मोहन राकेश का नाटक ‘आधे अधूरे’
का.सू.वा. (काले सूटवाला आदमी) जो कि पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन तथा पुरुष चार की भूमिकाओं में भी है। उम्र लगभग उनचास-पचास। चेहरे की शिष्टता में एक व्यंग्य। पुरुष एक के रूप में वेशान्तर : पतलून-कमीज। जिंदगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की छटपटाहट लिए। पुरुष दो के रूप में : पतलून और बंद गले का कोट। अपने आपसे संतुष्ट, फिर भी आशंकित। पुरुष तीन के रूप में : पतलून-टीशर्ट। हाथ में सिगरेट का डिब्बा। लगातार सिगरेट पीता। अपनी सुविधा के लिए जीने का दर्शन पूरे हाव-भाव में। पुरुष चार के रूप में : पतलून के साथ पुरानी कोट का लंबा कोट। चेहरे पर बुजु़र्ग होने का खासा एहसास। काइयाँपन।
स्त्री : उम्र चालीस को छूती। चेहरे पर यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष। ब्लाउज और साड़ी साधारण होते हुए भी सुरुचिपूर्ण। दूसरी साड़ी विशेष अवसर की।
बड़ी लड़की : उम्र बीस से ऊपर नहीं। भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद और उतावलापन। कभी-कभी उम्र से बढ़ कर बड़प्पन। साड़ी : माँ से साधारण। पूरे व्यक्तित्व में एक बिखराव।
छोटी लड़की : उम्र बारह और तेरह के बीच। भाव, स्वर, चाल-हर चीज में विद्रोह। फ्रॉक चुस्त, पर एक मोजे में सूराख।
लड़का : उम्र इक्कीस के आसपास। पतलून के अंदर दबी भड़कीली बुश्शर्ट धुल-धुल कर घिसी हुई। चेहरे से, यहाँ तक कि हँसी से भी, झलकती खास तरह की कड़वाहट।
स्थान:
मध्य-वित्तीय स्तर से ढह कर निम्न-मध्य-वित्तीय स्तर पर आया एक घर।
सब रूपों में इस्तेमाल होनेवाला वह कमरा जिसमें उस घर के व्यतीत स्तर के कई एक टूटते अवशेष – सोफा-सेट , डाइनिंग टेबल, कबर्ड और ड्रेसिंग टेबल आदि -किसी-न-किसी तरह अपने लिए जगह बनाए हैं। जो कुछ भी है, वह अपनी अपेक्षाओं के अनुसार न हो कर कमरे की सीमाओं के अनुसार एक और ही अनुपात से है। एक चीज का दूसरी चीज से रिश्ता तात्कालिक सुविधा की माँग के कारण लगभग टूट चुका है। फिर भी लगता है कि वह सुविधा कई तरह की असुविधाओं से समझौता करके की गई है – बल्कि कुछ असुविधाओं में ही सुविधा खोजने की कोशिश की गई है। सामान में कहीं एक तिपाई , कहीं दो-एक मोढ़े, कहीं फटी-पुरानी किताबों का एक शेल्फ और कहीं पढ़ने की एक मेज-कुरसी भी है। गद्दे,परदे, मेजपोश और पलंगपोश अगर हैं, तो इस तरह घिसे, फटे या सिले हुए की समझ में नहीं आता कि उनका न होना क्या होने से बेहतर नहीं था ?
तीन दरवाजे तीन तरफ से कमरे में झाँकते हैं। एक दरवाजा कमरे को पिछले अहाते से जोड़ता है , एक अंदर के कमरे से और एक बाहर की दुनिया से। बाहर का एक रास्ता अहाते से हो कर भी है। रसोई में भी अहाते से हो कर जाना होता है। परदा उठने पर सबसे पहले चाय पीने के बाद डाइनिंग टेबल पर छोड़ा गया अधटूटा टी-सेट आलोकित होता है। फिर फटी किताबों और टूटी कुर्सियों आदि में से एक-एक। कुछ सेकंड बाद प्रकाश सोफे के उस भाग पर केंद्रित हो जाता है जहाँ बैठा काले सूट वाला आदमी सिगार के कश खींच रहा है। उसके सामने रहते प्रकाश उसी तरह सीमित रहता है , पर बीच-बीच में कभी यह कोना और कभी वह कोना साथ आलोकित हो उठता है।
का.सू.वा. : (कुछ अंतर्मुख भाव से सिगार की राख झाड़ता) फिर एक बार, फिर से वही शुरुआत…।
जैसे कोशिश से अपने को एक दायित्व के लिए तैयार करके सोफे से उठ पड़ता है।
मैं नहीं जानता आप क्या समझ रहे हैं मैं कौन हूँ और क्या आशा कर रहे हैं मैं क्या कहने जा रहा हूँ। आप शायद सोचते हों कि मैं इस नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ – अभिनेता, प्रस्तुतकर्ता, व्यवस्थापक या कुछ और; परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता – उसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में नहीं कह सकता। क्योंकि यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है। अनिश्चित होने का कारण यह है कि…परंतु कारण की बात करना बेकार है। कारण हर चीज का कुछ-न-कुछ होता है, हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि जो कारण दिया जाए, वास्तविक कारण वही हो। और जब मैं अपने ही संबंध में निश्चित नहीं हूँ, तो और किसी चीज के कारण-अकारण के संबंध में निश्चित कैसे हो सकता हूँ ?
सिगार के कश खींचता पल-भर सोचता-सा खड़ा रहता है।
मैं वास्तव में कौन हूँ ? – यह एक ऐसा सवाल है जिसका सामना करना इधर आ कर मैंने छोड़ दिया है जो मैं इस मंच पर हूँ, वह यहाँ से बाहर नहीं हूँ और जो बाहर हूँ…ख़ैर, इसमें आपकी क्या दिलचस्पी हो सकती है कि मैं यहाँ से बाहर क्या हूँ ? शायद अपने बारे में इतना कह देना ही काफी है कि सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं, वह आदमी मैं हूँ। आप सिर्फ घूर कर मुझे देख लेते हैं – इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहाँ रहता हूँ, क्या काम करता हूँ, किस-किससे मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आपसे मतलब नहीं रखता, और टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होते हैं जो मैं आपके लिए होता हूँ। इसलिए जहाँ इस समय मैं खड़ा हूँ, वहाँ मेरी जगह आप भी हो सकते थे। दो टकरानेवाले व्यक्ति होने के नाते आपमें और मुझमें, बहुत बड़ी समानता है। यही समानता आपमें और उसमें, उसमें और उस दूसरे में, उस दूसरे में और मुझमें…बहरहाल इस गणित की पहेली में कुछ नहीं रखा है। बात इतनी है कि विभाजित हो कर मैं किसी-न-किसी अंश में आपमें से हर-एक व्यक्ति हूँ और यही कारण है कि नाटक के बाहर हो या अंदर, मेरी कोई भी एक निश्चित भूमिका नहीं है।
कमरे के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में टहलने लगता है।
मैंने कहा था, यह नाटक भी मेरी ही तरह अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार, उसकी विशेष परिस्थितियाँ ! परिवार दूसरा होने से परिस्थितियाँ बदल जातीं, मैं वही रहता। इसी तरह सब कुछ निर्धारित करता। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलते – या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका ले कर उसे झेलता। नाटक अंत तक फिर भी इतना ही अनिश्चित बना रहता और यह निर्णय करना इतना ही कठिन होता कि इसमें मुख्य भूमिका किसकी थी – मेरी, उस स्त्री की, परिस्थितियों की, या तीनों के बीच से उठते कुछ सवालों की।
फिर दर्शकों के सामने आ कर खड़ा हो जाता है। सिगार मुँह में लिए पल-भर ऊपर की तरफ देखता रहता है। फिर ‘ हँह ‘ के स्वर के साथ सिगार मुँह से निकाल कर उसकी राख झाड़ता है।
पर हो सकता है, मैं एक अनिश्चित नाटक में एक अनिश्चित पात्र होने की सफाई-भर पेश कर रहा हूँ। हो सकता है, यह नाटक एक निश्चित रूप ले सकता हो – किन्हीं पात्रों को निकाल देने से, दो-एक पात्र और जोड़ देने से, कुछ भूमिकाएँ बदल देने से, या परिस्थितियों में थोड़ा हेर-फेर कर देने से। हो सकता है, आप पूरा देखने के बाद, या उससे पहले ही, कुछ सुझाव दे सकें इस संबंध में। इस अनिश्चित पात्र से आपकी भेंट इस बीच कई बार होगी…।
नुक्कड़ नाटक 'औरत'
हलके अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है जिसके साथ ही उसकी आकृति धीरे-धीरे धुँधला कर अँधेरे में गुम हो जाती है। उसके बाद कमरे के अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक व्यवस्था में मिल जाते हैं। कमरा खाली है। तिपाई पर खुला हुआ हाई स्कूल का बैग पड़ा है जिसमें आधी कापियाँ और किताबें बाहर बिखरी हैं। सोफे पर दो-एक पुराने मैगजीन , एक कैंची और कुछ कटी-अधकटी तस्वीरें रखी हैं। एक कुरसी की पीठ पर उतरा हुआ पाजामा झूल रहा है। स्त्री कई-कुछ सँभाले बाहर से आती हैं। कई-कुछ में कुछ घर का है , कुछ दफ्तर का , कुछ अपना। चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीजों के साथ चल कर आने की उलझन। आ कर सामान कुरसी पर रखती हुई वह पूरे कमरे पर एक नजर डाल लेती है।
स्त्री: (थकान निकालनेवाले स्वर में) ओह् होह् होह् होह् ! (कुछ हताश भाव से) फिर घर में कोई नहीं। (अंदर के दरवाज़े की तरफ देख कर) किन्नी !…होगी ही नहीं, जवाब कहाँ से दे ? (तिपाई पर पड़े बैग को देख कर) यह हाल है इसका! (बैग की एक किताब उठा कर) फिर फाड़ लाई एक और किताब ! जरा शरम नहीं कि रोज-रोज कहाँ से पैसे आ सकते हैं नयी किताबों के लिए ! (सोफे के पास आ कर) और अशोक बाबू यह कमाई करते रहे हैं दिन-भर ! (तस्वीर उठा कर देखती) एलिजाबेथ टेलर…आड्रेबर्न…शर्ले मैक्लेन !
तस्वीरें वापस रख कर बैठने लगती है कि नजर झूलते पाजामे पर जा पड़ती है।
(उस तरफ जाती) बड़े साहब वहाँ अपनी कारगुजारी कर गए हैं।
पाजामे को मरे जानवर की तरह उठा कर देखती है और कोने में फेंकने को हो कर फिर एक झटके के साथ उसे तहाने लगती है।
दिन-भर घर पर रह कर आदमी और कुछ नहीं, तो अपने कपड़े तो ठिकाने पर रख ही सकता है।
पाजामे कबर्ड में रखने से पहले डाइनिंग टेबल पर पड़े चाय के सामान को देख कर और खीज जाती है , पाजामे को कुरसी पर पटक देती है और प्यालियाँ वैगरह ट्रे में रखने लगती है।
इतना तक नहीं कि चाय पी है, तो बरतन रसोईघर में छोड़ आएँ। मैं ही आ कर उठाऊँ, तो उठाऊँ…।
ट्रे उठा कर अहाते के दरवाजे की तरफ बढ़ती ही है कि पुरुष एक उधर से आ जाता है। स्त्री ठिठक कर सीधे उसकी आँखों में देखती है , पर वह उससे आँखें बचाता पास से निकल कर थोड़ा आगे आ जाता है।
पुरुष एक : आ गईं दफ्तर से ? लगता है, आज बस जल्दी मिल गई।
स्त्री : (ट्रे वापस मेज पर रखती) यह अच्छा है कि दफ्तर से आओ, तो कोई घर पर दिखे ही नहीं। कहाँ चले गए थे तुम ?
