर एक धनुष की मुद्रा में दिखायी देता है और जैसे पलक झपकते ही धनुष से तीर छूटता है, ठाकुर के हाथ की छड़ बुलबुल पर जा पड़ती है। पूरा फ़ोकस ठाकुर—जिसे हम आईने के ज़रिए देख रहे होते हैं—उसपर ही बना रहता है। छड़ के बुलबुल पर पड़ने के समय बुलबुल का चेहरा एक सेकंड के लिए दिखता है और फ़ोकस फिर ठाकुर पर आ जाता है। इस बार ठाकुर की ज़ुल्फ़ें छड़ के झटके से थोड़ी नीचे गिर चुकी हैं और छड़ लिए ठाकुर का हाथ और उसका आईने में अक्स दोनों हमें दिखने लगते हैं। हाथ जैसे-जैसे ऊपर उठता है, छड़ के साथ ख़ून की धार भी छड़ की सतह से बहने लगती है और एक कर्व बनाते हुए ठाकुर के सिर के ऊपर से जाती हुई एक चित्र पर छींटों के रूप में पड़ती है। चित्र सीता को पकड़े और गरुड़ की हत्या करते रावण का है। ख़ून के छींटे इस तरह चित्र पर पड़ते हैं जैसे किसी बड़े पेंटर को कैनवास पर रंगों के छींटे मारते हुए देखा जाता है। यह एक वार बुलबुल पर इस तरह किया जाता है कि इस निर्मम सीन में भी दर्शक सिनेमेटोग्राफ़ी की तारीफ़ करने से रह नहीं पाएग। इसके बाद बुलबुल पर लगातार वार होते हैं और कंधे तक दिखायी देता उसका चेहरा सीन में बना रहता है। अगर आपको यहाँ दिया गया यह विवरण अनावश्यक रूप से विस्तृत लगा हो तो आप इस सीन को जाकर देखें और इस पर की गयी मेहनत का अंदाज़ा लगाएँ। यह पूरा सीक्वेंस जिस भव्यता से दर्शाया गया है, वह किसी रूप में कहानी की माँग नहीं नज़र आती, बल्कि ऐसा लगता है कि इस सीन का नायक बड़ा ठाकुर है जिस पर क़रीने से काम किया गया है।

ठीक यही बात तब खटकती है जब मझला ठाकुर बुलबुल की ज़ख़्मी अवस्था तक को दरकिनार कर उसका बलात्कार करता है। फ़िल्म में यह बात बस कहलवा भी दी जाती तो दर्शकों में उतनी ही संवेदना उत्पन्न होती, मगर निर्माता ने इसकी जगह फिर से भव्य रूपांतरण चुना। यह सीन अनावश्यक रूप से लम्बा और स्पष्ट है। जिस इंडस्ट्री में सेक्स सीन चादर के भीतर घुस जाने तक ही सीमित होता है, वहाँ रेप को इस स्पष्टता से दिखाने का औचित्य केवल पुरुष दर्शक के स्वादानुसार किया कृत्य लगता है। मानसिक रूप से अविकसित पुरुष को इस किरदार के लिए क्यों चुना गया, यह भी अजीब लगता है।

इन दोनों सीन को जिस तरह दर्शाया गया है वह इस तरह के तमाम दृश्यों पर यही सवाल उठाता है कि कोई दृश्य कहानी के लिए अनिवार्य ज़रूर हो सकता है, मगर उसका चित्रण किस तरह किया जाएगा, क्या इसमें थोड़ा और संवेदनशील नहीं हुआ जा सकता? वीभत्स्ता के ये दृश्य सुंदरता लिए कैसे दिख सकते हैं? यही सवाल तब पूछा गया था जब पद्मावत के जौहर वाले सीक्वेंस की भव्यता सामने आयी थी, और यही सवाल आज भी पूछा जाना चाहिए।

