आधे-अधूरे: एक सम्पूर्ण नाटक

समीक्षा: अनूप कुमार

मोहन राकेश (1925-1972) ने तीन नाटकों की रचना की है— ‘आषाढ़ का एक दिन’ (1958), ‘लहरों के राजहंस’ (1963) और ‘आधे-अधूरे’ (1969)| ‘आधे-अधूरे’ मोहन राकेश का सर्वाधिक चर्चित, प्रसिद्ध और पर्याप्त विवादास्पद, साथ ही रंग-चेतना से सम्पन्न नाटक है। इस आलेख में आधे-अधूरे के कथ्य और नाट्य शिल्प पर विचार करेंगे।

कथ्य के धरातल पर ‘आधे-अधूरे’ का कथानक आधुनिक मध्यवर्गीय शहरी परिवार की महत्त्वाकांक्षाओं, मानसिकता, व्यवहार और जीवन से उनकी अपेक्षाओं को अभिव्यक्त करता है। पात्रों की आपसी टकराहट और उनके आंतरिक विद्रोह से यह भरा हुआ है। इसके माध्यम से मोहन राकेश शहरी मध्यवर्गीय जीवन में आयी अनियंत्रित विसंगतियों के बीच अधूरेपन में पूरेपन को खोजने का प्रयास करते हैं तथा आज के बदलते परिवेश में मध्यवर्ग के परिवार की अभाव और तनाव से भरी आधी-अधूरी ज़िन्दगी की कहानी को दर्शाते हैं।

नाटक में एक कमरा है, जिसमें जो कुछ भी है उसका आपसी रिश्ता तात्कालिक सुविधा की माँग के कारण लगभग टूट चुका है और पारिवारिक सम्बन्ध समझौता मात्र बनकर रह गया है। पुरुष-एक (महेन्द्रनाथ) ज़िन्दगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की छटपटाहट लिए हुए है, पुरुष-दो (सिंघानिया) अपने आप से संतुष्ट है तब भी आशंकित। पुरुष-तीन (जगमोहन) के पूरे हाव-भाव में अपनी सुविधा से जीने का दर्शन विद्यमान है। पुरुष-चार (जुनेजा) के चेहरे पर बुज़ुर्ग होने का अहसास है। स्त्री (सावित्री) की उम्र लगभग चालीस है परन्तु चेहरे पर यौवन और मन में चाह है। बड़ी लड़की (बिन्नी) में उम्र से बढ़कर बड़प्पन है। छोटी लड़की (किन्नी) के भाव, स्वर और चाल में विद्रोह है तथा लड़का (अशोक) के चेहरे पर ख़ास तरह की कड़ुवाहट है।

यह उच्च मध्यवर्गीय स्थिति से निम्न-मध्यवर्गीय स्थिति में रूपांतरित होने वाले परिवार और उनके आपसी सम्बन्धों की कथा प्रस्तुत करता है। महेंद्रनाथ के परिवार में विविधताएँ हैं, सबके अपने-अपने विचार और अलग-अलग प्रकृति है। नौकरी पेशा स्त्री सावित्री, कमायी सम्पत्ति को ख़र्च कर चुकने वाला तथा परावलम्बी जीवन जीने वाला पति महेन्द्रनाथ, माँ के पूर्व प्रेमी के साथ भागकर विवाह करने वाली बड़ी लड़की बिन्नी, निष्क्रिय और स्वच्छन्द अशोक अनुशासनहीन और सम्बन्धों के महत्त्व से अनभिज्ञ। इसमें समाज की विसंगतियों से जूझने का सीधा प्रयास किया गया है। वैवाहिक जीवन में पूर्ण पुरुष की खोज असम्भव है। महेन्द्रनाथ और सावित्री का वैवाहिक जीवन इस नाटक में ‘राकेश’ जी ने प्रस्तुत किया है। सावित्री को लगता है कि उसके पति का व्यक्तित्व ‘अधूरा’ है। पूर्णता की खोज में वह जितने भी अन्य पुरुषों के सम्पर्क में आती है, सब में उसे कोई न कोई कमी दिखायी पड़ती है और अन्ततः तब सावित्री इस निष्कर्ष पर पहुँचती है— “सब के सब एक से हैं। अलग-अलग मुखौटे पर चेहरा? चेहरा सबका एक हो।” पूर्णता किसी में नहीं है, सब आधे-अधूरे हैं।