पुरुष एक : कहीं नहीं। यहीं बाहर था – मार्केट में।
स्त्री : (उसका पाजामा हाथ में ले कर) पता नहीं यह क्या तरीका है इस घर का ? रोज आने पर पचास चीजें यहाँ-वहाँ बिखरी मिलती हैं।
पुरुष एक : (हाथ बढ़ा कर) लाओ, मुझे दे दो।
स्त्री : (दूसरे पाजामे को झाड़ कर फिर से तहाती हुई) अब क्या देदूँ ! पहले खुद भी तो देख सकते थे।
गुस्से में कबर्ड खोल कर पाजामे को जैसे उसमें कैद कर देती है। पुरुष एक फालतू-सा इधर-उधर देखता है , फिर एक कुरसी की पीठ पर हाथ रख लेता है।
(कबर्ड के पास आ कर ट्रे उठाती) चाय किस-किसने पी थी?
पुरुष एक : (अपराधी स्वर में) अकेले मैंने।
स्त्री : तो अकेले के लिए क्या जरूरी था कि पूरी ट्रे की ट्रे … किन्नी को दूध दे दिया था ?
पुरुष एक : वह मुझे दिखी ही नहीं अब तक।
स्त्री : (ट्रे ले कर चलती है) दिखे तब न जो घर पर रहे कोई।
अहाते के दरवाजे से हो कर पीछे रसोईघर में चली जाती है। पुरुष एक लंबी ‘हूँ‘ के साथ कुरसी को झुलाने लगता है। स्त्री पल्ले से हाथ पोंछती रसोईघर से वापस आती है।
पुरुष एक : मैं बस थोड़ी देर के लिए निकला था बाहर।
स्त्री : (और चीजों को समेटने में व्यस्त) मुझे क्या पता कितनी देर के लिए निकले थे।…वह आज फिर आएगा अभी थोड़ी देर में। तब तो घर पर रहोगे तुम ?
पुरुष एक : (हाथ रोक कर) कौन आएगा ? सिंघानिया ?
स्त्री : उसे किसी के यहाँ के खाना खाने आना है इधर। पाँच मिनट के लिए यहाँ भी आएगा।
पुरुष एक फिर उसी तरह ‘हूँ‘ के साथ कुरसी को झुलाने लगता है।
: मुझे यह आदत अच्छी नहीं लगती तुम्हारी। कितनी बार कह चुकी हूँ।
पुरुष एक कुरसी से हाथ हटा लेता है।
पुरुष एक : तुम्हीं ने कहा होगा आने के लिए।
स्त्री : कहना फर्ज नहीं बनता मेरा ? आखिर बॉस है मेरा।
पुरुष एक : बॉस का मतलब यह थोड़े ही है न कि…?
स्त्री : तुम ज्यादा जानते हो ? काम तो मैं ही करती हूँ उसके मातहत।
पुरुष एक फिर से कुरसी को झुलाने को हो कर एकाएक हाथ हटा लेता है।
पुरुष एक : किस वक्त आएगा ?
स्त्री : पता नहीं जब गुजरेगा इधर से।
पुरुष एक : (छिले हुए स्वर में) यह अच्छा है…।
स्त्री : लोगों को ईर्ष्या है मुझसे, कि दो बार मेरे यहाँ आ चुका है। आज तीसरी बार आएगा।
कैंची , मैगजीन और तस्वीरें समेट कर पढ़ने की मेज की दराज में रख देती है। किताबें बैग में बंद करके उसे एक तरफ सीधा खड़ा कर देती है।
पुरुष एक : तो लोगों को भी पता है वह आता है यहाँ ?
स्त्री : (एक तीखी नजर डाल कर) क्यों, बुरी बात है ?
पुरुष एक : मैंने कहा है बुरी बात है ? मैं तो बल्कि कहता हूँ, अच्छी बात है।
स्त्री : तुम जो कहते हो, उसका सब मतलब समझ में आता है मेरी।
पुरुष एक : तो अच्छा यही है कि मैं कुछ न कह कर चुप रहा करूँ। अगर चुप रहता हूँ, तो…।
स्त्री : तुम चुप रहते हो। और न कोई।
अपनी चीजें कुरसी से उठा कर उन्हें यथास्थान रखने लगती है।
पुरुष एक : पहले जब-जब आया है वह, मैंने कुछ कहा है तुमसे ?
स्त्री : अपनी शरम के मारे ! कि दोनों बार तुम घर पर नहीं रहे।
पुरुष एक : उसमें क्या है ! आदमी को काम नहीं हो सकता बाहर ?
स्त्री : (व्यस्त) वह तो आज भी हो जाएगा तुम्हें।
पुरुष एक : (ओछा पड़कर) जाना तो है आज भी मुझे…पर तुम जरूरी समझो मेरा यहाँ रहना, तो…।
स्त्री : मेरे लिए रुकने की जरूरत नहीं। (यह देखती कि कमरे में और कुछ तो करने को शेष नहीं) तुम्हें और प्याली चाहिए चाय की ? मैं बना रही हूँ अपने लिए।
पुरुष एक : बना रही हो तो बना लेना एक मेरे लिए भी।
स्त्री अहाते के दरवाजे की तरफ जाने लगती है।
: सुनो।
स्त्री रुक कर उसकी तरफ देखती है।
: उसका क्या हुआ…वह जो हड़ताल होनेवाली थी तुम्हारे दफ्तर में?
स्त्री : जब होगी पता चल ही जाएगा तुम्हें।
पुरुष एक : पर होगी भी ?
स्त्री : तुम उसी के इंतजार में हो क्या ?
