भोपाल पर गौरव ‘अदीब’ की एक कविता
भोपाल में थोड़ा-थोड़ा कितना कुछ है
भोपाल में बहुत सारा लख़नऊ है
यहाँ ऐशबाग है, हमीदिया रोड है
यहाँ पुलिया है और कैसरबाग सा छत्ता भी
नदवा की जगह नादरा है यहाँ
सुबह-सुबह पोहे के साथ जलेबी
मानो भोपाल लख़नऊ से हाथ मिलाता हो
लाल बाग़ की तरह यहाँ भी
उर्दू में लिखें हैं दुकानों के नाम
कांच के पतले लम्बे गिलासों में मिलती है चाय
जिनमें दो बन जाने की होती है गुंजाइश, चौक सी
समोसे और कचोरी दोनों जगह एक से हैं
लखनऊ की तरह ही
थोड़ा देर से जागता है भोपाल
कितना मिलता जुलता है,
पुराने लख़नऊ से पुराना भोपाल
भोपाल से विदिशा यानी लखनऊ से सीतापुर
एक से रास्ते हैं बिलकुल
पूरे वाक्य का अंतिम शब्द थोड़ा खींच देते हैं भोपाली
भोपाल में लखनऊ सी सादगी है
या लखनऊ में भोपाल सी, नहीं पता लेकिन
कितना अच्छा होता कि भोपाल और लख़नऊ में
जो कुछ थोड़ा-थोड़ा है उसमें दिल्ली न होती
भोपाल जाने को न जाना पड़ता वाया दिल्ली
न गए थे बाबा नागार्जुन, न ही भगवत रावत
और न ही जाना हो मुझे कभी “वाया दिल्ली”!!
(भगवत रावत की दिल्ली पर लिखी कविताओं से प्रेरित)
…
Very Nice
I LOVE BHOPAL
बढ़िया, गौरव।
Bahut hi khubsurat kavita