साथ ही साथ यहाँ बदलते हुए घर को महसूस किया जा सकता है। यह कैसा घर है? जिस घर से सबको शिकायत है। यहाँ से सभी मुक्ति चाहते हैं। यहाँ तो गृहस्वामित्व की प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है।

पुरुष-एक— “तो मेरा घर नहीं है यह? कह दो नहीं है।”

स्त्री— “सचमुच तुम अपना घर समझते इसे तो…”

यहाँ जिस घर की बात की जा रही है और जिसके लिए स्त्री-पुरुष टकरा रहे हैं, लड़का उस घर की सार्थकता पर ही प्रश्न-चिह्न लगा देता है। वह कहता है—इसे घर कहती हो तुम? आधुनिक युग में सामाजिक सम्बन्ध और आस्था जिस प्रकार समाप्त होती जा रही है, उसकी अभिव्यक्ति यहाँ हुई है। इस नाटक के सम्बन्ध में डॉ० नागेंद्र ने ठीक ही लिखा है कि इसमें “वैवाहिक जीवन की मध्यवर्गीय विडम्बनाओं के कारण परिवार का प्रत्येक व्यक्ति आधा-अधूरा रहकर अपने-अपने ढंग का संत्रास भोगता है।”

रंगकला की नज़र से देखें तो नाटक में कथ्य-सम्प्रेषण हेतु रंग-उपकरणों का प्रयोग कुशलता व अर्थवत्ता के साथ किया गया है। रंगमंचीय दृष्टि से पूरा नाटक दो भागों में विभक्त है। पूरे नाटक में केवल दो शाम के घटनाक्रम को लिया गया है। नाटक के आरम्भ में पात्रों के नाम न देकर सिर्फ़ पुरुष-एक, पुरुष-दो, पुरुष-तीन, पुरुष-चार, छोटी लड़की, बड़ी लड़की, लड़का, स्त्री के संकेत से काम चला लिया गया है। स्त्री पात्र केवल स्त्री है, या बड़ी लड़की, छोटी लड़की, लड़का सिर्फ़ लड़का है। राकेश यहाँ यह बतलाना चाहते हैं कि ये चरित्र अपने-अपने परिवेश व परिस्थितिजन्य ढाँचे की उपज हैं। इसीलिए वे चरित्र न होकर चरित्रों के प्रतिरूप हैं। लेकिन नाटक का घटनाक्रम आगे बढ़ते ही सबके नाम क्रमशः आते जाते हैं।

इस नाटक में समकालीन मध्यवर्गीय जीवन के तनाव और विसंगतियों को जिस कुशलता से चित्रित किया गया है, उससे यह मध्यवर्गीय चेतना का नाटक मात्र न होकर आम ज़िन्दगी का नाटक बन जाता है। यही कारण है कि रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इस नाटक के बारे में लिखा है कि “आधे-अधूरे आधुनिक समाज की त्रासदी है।” यहाँ जो द्वंद्व उभरा है और जिस प्रकार की परिस्थितियों का चित्रण किया गया है, वे द्वंद्व और परिस्थितियाँ आधुनिक जीवन की अनिश्चितता, अहंकार और अकुलाहट को व्यक्त करने वाले हैं। इस नाटक की मूल संवेदना को इन्हीं सन्दर्भों में देखा-परखा जाना चाहिए।

(अनूप कुुमार असम यूनिवर्सिटी में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं। सम्पर्क: [email protected])

‘आधे-अधूरे’ यहाँ से ख़रीदें:

पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...