‘Aadmi Ko Kapdon Se Pehchanti’, a poem by Abhishek Kumar
तवे पर बड़ी देर तक लेटी
अधपकी रोटी दरवाज़े पर राह तकती जल गई।
दरवाज़ों को किसी ने नहीं खटखटाया,
उस रात तो भूख भी पेट में दस्तक देने नहीं आयी।
कोई उड़ती हुई ख़बर आयी-
शहर की आबोहवा अब ठीक नहीं।
पिछले साल भी रोटियों के कितने निवाले
अपने हक़दारों से हमेशा के लिए महरूम हो गए।
उन्ही घरों से विस्थापित लोग
रातों-रात भूख के शरणार्थी बना दिए गए।
पुवाल की खेप में शरणार्थ
सर्द रातें
जीवन का आशय पाकर,
क्या विस्थापित पलों की ठौर नहीं बनती?
तानाशाही फ़रमान से मारे गए लोग
सरकारी आँकड़ों में
महज़ एक संख्या बना दिए जाते हैं।
दरवाज़े पर राह तककर
जलने के लिए
कठौती में आज भी उतना ही आटा गूँथा जाता है,
जितना दरवाज़े की
खटखट सुनने के इंतज़ार में आँखों से चू जाता है।
आदमी को उनके कपड़ोंं से अक्सर पहचानती
शहर की बदलती आबोहवा
ख़्वाबों का आशय नहीं होती,
और भूख आदमी की जात को नहीं पहचानती।