‘Aadmi Hai Bandar’, a poem by Jitendra

आदमी है बन्दर
बाहर से जाने कैसा
और जाने कैसा अन्दर!
तरह-तरह से नाच रहा है आकाओं के आगे
उछल-कूदकर दिखा रहा है अपने करतब
प्रतिक्षण बदला करता है वह नये मुखौटे
कभी निपोरे खीस, कभी अँखियन जल बरसे
कभी क्रोध में नैन बने जलते अंगारे
कभी घिघियाने लगता है निःश्वास छोड़कर।

तुमने देखा होगा ऐसे बन्दर को भी
घूमा करता है जो मृत बच्चा चिपकाए निज सीने से।

इधर आदमी को तो देखो
कितने मृत बच्चे चिपके हैं इसके उर से,
इससे कहकर तो देखो, ‘तुम इन्हें छोड़ दो’
यह बोलेगा, ‘मैं इन बिन जीऊँगा कैसे?’
सड़े गले रीति-रिवाज हैं, भ्रष्ट मान्यताएँ हैं अनगिन,
जकड़ लिया है इसको कस कर
अर्थहीन औपचारिकता ने,
धर्म-कर्म के झूठे बन्धन चिपक रहे हैं जोंक सरीखे
और साथ ही ऊपर से यह भी तुर्रा है
आधुनिक युग वैज्ञानिक युग है
मानव- वैज्ञानिक मानव है।
लेकिन जरा अकल से सोचो तो समझोगे
कैसा युग और कैसा मानव!
आदमी बन्दर है- बन्दर!

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