‘Aao Zubaan Chalaayein’, a poem by Nirmal Gupt
मेरी देह पर हर उस जगह रिसते हुए घाव हैं
जहाँ मेरी थूक से लिथड़ी हुई ज़ुबान को पहुँचना नहीं आता
जीभ पर तैरते हैं हज़ारों-हज़ार या मिलियन-ट्रिलियन विषाणु
घाव को चाटने में बहुत जोखिम है, भाई
आओ दर्द से मुँह मोड़कर
पूरी बेशर्मी के साथ ज़ुबान चलायें।
इतिहास तटस्थ रहने वालों का जब गुनाह लिखेगा
यक़ीन करो, तब उसके फुटनोट्स में
बड़बोलों की जयकार ज़रूर दर्ज रहेगी,
बोलना बड़ी बात है
हर ज़रूरी सवाल को घसीटकर
कविता के अंधकूप में उतर जाना
उससे भी अधिक आवश्यक है
जैसे आदमखोर घसीट ले जाते हैं
तड़पते हुए शिकार का गला दबाकर
किसी झाड़ी या दीवार या फिर
मंच के पीछे बने ग्रीन रूम में।
घाव चाटने से दुरुस्त नहीं होते
उनकी बड़े जतन से तुरपाई करनी पड़ती है
किसी रफ़ूगर की चतुराई से
पूरना पड़ता है
रेशा-रेशा कर हर क़िस्म की क्षुद्रता को
ख़ून की सामन्ती शिनाख़्त होने तक
किसी टीस का कोई मतलब नहीं होता।
जिनकी ज़ुबान लम्बी है, लचीली है
सधी हुई है, पलट जाने में निष्णात है
कृत्रिम आग में तपाकर पैनाई हुई है
यह कविता उनके लिए नहीं है, भाई
जाओ जाओ, अपना काम करो
छोटे बच्चे ताली और
बड़े लोग मज़े से बगले बजाएँ।
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