चली जाती है। पुरुष एक सिर हिला कर इधर-उधर देखता है कि अब वह अपने को कैसे व्यस्त रख सकता है। फिर जैसे याद हो आने से शाम का अखबार जेब से निकाल कर खोल लेता है। हर सुर्खी पढ़ने के साथ उसके चेहरे का भाव और तरह का हो जाता है- उत्साहपूर्ण , व्यंग्यपूर्ण, तनाव-भरा या पस्त। साथ मुँह से ‘बहुत अच्छे! ‘मार दिया, ‘लो‘ और ‘अब‘? जैसे शब्द निकल पड़ते हैं। स्त्री रसोईघर से लौट कर आती है।
पुरुष एक : (अखबार हटा कर स्त्री को देखता) हड़तालें तो आजकल सभी जगह हो रही हैं। इसमें देखो…।
स्त्री : (उस ओर से विरक्त) तुम्हें सचमुच कहीं जाना है क्या? कहाँ जाने की बात कर रहे थे तुम?
पुरुष एक : सोच रहा था, जुनेजा के यहाँ हो आता।
स्त्री : ओऽऽ जुनेजा के यहाँ !…हो आओ।
पुरुष एक : फिलहाल उसे देने के लिए पैसा नहीं है, तो कम-से-कम मुँह तो उसे दिखाते रहना चाहिए।
स्त्री : हाँऽऽ, दिख आओ मुँह जा कर।
पुरुष एक : वह छह महीने बाहर रह कर आया है। हो सकता है, कोईनया कारोबार चलाने की सोच रहा हो जिसमें मेरे लिए…
स्त्री : तुम्हारे लिए तो पता नहीं क्या-क्या करेगा वह जिंदगी में! पहले ही कुछ कम नहीं किया है।
झाड़न ले कर कुरसियों वगैरह को झड़ना शुरू कर देती है।
: इतनी गर्द भरी रहती है हर वक्त इस घर में ! पता नहीं कहाँ से चली आती है !
पुरुष एक : तुम नाहक कोसती रहती हो उस आदमी को। उसने तो अपनी तरफ से हमेशा मेरी मदद ही की है !
स्त्री : न करता मदद, तो उतना नुकसान तो न होता जितना उसके मदद करने से हुआ है।
पुरुष एक : (कुढ़ कर सोफे पर बैठता) तो नहीं जाता मै ! अपने अकेले के लिए जाना है मुझे! अब तक तकदीर ने साथ नहीं दिया तो इसका यह मतलब तो नहीं कि…
भुवनेश्वर का नाटक 'ताँबे के कीड़े'
स्त्री : यहाँ से उठ जाओ। मुझे झाड़ लेने दो जरा।
पुरुष एक उठ कर फिर बैठने की प्रतीक्षा में खड़ा रहता है।
: उस कुरसी पर चले जाओ। वह साफ हो गई है।
पुरुष एक गाली देती नजर से उसे देख कर उस कुरसी पर जा बैठता है।
: (बड़बड़ाती) पहली बार प्रेस में जो हुआ सो हुआ। दूसरी बार फिर क्या हो गया ? वही पैसा जुनेजा ने लगाया, वही तुमने गाया। एक ही फैक्टरी लगी, एक ही जगह जमा-खर्च हुआ। फिर भी तकदीर ने उसका साथ दे दिया, तुम्हारा नहीं दिया।
पुरुष एक : (गुस्से से उठता है) तुम तो ऐसी बात करती हो जैसे…
स्त्री : खड़े क्यों हो गए ?
पुरुष एक : क्यों, मैं खड़ा नहीं हो सकता ?
स्त्री : (हलका वक्फा ले कर तिरस्कारपूर्ण स्वर में) हो तो सकते हो,पर घर के अंदर ही।
पुरुष एक : (किसी तरह गुस्सा निगलता) मेरी जगह तुम हिस्सेदार होती न फैक्टरी की, तो तुम्हें पता चल जाता कि…
स्त्री : पता तो मुझे तब भी चल ही रहा है। नहीं चल रहा ?
पुरुष एक : (बड़बड़ाता) उन दिनों पैसा लिया था फैक्टरी से ! जो कुछ लगाया था, यह सारा तो शुरू में ही निकाल-निकाल कर खा लिया और….
स्त्री : किसने खा लिया ? मैंने ?
पुरुष एक : नहीं, मैंने ! पता है कितना खर्च था उन दिनों इस घर का, चार सौ रुपए महीने का मकान था। टैक्सियों में आना-जाना होता था। किस्तों पर फ्रिज खरीदा गया था। लड़के-लड़की की कान्वेंट की फीसें जाती थीं… ।
स्त्री : शराब आती थी। दावतें उड़ती थीं। उन सब पर पैसा तो खर्च होता ही था।
पुरुष एक : तुम लड़ना चाहती हो ?
स्त्री : तुम लड़ भी सकते हो इस वक्त, ताकि उसी बहाने चले जाओ घर से।….वह आदमी आएगा, तो जाने क्या सोचेगा कि क्यों हर बार इसके आदमी को कोई-न-कोई काम हो जाता है बाहर। शायद समझे कि मैं ही जान-बूझ कर भेज देती हूँ।
पुरुष एक : वह मुझसे तय करके आता नहीं कि मैं उसके लिए मौजूद रहा करूँ घर पर।
स्त्री : कह दूँगी, आगे से तय करके आया करे तुमसे। तुम इतने बिजी आदमी जो हो। पता नहीं कब किस बोर्ड की मीटिंग में जाना पड़ जाए।
पुरुष एक : (कुछ धीमा पड़ कर , पराजित भाव से) तुम तो बस आमादा ही रहती हो हर वक्त।
स्त्री : अब जुनेजा आ गया है न लौट कर, तो रहा करना फिर तीन-तीन दिन घर से गायब।
पुरुष एक : (पूरी शक्ति समेट कर सामना करता) तुम फिर वही बात उठाना चाहती हो ? अगर रहा भी हूँ कभी तीन दिन घर से बाहर, तो आखिर किस वजह से ?
