Shayari: Adam Gondvi
घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है,
बताओ कैसे लिख हूँ धूप फागुन की नशीली है।
जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिए।
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की।
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे,
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे।एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए,
चार-छः चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे।
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को।पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को।
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था-विश्वास लेकर क्या करें।बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है,
ठूँठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें।
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
शहर के दंगों में जब भी मुफ़लिसों के घर जले,
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया।
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।तुम्हारी मेज़ चाँदी की, तुम्हारे जाम सोने के,
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।
गर ग़लतियाँ बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए।छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए।
'हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए'