‘आपका बंटी’ मन्नू भण्डारी की अत्यन्त चर्चित और हिन्दी उपन्यासों के इतिहास में मील का पत्थर मानी जानेवाली कृति है। टूटते परिवारों के बीच बच्चों को किस मानसिक यातना से गुज़रना पड़ता है, इस उपन्यास में उसे लगभग दस्तावेज़ी ढंग से अंकित किया गया है। यहाँ यह जान लेना ज़रूरी है कि ‘आपका बंटी’ को लेकर 1986 में ‘समय की धारा’ नाम से जो फ़िल्म बनी, यह उसकी पटकथा नहीं है। ‘समय की धारा’, जिसमें शबाना आज़मी, शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद मेहरा ने अभिनय किया, उस पर अपने उपन्यास को ग़लत ढंग से प्रस्तुत करने के लिए मन्नू जी ने अदालत में मामला दायर किया था। इसमें अन्त में बंटी की मृत्यु दिखायी गई थी। मुक़दमे का फ़ैसला मन्नू जी के पक्ष में रहा था। इस पुस्तक में प्रस्तुत पटकथा स्वयं मन्नू जी ने लिखी थी जिस पर फ़िल्म नहीं बन पायी, इसलिए पाठक इस प्रस्तुति को इस पुस्तक में ही पढ़ सकते हैं। अपने उपन्यास को दृश्यों में बदलते समय इस पटकथा में मन्नू जी ने एक सिद्धहस्त पटकथा लेखक होने का परिचय दिया है। पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है यह अंश—

शनिवार को ममी लंच के बाद कॉलेज नहीं जातीं।

खाना खाकर ममी उठीं और सोने के कमरे के सारे परदे खींच दिए। कमरे में हल्का-सा अंधेरा हो गया। अभी तो उतनी गरमी नहीं है, वरना ममी रोशनदानों में भी काले या भूरे काग़ज़ चिपकवा देती हैं। गरमी में उन्हें रोशनी बिलकुल अच्छी नहीं लगती। और बंटी है कि उसका अंधेरे में जैसे जी घबराता है।

अंधेरा यानी कि सोओ। रात-भर अंधेरा रहता है और रात-भर वह सोता भी है। अब दिन में भी अंधेरा कर दोगे तो कोई रात थोड़े ही हो जाएगी। और रात नहीं तो सोए कैसे? पर ममी सुनती हैं कोई बात?

“बंटी, चलो सोओ!” और पकड़कर पलंग पर डाल देती हैं।

बंटी जानता है कि कुछ भी कहना-सुनना बेकार है, इसलिए जैसे ही ममी ने परदे खींचे, चुपचाप आकर पलंग पर लेट गया। जब तक आँखें खुली हैं, नज़र कमरे की दीवारों में क़ैद है, पर आँख बंद करते ही जैसे सारी सीमाएँ टूट जाती हैं और न जाने कहाँ-कहाँ के जंगल, पहाड़ और समुद्र तैर आते हैं आँखों के सामने। परीलोक की परियाँ और पाताललोक की नाग-कन्याएँ तैरती हुईं उसके सामने से निकल जाती हैं।

अच्छा, अगर कोई उसे जादू के पंख या उड़नेवाला घोड़ा दे दे तो वह क्या करे? एकदम पापा के पास चला जाए और उन्हें चौंका दे। अचानक उसे आया देख पापा कितने ख़ुश हो जाएँगे। इधर ममी ढूँढ-ढूँढकर परेशान। बाहर देखेंगी, टीटू के घर में जाएँगी, कुन्नी के घर जाएँगी, फूफी सारे में दौड़ती फिरेगी और वह जादू की टोपी पहने सबकुछ देखता रहेगा… परेशान होती ममी को, इधर-उधर दौड़ती हुई बौखलायी-सी फूफी को। और जब ममी रो पड़ेंगी तो झट से टोपी उतारकर उनके गले में लिपट जाएगा।

पर ये सब चीज़ें मिलती कहाँ हैं? सारी कहानियों में इनकी बातें हैं, पर किसी ने भी यह नहीं लिखा कि ये मिलती कहाँ हैं। कोई साधू मिल जाए तो बता सकता है या उसके पास भी ऐसी चीज़ें हो सकती हैं।

