पाकिस्तानी शायरा सारा शगुफ़्ता की नज़्मों का पहला संग्रह ‘आँखें’ उनकी मृत्यु के बाद सन् 1985 में प्रकाशित हुआ था। हाल ही में इसी संग्रह का देवनागरी में लिप्यंतरण और सम्पादन अर्जुमंद आरा ने किया है और यह संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है इसी संग्रह की शुरुआत में दिया गया सारा शगुफ़्ता का लेख ‘पहला हर्फ़’।
पहला हर्फ़
आज से पाँच बरस पहले कहने को एक शायर मेरे साथ फ़ैमिली प्लानिंग में सर्विस करता था। मैं बहुत बानमाज़ होती थी। घर से ऑफ़िस तक का रास्ता बड़ी मुश्किल से याद किया था। लिखने-पढ़ने से बिलकुल शौक़ नहीं था।
इतना ज़रूर पता था कि शायर लोग बड़े लोग होते हैं।
एक शाम, शायर साहिब ने कहा, मुझे आपसे एक ज़रूरी बात करनी है। फिर एक रोज़ रेस्तराँ में मुलाक़ात हुई। उसने कहा शादी करोगी? दूसरी मुलाक़ात में शादी तय हो गई।
अब क़ाज़ी के लिए पैसे नहीं थे। मैंने कहा, आधी फ़ीस तुम क़र्ज़ ले लो और आधी फ़ीस मैं क़र्ज़ लेती हूँ। चूँकि घर वाले शरीक नहीं होंगे, मेरी तरफ़ के गवाह भी लेते आना।
एक दोस्त से मैंने उधार कपड़े माँगे और मुक़र्रर जगह पर पहुँची और निकाह हो गया। क़ाज़ी साहिब ने फ़ीस के अलावा मिठाई का डिब्बा भी मँगवा लिया तो हमारे पास छः रुपये बचे।
बाक़ी झोंपड़ी पहुँचते-पहुँचते, दो रुपये बचे। मैं लालटेन की रोशनी में घूँघट काढ़े बैठी थी।
शायर ने कहा, दो रुपये होंगे, बाहर मेरे दोस्त बग़ैर किराए के बैठे हैं। मैंने दो रुपये दे दिए। फिर कहा, हमारे यहाँ बीवी नौकरी नहीं करती। नौकरी से भी हाथ धोए।
घर में रोज़ तालीमयाफ़्ता शायर और नक़्क़ाद आते और इलियट की तरह बोलते। कम-अज़-कम मेरे ख़मीर में इल्म की वहशत तो थी ही, लेकिन इसके बावजूद कभी-कभी भूख बर्दाश्त न होती।
“रोज घर में फ़सलफ़े पकते और हम मंतिक़ खाते।”
एक रोज झोंपड़ी से भी निकाल दिए गए। यह भी पराई थी। एक आधा मकान किराए पर लिया। मैं चटाई पर लेटी दीवारें गिना करती।
“और अपने जहल का अक्सर शिकार रहती।”
मुझे सातवाँ महीना हुआ। दर्द शदीद था और बान का दर्द भी शदीद था। इल्म के ग़ुरूर में वो आँख झपके बग़ैर चला गया। जब और दर्द शदीद हुआ तो मालिक मकान मेरी चीख़ें सुनती हुई आयी और मुझे हस्पताल छोड़ आयी।
“मेरे हाथ में दर्द और पाँच कड़कड़ाते नोट थे।”
थोड़ी देर के बाद लड़का पैदा हुआ। सर्दी शदीद थी और एक तौलिया भी बच्चे को लपेटने के लिए नहीं था।
डॉक्टर ने मेरे बराबर स्ट्रेचर पर बच्चे को लिटा दिया।
“पाँच मिनट के लिए बच्चे ने आँखें खोलीं और कफ़न कमाने चला गया।”
बस! जब से मेरे जिस्म में आँखें भरी हुई हैं। सिस्टर वार्ड में मुझे लिटा गई। मैंने सिस्टर से कहा, मैं घर जाना चाहती हूँ क्योंकि घर में किसी को इल्म नहीं कि मैं कहाँ हूँ। उसने मुझे बेबाकी से देखा और कहा, तुम्हारे जिस्म में वैसे भी ज़हर फैलने का डर है। तुम बिस्तर पर रहो। लेकिन अब आराम तो कहीं भी नहीं था।
“मेरे पास मुर्दा बच्चा और पाँच रुपये थे।”
मैंने सिस्टर से कहा, मेरे लिए अब मुश्किल है हस्पताल में रहना। मेरे पास फ़ीस के पैसे नहीं हैं। मैं लेकर आती हूँ। तुम्हारे पास मेरा बच्चा अमानत है। भागूँगी नहीं।
“तुम्हारे पास मेरा मुर्दा बच्चा अमानत है।” और सीढ़ियों से उतर गई । मुझे 105 डिग्री बुख़ार था। बस में सवार हुई घर पहुँची। मेरे पिस्तानों से दूध बह रहा था।
मैंने दूध गिलास में भरकर रख दिया। इतने में शायर और बाक़ी मुंशी हज़रात तशरीफ़ लाए। मैंने शायर से कहा, “लड़का पैदा हुआ था, मर गया है।”
उसने सरसरी सुना और अपने नक़्क़ादों को बताया। कमरे में दो मिनट ख़ामोशी रही और तीसरे मिनट गुफ़्तगू शुरू हो गई।
फ़्रायड के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?
