एक दिन मैं बारी-बारी से
उन सारी जीवट और
कर्मठ स्त्रियों पर कविता लिखूँगी
जो एकदम नमक की तरह होती हैं
खारेपन से बनी होती है उनकी देह

कविता लिखूँगी उस स्त्री पर
जो वज्र गर्मी में भी धुएँ से भरे घर में
घूँघट काढ़े घण्टों जलते चूल्हे पर गढ़ती है रोटियाँ
और देह के साथ मन भी अछल-विछल हो जाता है

जो पीठ में बच्चा बाँधकर
भट्ठे पर चिलचिलाती धूप में काम करती है

जो घूँघट और लाज बचाये
मशीन में चारा बालती है जेठ या देवर के साथ

कविता लिखूँगी उस स्त्री पर
जिसे कहा जाता है कि व्यभिचारी
बीमार ससुर का पैर दबाना तुम्हारा धर्म है
और हवाला दिया जाता है सेवा और परलोक
जिसे सोचकर काँप जाती हैं
हम स्त्री-विमर्श पर बात करती स्त्रियाँ

कविता लिखूँगी बाबूसाहब के घर की उस स्त्री पर
जो अक्सर रात को भूखी सोती है
मर्यादा के नाम पर
जिसकी ज़िन्दगी कहीं बदतर
एक मज़दूर स्त्री से

कविता लिखूँगी
उस स्त्री पर जो
जीवन भर डरती रही पिता और पति से
और ढलती उम्र में डर जाती है बेटे के ग़ुस्से से

कविता लिखूँगी
चहक रहीं उन मेघवर्णी स्त्रियों पर
जिनकी आँखें छोटी, होंठ मोटे और बाल रूखे थे,
जिनको शायरों ने कभी आँख उठाकर नहीं देखा
पर हमेशा ज़रूरी रहीं वो जीवन में जल की तरह

कविता लिखनी है उस स्त्री पर भी
जो गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती है
मैं उसे रोज़ देखती हूँ
दूसरे गर्भ के प्रकाश से भरी वो
पहले बच्चे की उँगली थामे धूप में स्कूल जाती है
राह में किसी की बाइक पर
इसलिए नहीं बैठती कि
चौराहे पर गुटखा चबाता
उसका निठल्ला पति नाराज़ हो जायेगा

और वहीं सहायिका है वो स्त्री भी
जो ख़ुद बच्ची होते हुए भी एक बच्चे की माँ है

कविता तो लिखना था उस स्त्री पर भी जो
माँ थी ऐसे बेटे की जिसने तेज़ाब डाल दिया था
उस फूल-सी बच्ची की चेहरे पर
पर बेटे के गले को पैर से दबाकर मार नहीं सकी
कि ग़लती से राक्षस को जन्म दे गई थी वो

और भी बहुत क़िस्म-क़िस्म की स्त्रियाँ हैं
जिन्हें मुझे लिखना था
पर सम्वेदनाएँ थककर शिथिल हो जाती हैं

मेरे मन में सारी स्त्रियाँ बैठकर रोती रहती हैं

मैं ख़ुद आत्मवंचना में जीती, पर उन्हें सांत्वना देती हूँ
कि तुम सब आस न छोड़ो

एकदिन ये सारी स्त्रियाँ इकठ्ठा होंगी
और जवाब माँगेंगी
पितृसत्तात्मक समाज से कि
माप कर बताओ अपने मापदण्ड से कि
आख़िर स्त्रियों को कितना सहना चाहिए?!

'ये लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी हैं'

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