स्त्री : वजह का पता तो तुम्हें पता होगा या तुम्हारे लड़के को। वह भी तीन-तीन दिन दिखाई नहीं देता घर पर।
पुरुष एक : तुम मेरा मुकाबला उससे करती हो ?
स्त्री : नहीं, उसका मुकाबला तुमसे करती हूँ। जिस तरह तुमने ख्वार की अपनी जिंदगी, उसी तरह वह भी…
पुरुष एक : और लड़की तुम्हारी? उसने अपनी जिंदगी ख्वार करने की सीख किससे ली है ? (अपने जाने भारी पड़ता) मैंने तो कभी किसी के साथ घर से भागने की बात नहीं सोची थी।
स्त्री : (एकटक उसकी आँखों में देखती) तुम कहना क्या चाहते हो?
पुरुष एक : कहना क्या है…जा कर चाय बना लो, पानी हो गया होगा।
सोफे पर पर बैठ कर फिर अखबार खोल लेता है , पर ध्यान पढ़ने में लगा नही पाता ।
स्त्री : मुझे भी पता है, पानी हो गया होगा । मैं जब भी किसी को बुलाती हूँ यहाँ, मुझे पता होता है तुम यही सब बातें करोगे।
पुरुष एक : (जैसे अखबार में कुछ पढ़ता हुआ) हूँ-हूँ-हूँ-हूँ ।
स्त्री : वैसे हजार बार कहोगे लड़के की नौकरी के लिए किसी से बात क्यों नही करती। और जब मैं मौका निकलती हूँ उसके लिए तो…
पुरुष-एक : हाँ, सिंघानिया तो लगवा ही देगा जरूर। इसीलिए बेचारा आता है यहाँ चल कर ।
स्त्री : शुक्र नहीं मानते कि इतना बड़ा आदमी, सिर्फ एक बार कहने-भर से…
पुरुष-एक : मैं नहीं शुक्र मनाता ? जब-जब किसी नए आदमी का आना- जाना शुरू होता है यहाँ, मैं हमेशा शुक्र मानता हूँ। पहले जगमोहन आया करता था। फिर मनोज आने लगा था…।
स्त्री : (स्थिर दृष्टि से उसे देखती) और क्या-क्या बात रह गई है कहने को बाकी ? वह भी कह डालो जल्दी से।
पुरुष एक : क्यों…जगमोहन का नाम मेरी जबान पर आया नहीं कि तुम्हारे हवास गुम होने शुरू हुए ?
स्त्री : (गहरी वितृष्णा के साथ) जितने नाशुक्रे आदमी तुम हो, उससे तो मन करता है कि आज ही मैं…
कहती हुई अहाते के दरवाजे की तरफ मुड़ती ही है कि बाहर से बड़ी लड़की की आवाज सुनाई देती है।
बड़ी लड़की : ममा !
स्त्री रुक कर उस तरफ देखती है। चेहरा कुछ फीका पड़ जाता है।
स्त्री : बिन्नी आई है बाहर ।
पुरुष एक न चाहते मन से अखबार लपेट कर उठ खड़ा होता है।
पुरुष एक : फिर उसी तरह आई होगी।
स्त्री : जा कर देख लोगे क्या चाहिए उसे ?
बड़ी लड़की की आवाज फिर सुनाई देती है।
बड़ी लड़की : ममा, टूटे पचास पैसे देना जरा।
पुरुष एक किसी अनचाही स्थिति का सामना करने की तरह बाहर के दरवाजे की तरफ बढ़ता है।
स्त्री : पचास पैसे है न तुम्हारी जेब में ? होगे तो सही दूध के पैसों से बचे हुए।
पुरुष एक : मैंने सिर्फ पाँच पैसे खर्च किए हैं अपने पर… इस अखबार के।
बाहर निकल जाता है। स्त्री पल-भर उधर देखती रह कर अहाते के दरवाजे से रसोईघर में चली जाती है। बड़ी लड़की बाहर से आती है। पुरुष एक उसके पीछे-पीछे आ कर इस तरह कमरे में नजर दौड़ाता है जैसे स्त्री के उस कमरे में न होने से अपने को गलत जगह पर अकेला पा रहा हो।
पुरुष एक : (अपने अटपनेपन को ढँक पाने में असमर्थ , बड़ी लड़की से) बैठ तू।
बड़ी लड़की : ममा कहाँ हैं ?
पुरुष एक : उधर होगी रसोई में।
बड़ी लड़की : (पुकार कर) ममा !
स्त्री दोनों हाथों में चाय की प्यालियाँ लिए अहाते के दरवाजे से आती है।
स्त्री : क्या हाल हैं तेरे ?
बड़ी लड़की : ठीक हैं ।
पुरुष एक स्त्री को हाथों के इशारे से बतलाने की कोशिश करता है कि वह अपने साथ सामान कुछ भी नहीं लाई।
स्त्री : चाय लेगी?
बड़ी लड़की : अभी नहीं, पहले हाथ-मुँह धो लूँ गुसलखाने में जा कर। सारा जिस्म इस तरह चिपचिपा रहा है कि बस….
स्त्री : तेरी आँखें ऐसी क्यों हो रही है ?
बड़ी लड़की : कैसी हो रही हैं ?
स्त्री : पता नहीं कैसी हो रही हैं !
बड़ी लड़की : तुम्हें ऐसे ही लग रहा। मैं अभी आती हूँ हाथ-मुँह धो कर।
अहाते के दरवाजे से चली जाती है। पुरुष एक अर्थपूर्ण दृष्टि से स्त्री को देखता उसके पास जाता है।
पुरुष एक : मुझे तो यह उसी तरह आई लगती है।
स्त्री चाय की प्याली उसकी तरफ बढ़ा देती है।
स्त्री : चाय ले लो।
पुरुष एक : (चाय ले कर) इस बार कुछ समान भी नहीं है साथ में।
स्त्री : हो सकता है। थोड़ी देर के लिए आई हो।
पुरुष एक : पर्स में केवल एक ही रुपया था। स्कूटर-रिक्शा का पूरा
किराया भी नहीं ।
स्त्री : क्या पता कहीं और से आ रही हो !