रांबो क्या कहता है?
सअदी ने क्या कहा है?
और वारिस शाह बहुत बड़ा आदमी था।
ये बातें तो रोज़ ही सुनती थी लेकिन आज लफ़्ज़ कुछ ज़्यादा साफ़ सुनायी दे रहे थे। मुझे ऐसा लगा, “जैसे ये सारे बड़े लोग थोड़ी देर के लिए मेरे लहू में रुके हों।” और रांबो और फ़्रायड मेरे रहम (गर्भ) से मेरा बच्चा नोच रहे हों। “उस रोज़ इल्म मेरे घर पहली बार आया था और मेरे लहू में क़हक़हे लगा रहा था।” मेरे बच्चे का जन्म देखो!!!
चुनांचे एक घंटे की गुफ़्तगू रही और ख़ामोशी आँख लटकाए मुझे देखती रही। ये लोग इल्म के नाले पार करते कमरे से जुदा हो गए।
“मैं सीढ़ियों से एक चीख़ की तरह उतरी।”
अब मेरे हाथ में तीन रुपये थे। मैं एक दोस्त के यहाँ पहुँची और तीन सौ रुपये क़र्ज़ माँगे। उसने दे दिए। फिर उसने देखते हुए कहा, क्या तुम्हारी तबीयत ख़राब है? मैंने कहा, “बस मुझे ज़रा-सा बुख़ार है। मैं ज़्यादा देर रुक नहीं सकती। पैसे किसी क़र्ज़ख़ाह को देने हैं। वो मेरा इंतिज़ार कर रहा होगा।”
हस्पताल पहुँची। बिल 295 रुपये बना।
“अब मेरे पास मुर्दा बच्चा और पाँच रुपये थे।”
मैंने डॉक्टर से कहा, आप लोग चंदा इकट्ठा करके बच्चे को कफ़न दें। और इसकी क़ब्र कहीं भी बना दें। मैं जा रही हूँ।
“बच्चे की असल क़ब्र तो मेरे दिल में बन चुकी है।”
मैं फिर दोहरी चीख़ के साथ सीढ़ियों से उतरी और नंगे पैर सड़क पे दौड़ती हुई बस में सवार हुई।
डॉक्टर ने समझा शायद सदमे की वजह ज़हनी तवाज़ुन खो बैठी हूँ। कंडक्टर ने मुझसे टिकट नहीं माँगा और लोग भी ऐसे ही देख रहे थे। मैं बस से उतरी, कंडक्टर के हाथ पर पाँच रुपये रखते हुए, चल निकली। घर? घर!! घर पहुँची।
गिलास में दूध रखा हुआ था।
“कफ़न से भी ज़्यादा उजला।”
मैंने अपने दूध की क़सम खायी। शे’र मैं लिखूँगी, शायरी मैं करूँगी, मैं शायरा कहलाऊँगी।
“और दूध बासी होने से पहले ही मैंने एक नज़्म लिख ली थी।”
लेकिन तीसरी बात झूठ है, मैं शायरा नहीं हूँ। मुझे कोई शायरा न कहे। शायद मैं कभी अपने बच्चे को कफ़न दे सकूँ।
आज चारों तरफ़ से शायरा! शायरा! की आवाज़ें आती हैं लेकिन अभी तक कफ़न के पैसे पूरे नहीं हुए।
– सारा शगुफ़्ता