ममी सो गईं। एक क्षण बंटी ममी को देखता रहा… कहीं पलकें हिल तो नहीं रहीं। तभी ख़याल आया, सोती हुईं ममी कितनी अच्छी लगती हैं। अच्छा, ममी तरह-तरह की कैसे हो जाया करती हैं? टीटू की अम्मा को तो कभी भी जाकर देख लो, हमेशा एक-सी रहती हैं, फूफी भी।

बंटी दबे पाँव पलंग से उतरा। धीरे से कमरे के बाहर निकला और दौड़कर करोंदे की झाड़ियों के पास पहुँच गया। कुन्नी ने कहा था कि बंटी अगर उसे ख़ूब सारे करोंदे तोड़कर देगा तो वह बंटी को करोंदे की माला बनाकर देगी, ख़ूब सुंदर-सी।

टीटू भी आ जाता तो दोनों मिलकर तोड़ते, पर वह बुलाने तो नहीं ही जाएगा। वहाँ उसकी अम्मा मिल गईं तो बस, कबाड़ा। कोई बात नहीं, वह अकेला ही तोड़ेगा।

अचानक लोहे का फाटक बजा तो बंटी घूम पड़ा, “अरे, वकील चाचा!”

पसीने में सराबोर वकील चाचा एक तरह से हाँफते हुए अपनी पतली-सी छड़ी हिलाते हुए चले आ रहे थे।

चिपचिपाते हाथों को कमीज़ से ही पोंछता हुआ बंटी दौड़ा और वकील चाचा की बाँह से झूल गया।

“आप कब आए चाचा?”

“क्यों रे, तू ऐसी भरी धूप में यहाँ करोंदे तोड़ रहा है?”

“धूप! कहाँ, मुझे तो नहीं लग रही।” बंटी दुष्टता से हँस रहा है।

“हाँ, धूप कहाँ, यह तो चाँदनी है न? शैतान कहीं का! शकुन घर में है या कॉलेज?”

“शनिवार को तो एक बजे ही छुट्टी हो जाती है कॉलेज की। भीतर सो रही हैं।” और फिर ‘ममी- ओ ममी, वकील चाचा आए हैं’ के बिगुल नाद के साथ ही बंटी चाचा को लेकर भीतर घुसा।

भरी नींद में से ममी उठीं और वकील चाचा को सामने देखकर जैसे एकदम सिटपिटा गईं। साड़ी ठीक करके उठती हुई बोलीं, “अरे आप कब आए?”

“यह बंटी वहाँ करोंदे तोड़ रहा था ऐसी धूप में।”

“ममी पूछ रही हैं, आप कब आए? पहले उनकी बात का तो जवाब दीजिए।”

“तू बड़ा तेज़ हो गया है।” वकील चाचा ने अपनी टोपी उतारकर मेज़ पर रखी और ठीक पंखे के नीचे बैठे गए। अभी तो ज़रा भी गरमी नहीं है और चाचा के इतना पसीना!

“तुम्हारे यहाँ आज आया हूँ तो समझ लो शहर में आज ही आया हूँ।”

“क्यों रे, तू उठकर फिर करोंदे तोड़ने चला गया। तुझे नींद नहीं आती तो फिर पढ़ता क्यों नहीं? इम्तिहान नहीं पास आ रहे! आँख लगी नहीं कि ग़ायब!”

ममी सचमुच ही ग़ुस्सा होने लगीं। पर बंटी है कि अभी भी हँस रहा है। चाचा इस समय कवच की तरह उसके सामने बैठे हैं। ममी का गु़स्सा बेकार।

“चाचा, आपको जितनी गरमी लग रही है, उससे तो लगता है कि आप ठण्डा ही पिएँगे, बोलिए क्या लाऊँ?”

चाचा की आँखों में एकाएक लाड़ उमड़ आया, “बड़ी ख़ातिर करना सीख गया। तू तो एकदम ही बड़ा और समझदार हो गया लगता है।”

“मैं अभी आयी।” कहकर ममी अंदर चली गईं। शायद मुँह धोने या चाचा के लिए कुछ लाने!