पुरुष एक : तुम हमेशा बात को ढँकने की कोशिश क्यों करती हो ? एक बार इससे पूछती क्यों नहीं खुल कर ?
स्त्री : क्या पूछूँ ?
पुरुष एक : यह मैं बताऊँगा तुम्हें ?
स्त्री चाय के घूँट भरती एक कुरसी पर बैठ जाती है।
: (पल भर उत्तर की प्रतीक्षा करने के बाद) मेरी उस आदमी के बारे में कभी अच्छी राय नहीं थी। तुम्हीं ने हवा बाँध रखी थी कि मनोज यह है, वह है – जाने क्या है ! तुम्हारी शह से उसका घर में आना-जाना न होता, तो क्या यह नौबत आती कि लड़की उसके साथ जा कर बाद में इस तरह…?
स्त्री : (तंग पड़ कर) तो खुद ही क्यों नहीं पूछ लेते उससे जो पूछना चाहते हो ?
पुरुष एक : मैं कैसे पूछ सकता हूँ ?
स्त्री : क्यों नहीं पूछ सकते ?
पुरुष एक : मेरा पूछना इसलिए गलत है कि…
स्त्री : तुम्हारा कुछ भी करना किसी-न-किसी वजह से गलत होता है। मुझे पता नहीं है ?
बड़े-बड़े घूँट भर कर चाय की प्याली खाली कर देती है।
पुरुष एक : तुम्हें सब पता है ! अगर सब कुछ मेरे कहने से होता इस घर में…
स्त्री : (उठती हुई) तो पता नहीं और क्या बर्बादी हुई होती। जो दो रोटी आज मिल जाती है मेरी नौकरी से, वह भी नहीं मिल पाती। लड़की भी घर में रह कर ही बुढ़ा जाती, पर यह न सोचा होता किसी ने कि….
पुरुष एक : (अहाते के दरवाजे की तरफ संकेत करके) वह आ रही है।
जल्दी-जल्दी अपनी प्याली खाली करके स्त्री को दे देती है। बड़ी लड़की पहले से काफी सँभली हुई वापस आती है।
बड़ी लड़की : (आती हुई) ठंडे पानी के छींटे मुँह पर मारे, तो कुछ होश आया। आजकल के दिनों में तो बस…. (उन दोनों को स्थिर दृष्टि से अपनी ओर देखते पा कर) क्या बात है, ममा? आप लोग इस तरह क्यों देख रहे हैं मुझे ?
स्त्री : मैं प्यालियाँ रख कर आ रही हूँ अंदर से।
अहाते के दरवाजे से चली जाती है। पुरुष एक भी आँखें हटा कर व्यस्त होने का बहाना खोजता है।
बड़ी लड़की : क्या बात है, डैडी ?
पुरुष एक : बात ?…बात कुछ भी नहीं।
बड़ी लड़की : (कमजोर पड़ती) है तो सही कुछ-न-कुछ बात।
पुरुष एक : ऐसे ही तेरी ममा कुछ कह रही थी…
बड़ी लड़की : क्या कह रही थीं।
पुरुष एक : मतलब वह नहीं, मैं कह रहा था उससे…।
बड़ी लड़की : क्या कह रहे थे ?
पुरुष एक : तेरे बारे में बात कर रहा था
बड़ी लड़की : क्या बात कर रहे थे ?
स्त्री लौट कर आ जाती है।
पुरुष एक : वह आ गई है, खुद ही बता देगी तुझे ।
जैसे अपने को स्थिति से बाहर रखने के लिए थोड़ा परे चला जाता है।
बड़ी लड़की : (स्त्री से) डैडी मेरे में क्या बात कर रहे थे, ममा ?
स्त्री : उन्हीं से क्यों नहीं पूछती ?
बड़ी लड़की : वे कहते है कि तुम बतलाओगी और तुम कहती हो उन्हीं से क्यों नहीं पूछती !
स्त्री : तेरे डैडी तुमसे यह जानना चाहते हैं कि…
पुरुष एक : (बीच में ही) अगर तुम अपनी तरफ से नहीं जानना चाहतीं तो रहने दो।
बड़ी लड़की : पर बात ऐसी है क्या जानने की ?
स्त्री : बात सिर्फ इतनी है कि जिस तरह से तू आजकल आती है वहाँ से, उससे इन्हें कहीं लगता है कि…
पुरुष एक : तुम्हें जैसे नहीं लगता।
बड़ी लड़की : (जैसे कठघरे में खड़ी) क्या लगता है ?
स्त्री : कि कुछ है जो तू अपने मन में छिपाए रखती है, हमें नहीं बतलाती।
बड़ी लड़की : मेरी किस बात से लगता है ऐसा ?
स्त्री : (पुरुष एक से) अब कहो न इसके सामने वह सब, जो मुझसे कह रहे थे ।
पुरुष एक : तुमने शुरू की है बात, तुम्हीं पूरा कर डालो अब ।
स्त्री : (बड़ी लड़की से) मैं तुमसे एक सीधा सवाल पूछ सकती हूँ ?
बड़ी लड़की : जरूर पूछ सकती हो ।
स्त्री : तू खुश है वहाँ पर ?
बड़ी लड़की : (बचते स्वर में) हाँ, बहुत खुश हूँ ।
स्त्री : सचमुच खुश है ?
बड़ी लड़की : और क्या ऐसे ही कह रही हूँ ?
पुरुष एक : (बिलकुल दूसरी तरफ मुँह किए) यह तो कोई जवाब नहीं है।
बड़ी लड़की : (तुनक कर) तो जवाब क्या तभी होता है अगर मैं कहती कि मैं खुश नहीं हूँ, बहुत दुखी हूँ?