एक ‘फ़ेमिनिस्ट’ या नारीवादी फ़िल्म के रूप में इसे स्वीकार करने से पहले यह सवाल भी मन में आना चाहिए कि क्या एक बर्बर हिंसा की शिकार औरत ही ख़ुद को इस तरह असर्ट कर सकती है? हिंदी सिनेमा में किसी भी औरत को दृढ़ता से बात करते, स्वछन्द ज़िन्दगी जीते, और अपने व दूसरों पर हुए अन्यायों के ख़िलाफ़ लड़ते तभी दिखाया जाता है जब उसने कोई भारी विपदा भोगी हो। ‘ख़ून भरी माँग’ से लेकर ‘मृत्युदंड’, ‘क्वीन’, ‘NH 10’ इत्यादि सभी फिल्मों की नायिकाएँ अपने सशक्त अवतार में अक्सर तभी सामने आती हैं और तभी स्वीकार्य भी होती हैं जब उनके हालात ने उन्हें ऐसा बनाया हो। एक मज़बूत महिला के किरदार को दिखाने के लिए यह अनिवार्यता एक फ़ेमिनिस्ट फिल्म का लक्षण तो क़तई नहीं है। अगर रानी की शादी ना टूटी होती (क्वीन) तो वह कभी अकेले विदेश न जा पाती, अगर बुलबुल का पति अत्याचारी न होता तो घर की बागडोर सम्भालना तो दूर, वह भी तमाम सवर्ण औरतों की तरह घूँघट की ओट में एक कंट्रोल्ड जीवन जी रही होती। उसके ऊपर किसी तरह के ज़ुल्म न होने की दशा में भी अगर बुलबुल सिगार पीती, हवेली की देखरेख करती, एक मर्द से दोस्ती रखती तो वह एक ख़राब पत्नी, ख़राब बहू कहला दी जाती। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि बुलबुल के पास रहने को एक हवेली, साथ देने को गाँव वाले और ख़ुद को तानों से बचाने के लिए ठकुराइन की पहचान है। एक दलित या आदिवासी औरत के लिए क्या उस तरह का बदला मुमकिन होता जैसा बुलबुल ने लिया? और मुमकिन होता तो क्या उसे भी इसी तरह स्वीकृति मिलती, ‘देवी’ की उपाधि मिलती? फूलन देवी, भँवरी देवी जैसी औरतों पर—जिन्होंने असल जीवन में ख़ुद पर हुए अत्याचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया—सवर्ण हिन्दुओं का मत बँटा हुआ है। उन्हीं दर्शकों के लिए बुलबुल सहज ही देवी बन जाती है। दिक्कत की बात यहाँ यह भी है कि यह फ़िल्म भी एक औरत को ‘देवी’ के रूप में ही दिखाती नज़र आयी। यह वही घिसी पिटी बाइनरी है कि औरत या तो चुड़ैल है या देवी, या तो सीता है या काली। इस बाइनरी के बीच स्थित कोई औरत भी आर्थिक, सामाजिक, यौनिक रूप से बुलबुल जैसी सशक्त हो सकती है और समाज उसे स्वीकार कर सकता है, यह देखने के लिए हिंदी सिनेमा के दर्शकों को अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा।

यहाँ एक और अहम बात यह है कि औरत को एक सशक्त अवतार में दिखाने की मंशा के बावजूद हर औरत की स्थिति उससे जुड़े आदमी पर निर्भर है। बुलबुल अपने पति के जघन्य कृत्यों के बावजूद उसी तरह सिन्दूर, बिंदी लगाए है—और यही कारण है कि बड़े ठाकुर के चले जाने के बाद भी वह समाज की नज़र में सम्मानजनक है और अपने घर में अधिकार से रह पा रही है। वहीं, मझले ठाकुर के मर जाने के कारण उसकी बीवी सफ़ेद साड़ी में लिपटी एक बदरंग ज़िन्दगी जी रही है और अपनी हवेली से दूर एक विधवा-निवास में रहने को मजबूर है। बड़े ठाकुर के मर जाने की स्थिति में बुलबुल एक सशक्त किरदार में दिखायी जाती या नहीं, यह सोचने वाली बात है।

इस फ़िल्म के निर्माण में तमाम औरतों की हिस्सेदारी होने से यह एक नारीवादी थ्रिलर बनने का माद्दा तो रखती थी, मगर कहीं न कहीं एक बार फिर उन्हीं जालों में फँसकर रह गयी जिनसे निकलने की मंशा से यह बनायी गयी। विशुद्ध सिनेमा की नज़र से भी देखें तो इसकी सिनेमेटोग्राफ़ी इसकी ताक़त नहीं, कमज़ोरी रही। न तो पूरी तरह फ़ैंटसी का इफ़ेक्ट फ़िल्म में आ पाया, न यथार्थ दिख पाया। स्क्रीन पर बिखरा लाल रंग और धुआँ कहानी में समाहित नहीं, बल्कि दर्शक को कहानी से तोड़ते मालूम पड़े।

कहानी भी प्रेडिक्टेबल नज़र आयी। विदेश से लौटने पर सत्या से पहली मुलाक़ात में बुलबुल के बदले ढंग से अनुमान लग गया कि गाँव में फैली चुड़ैल की दहशत में हो न हो बुलबुल का हाथ ज़रूर है और अंत तक फ़िल्म वैसे ही चलती गयी जैसा कि दर्शक का अनुमान हो।

हिंदी सिनेमा में जिस ब्राह्मणवादी पित्तृसत्ता का लेंस काम करता आया है, उस लेंस से अछूती नहीं रही बुलबुल। अगर हिंसा का इस तरह का चित्रण इस फ़िल्म में न होता तो एक बार देखने योग्य ज़रूर होती।

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