बंटी धीरे-से सरककर चाचा के पास आया और उनकी कुर्सी के हत्थे पर बैठता हुआ बोला, “चाचा, पापा कब आएँगे इस बार?”

इस प्रश्न में पापा के बारे में जानने की इच्छा भी थी, साथ ही यह उत्सुकता भी कि पापा ने कुछ भेजा हो चाचा के साथ तो चाचा निकालें।

पता नहीं क्यों चाचा एकटक उसका चेहरा ही देखने लगे। घनी भौंहों के नीचे, कुछ अंदर को धँसी आँखें जाने कैसी गीली-गीली हो गईं। बड़े दुलार से, पीठ पर हाथ फेरते हुए बोले, “पापा की याद आती है बेटे?”

झेंपते हुए बंटी ने गरदन हिला दी।

बंटी को लगा जैसे चाचा कहीं उदास हो गए हैं। पीठ सहलाता हुआ उनका हाथ उसे काँपता-सा लगा। पापा की बात कहकर उसने कहीं ग़लती तो नहीं कर दी? पता नहीं, जब भी वह पापा की बात करता है, सब कुछ गड़बड़ा जाता है। किससे करे वह पापा की बात? किससे पूछे उनके बारे में?

“पापा भी आएँगे बेटा, मैं जाकर उन्हें भेजूँगा।” चाचा का स्वर इतना बुझा-बुझा क्यों है? वे तो हमेशा इतने ज़ोर-ज़ोर से बोलते हैं जैसे क्लास में पढ़ा रहे हों।

“मैं तो इस बार मिलकर भी नहीं आ सका, वरना ज़रूर तेरे लिए कुछ भेजते।”

और चाचा बड़े प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगे। मानो कुछ न लाने की कमी वे प्यार से ही पूरी कर देंगे।

चाचा कुछ लाए भी नहीं, इस सूचना ने बंटी को और भी खिन्न कर दिया, वरना जब भी चाचा आते हैं, पापा उसके लिए ज़रूर कुछ न कुछ भेजते हैं और शायद यही कारण है कि उसे चाचा अच्छे लगते हैं, चाचा का आना अच्छा लगता है।

“जो बन्दूक़ तुम्हारे लिए भेजी थी, वह तुम्हें पसंद आयी?”

“बहुत अच्छी, बहुत ही अच्छी। आपने देखी थी?” बन्दूक़ के नाम से ही जैसे मरा हुआ उत्साह एक क्षण को जाग उठा।

“हमने साथ ही जाकर तो ख़रीदी थी।”

फिर चाचा यों ही कमरे में इधर-उधर देखने लगे।

“ये चित्र तुमने बनाए हैं?”

दीवारों पर ममी ने उसकी पेंटिंग्स गत्ते पर चिपका-चिपकाकर लटका रखी हैं। तीन शीशे के फ़्रेम में मढ़वा रखी हैं।

“हाँ।” बड़े गर्व से बंटी ने कहा, “स्कूल में मेरी और भी अच्छी-अच्छी रखी हैं। आर्ट-क्लब का चीफ़ हूँ…”

“अच्छा!” चाचा ने शाबाशी देते हुए उसकी पीठ थपथपायी और फिर जैसे कहीं से उदास हो गए। पर यह भी कोई उदास होने की बात हुई भला!

इतने में ममी घुसीं। हाथ में ट्रे लिए हुए। लगा, वह मुँह भी धोकर आयी हैं। यों भी सोकर उठती हैं तो ममी का चेहरा बहुत ताज़ा-ताज़ा लगता है। चाचा को गिलास पकड़ाकर ममी सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गईं।

“तुम्हारा बेटा तो बड़ा गुनी है शकुन। कलाकार बनेगा। देखो न, इस उम्र में ही बड़ी अच्छी पेंटिंग्स बना रखी हैं।”

ममी ने उसे देखा क्या, जैसे लाड़ में नहला दिया। बंटी सोच रहा था, ममी उसकी तारीफ़ में कुछ और कहेंगी, पर फिर सब चुप हो गए।