पुरुष एक : आदमी जो जवाब दे, उसके चेहरे से भी तो झलकना चाहिए।
बड़ी लड़की : मेरे चेहरे से क्या झलकता है ? कि मुझे तपेदिक हो गया है? मैं घुल-घुल कर मरी जा रही हूँ ?
पुरुष एक : एक तपेदिक ही होता है बस आदमी को ?
बड़ी लड़की : तो और क्या-क्या होता है ? आँख से दिखाई देना बंद हो जाता है? नाक-कान तिरछे हो जाते हैं ? होंठ झाड़ कर गिर जाते हैं ? मेरे चेहरे से ऐसा क्या नजर आता है आपको ?
पुरुष एक : (कुढ़कर लौटता) तेरी माँ ने तुझसे पूछा है, तू उसी से बात कर। मैं इस मारे कभी पड़ता ही नहीं इन चीजों में।
सोफे पर जा कर अखबार खोल लेता है। पर पल-भर बाद ध्यान हो आने से कि वह उसने उलटा पकड़ रखा है , सीधा कर लेता है।
स्त्री : (बड़ी लड़की से) अच्छा, छोड़ अब इस बात को। आगे से यह सवाल मैं नहीं पूछूँगी तुझसे।
बड़ी लड़की की आँखें छलछला आती हैं ।
बड़ी लड़की : पूछने में रखा भी क्या है, ममा ! जिंदगी किसी तरह कटती ही चलती है हर आदमी की।
पुरुष एक : (अखबार का पन्ना उलटता) यह हुआ कुछ जवाब !
स्त्री : (पुरुष एक से) तुम चुप नहीं रह सकते थोड़ी देर ?
पुरुष एक : मैं क्या कह रहा हूँ ? चुप ही बैठा हूँ यहाँ। (अखबार में पढ़ता) नाले का बाँध पूरा करने के लिए बारह साल के लड़के की बलि (अखबार से बाहर) आप चाहे जो कह ले, मेरे मुँह से एक लफ्ज भी न निकले। (फिर अखबार में से) उदयपुर में मड्ढा गाँव में बाँध के ठेकेदार का अमानुषिक कृत्य। (अखबार से बाहर) हद होती है हर चीज की ।
स्त्री बड़ी लड़की के कंधे पर हाथ रखे उसे पढ़ने की मेज के पास ले जाती है।
स्त्री : यहाँ बैठ ।
बड़ी लड़की पलकें झपकती वहाँ कुरसी पर बैठ जाती है।
: सच-सच बता, तुझे वहाँ किसी चीज की शिकायत है ?
बड़ी लड़की : शिकायत किसी चीज की नहीं…।
स्त्री : तो ?
बड़ी लड़की : और हर चीज की है।
स्त्री : फिर भी कोई खास बात ?
बड़ी लड़की : खास बात कोई भी नहीं…
स्त्री : तो ?
बड़ी लड़की : और सभी बातें खास हैं ।
स्त्री : जैसे ?
बड़ी लड़की : जैसे… सभी बातें।
स्त्री : तो मेरा मतलब है कि… ?
बड़ी लड़की : मेरा मतलब है…कि शादी से पहले मुझे लगता था कि मनोज को बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। पर अब आ कर…अब आ कर लगाने लगा है कि वह जानना बिलकुल जानना नहीं था।
स्त्री : (बात की गहराई तक जाने की तरह) हूँ !… तो क्या उसके चरित्र में कुछ ऐसा है जो… ?
बड़ी लड़की : नहीं। उसके चरित्र में ऐसा कुछ नहीं है। इस लिहाज से बहुत साफ आदमी है वह।
स्त्री : तो फिर क्या उसके स्वभाव में कोई ऐसी बात है जिससे…?
बड़ी लड़की : नहीं स्वभाव उसका हर आदमी जैसा है, बल्कि आम आदमी से ज्यादा खुशदिल कहना चाहिए उसे।
स्त्री : (और भी गहराई में जा कर कारण खोजती) तो फिर ?
बड़ी लड़की : यही तो मैं भी नहीं समझ पाती। पता नहीं कहाँ पर क्या है जो गलत है !
स्त्री : उसकी आर्थिक स्थिति ठीक है ?
बड़ी लड़की : ठीक है।
स्त्री : सेहत ?
बड़ी लड़की : बहुत अच्छी है।
पुरुष एक : (बिना उधर देखे) सब-कुछ अच्छा-ही-अच्छा है फिर तो…। शिकायत किस बात की है ?
स्त्री : (पुरुष एक से) तुम बात समझने भी दोगे ? (बड़ी लड़की से) जब इनमें से किसी बात की शिकायत नहीं है तुझे, तब या तो कोई बहुत खास वजह होनी चाहिए, या…
बड़ी लड़की : या ?
स्त्री : या…या…मैं अभी नहीं कह सकती।
बड़ी लड़की : वजह सिर्फ वह हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है।
पुरुष एक : (उस ओर देख कर) क्या कहा… हवा ?
बड़ी लड़की : हाँ, हवा।
पुरुष एक : (निराशा भाव से सिर हिला कर , मुँह फिर दूसरी तरफ करता) य ह वजह बताई है इसने…हवा!
स्त्री : (बड़ी लड़की के चेहरे को आँखों से टटोलती) मैं तेरा मतलब नहीं समझी ?
बड़ी लड़की : (उठती हुई) मैं शायद समझा भी नहीं सकती (अस्थिर भाव से कुछ कदम चलती) किसी दूसरे को तो क्या, अपने को भी नहीं समझा सकती। (सहसा रुक कर) ममा, ऐसा भी होता है क्या कि…
स्त्री : कि ?
बड़ी लड़की : कि दो आदमी जितना ज्यादा साथ रहें, एक हवा में साँस लें, उतना ही ज्यादा अपने को एक-दूसरे से अजनबी महसूस करें ?
स्त्री : तुम दोनों ऐसा महसूस करते हो ?
बड़ी लड़की : कम-से-कम अपने लिए तो कह ही सकती हूँ।
स्त्री : (पल-भर उसे देखती रह कर) तू बैठ कर क्यों नहीं बात करती ?