हमेशा बोलते रहनेवाले चाचा भी चुप और चाचा के सामने चुप रहनेवाली ममी भी चुप। अंधेरा-अंधेरा कमरा और भीतर बैठे लोग चुप। जैसे एक अजीब-सी उदासी वहाँ उतर आयी हो। चाचा कभी एक घूँट पीते हैं, कभी उसकी ओर देखते हैं तो कभी खिड़की की ओर। पर खिड़की तो बंद है, उस पर परदा पड़ा है। वहाँ तो देखने को कुछ है ही नहीं। ममी एकटक ज़मीन ही देखे जा रही हैं और वह है कि कभी ममी को देखता है तो कभी चाचा को।

“चाचीजी अच्छी हैं, बच्चे?” आखि़र ममी ने पूछा।

“हूँ, ठीक हैं सब।” कुछ इस भाव से कहा मानो उन्हें इन सबमें कोई दिलचस्पी ही न हो।

“तुम गर्मियों की छुट्टियों में कहीं बाहर नहीं जा रहीं इस बार?”

“नहीं, एक तो पहले से ही कहीं जगह का इंतज़ाम नहीं किया, यों भी इस बार यहीं रहने का इरादा है।”

ममी पापा की बात क्यों नहीं पूछ रहीं? लड़ाई में क्या बात भी नहीं पूछते हैं?

“कलकत्ते में तो अभी से गरमी शुरू हो गई होगी? यहाँ शाम को तो अभी भी बहुत अच्छा रहता है और रात को ठण्ड रहती है।”

बातें कर रहे हैं, पर बंटी तक को लग रहा है कि जैसे कमरे का मौन नहीं टूट रहा है। उदासी नहीं छँट रही है। यह चाचा को क्या हो गया है? वैसे तो चाचा जब भी आते हैं, उन्हें ममी से बहुत-बहुत बातें करनी रहती हैं। शाम को या दोपहर को आएँगे तो रात के पहले कभी नहीं जाएँगे और जब तक बैठेंगे लगातार कुछ न कुछ बोलते ही जाएँगे। अगर ममी थोड़ी देर को उठकर चली भी जाएँ तो चाचा उससे बातें करने लगेंगे। और कुछ नहीं तो उसका टेस्ट ही ले डालेंगे। टेबल पूछेंगे, स्पेलिंग पूछेंगे। चुप तो चाचा रह ही नहीं सकते। उन्हें इस तरह लगातार बोलते देखकर बंटी को ख़याल आता, अगर इन्हें कभी क्लास में बैठना पड़े तो? बाप-रे-बाप! सारा दिन सज़ा खाते ही बीते। मुँह पर उँगली रखे खड़े हैं या कि मुँह पर डस्टर बांधे बैठे हैं।

उसने पिछली बार यह बात ममी को बतायी तो हँसते हुए उसका कान खींचकर कहा था, “यही सब सोचता रहता है बड़ों के बारे में…?” और फिर देर तक हँसती रही थीं। मुँह पर डस्टर बंधे चाचा की कल्पना में वह ख़ुद हँस-हँसकर दोहरा होता रहा था।
वही चाचा आज चुप हैं। चुप ही नहीं, उदास भी हैं।

“आप कितने दिन हैं यहाँ पर?”

“परसों की तारीख़ है। बस उसी दिन शाम को चला जाऊँगा।” फिर एक क्षण ठहरकर बोले, “तुमसे कुछ बातें करनी थीं, तो सोचा कि एक दिन हाथ में होगा तो ठीक रहेगा।”

ममी की आँखें चाचा के चेहरे पर टिक गईं। हज़ारों सवाल उन आँखों में झलक आए। चेहरे पर एक अजीब-सा तनाव आने लगा। बंटी के मन में जाने कैसा-कैसा डर-सा समाने लगा।

पहले वह कुछ भी जानता-समझता नहीं था। जानने-समझने की कोई इच्छा भी नहीं थी। पर अब जानने लगा है। और जितना जानता है, उससे बहुत ज़्यादा जानने की इच्छा है, बल्कि सब कुछ जान लेने की इच्छा है। उसे मालूम है कि चाचा पापा के पास से आते हैं, और आने पर पापा की ही बातें करते हैं। क्या बातें करते रहे हैं, उसे नहीं मालूम। उसने कभी सुनने की कोशिश ही नहीं की। पर इस बार ज़रूर सुनेगा।

कृष्णा सोबती के उपन्यास 'मित्रो मरजानी' से अंश

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