बड़ी लड़की : मैं ठीक हूँ इसी तरह।
स्त्री : तूने जो बात कही है, वह अगर सच है, तो उसके पीछे क्या कोई-न-कोई ऐसी अड़चन नहीं है जो…
बड़ी लड़की : पर कौन-सी अड़चन ?…उसके हाथ से छलक गई चाय की प्याली, या उसके दफ्तर से लौटने में आधा घंटे की देरी-ये छोटी-छोटी बातें अड़चन नहीं होतीं, मगर अड़चन बन जाती हैं। एक गुबार-सा है जो हर वक्त भरा रहता है और मैं इंतजार में रहती हूँ जैसे कि कब कोई बहाना मिले जिससे उसे बाहर निकाल लूँ। और आखिर… ?
स्त्री चुपचाप आगे सुनने कि प्रतीक्षा करती है।
: आखिर वह सीमा आ जाती है जहाँ पहुँच कर वह निढाल हो जाता है। जहाँ पहुँच कर वह निढाल हो जाता है। ऐसे में वह एक बात कहता है।
बड़ी लड़की : कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज ले कर गई हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नहीं रहने देतीं।
स्त्री : (जैसे किसी ने उसे तमाचा मार दिया हो) क्या चीज ?
बड़ी लड़की : मैं पूछती हूँ क्या चीज,तो भी उसका एक ही जवाब होता है।
स्त्री : वह क्या ?
बड़ी लड़की : कि इसका पता मुझे अपने अंदर से, या इस घर के अंदर से चल सकता है। वह कुछ नहीं बता सकता।
पुरुष एक : (फिर उस तरफ मुड़ कर) यह सब कहता है वह ? और क्या-क्या कहता है ?
स्त्री : वह इस वक्त तुमसे बात नहीं कर रही।
पुरुष एक : पर बात तो मेरे घर की हो रही है।
स्त्री : तुम्हारा घर ! हँह !
पुरुष एक : तो मेरा घर नहीं है यह ? कह दो, नहीं है।
स्त्री : सचमुच तुम अपना घर समझते इसे तो…
पुरुष एक : कह दो, कह दो, जो कहना चाहती हो।
स्त्री : दस साल पहले कहना चाहिए था मुझे…जो कहना चाहती हूँ।
पुरुष एक : कह दो अब भी…इससे पहले कि दस-ग्यारह साल हो जाएँ।
स्त्री : नहीं होने पाएँगे ग्यारह साल… इसी तरह चलता रहा सब- कुछ तो।
पुरुष एक : (एकटक उसे देखता , काट के साथ) नहीं होने पाएँगे सचमुच…? काफी अच्छा आदमी है जगमोहन ! और फिर दिल्ली में उसका ट्रांसफर भी हो गया है। मिला था उस दिन कनॉट प्लेस में। कह रहा था, आएगा किसी दिन मिलने।
बड़ी लड़की : (धीरज खो कर) डैडी !
पुरुष एक : ऐसी क्या बात कही है मैंने? तारीफ ही की है उस आदमी की।
स्त्री : खूब करो तारीफ…और भी जिस-जिस की हो सके तुमसे। (बड़ी लड़की से) मनोज आज जो तुमसे कहता है यह सब, पहले जब खुद यहाँ आता रहा है, रात-दिन यहीं रहता रहा है, तब क्या उसे पता नहीं चला कि…
बड़ी लड़की : यह मैं उससे नहीं पूछती।
स्त्री : पर क्यों नहीं पूछती ?
बड़ी लड़की : क्योंकि मुझे कहीं लगता है कि…कैसे बताऊँ, क्या लगता है? वह जितने विश्वास के साथ यह बात कहता है, उससे… मुझे अपने से एक अजीब सी चिढ़ होने लगती है। मन करता है आस-पास कि हर चीज को तोड़-फोड़ डालूँ। कुछ ऐसा कर डालूँ जिससे….
स्त्री : जिससे ?
बड़ी लड़की : जिससे उसके मन को कड़ी-से-कड़ी चोट पहुँचा सकूँ। उसे मेरे लंबे बाल अच्छे लगते हैं। इसलिए सोचती हूँ, इन्हें जा कर कटा आऊँ। वह मेरे नौकरी करने के हक में नहीं है। इसलिए चाहती हूँ कहीं भी, कोई भी छोटी-मोटी नौकरी कर लूँ। कुछ भी ऐसी बात जिससे एक बार तो वह अंदर से वह तिलमिला उठे। पर कर मैं कुछ भी नहीं पाती और जब नहीं कर पाती, तो खीज कर…
स्त्री : यहाँ चली आती है ?
बड़ी लड़की पल-भर चुप रह कर सिर हिला देती है।
बड़ी लड़की : नहीं।
स्त्री : तो ?
बड़ी लड़की : कई-कई दिनों के लिए अपने को उससे काट लेती हूँ। पर धीरे-धीरे हर चीज फिर उसी ढर्रे पर लौट आती है। सब-कुछ उसी तरह होने लगता है जब तक कि हम… जब तक कि हम नए सिरे से उसी खोह में नहीं पहुँच जाते। मैं यहाँ आती हूँ… यहाँ आती हूँ तो सिर्फ इसलिए कि…
स्त्री : तेरा अपना घर है।
बड़ी लड़की : मेरा अपना घर !…हाँ। और मैं आती हूँ कि एक बार फिर खोजने
की कोशिश कर देखूँ कि क्या चीज है वह इस घर में जिसे ले कर बार-बार मुझे हीन किया जाता है। (लगभग टूटे स्वर में) तुम बता सकती हो ममा, कि क्या चीज है वह? और कहाँ है वह ? इस घर के खिड़कियों-दरवाजों में ? छत में? दीवारों में ? तुममें ? डैडी में ? किन्नी में अशोक में ? कहाँ छिपी है वह मनहूस चीज जो वह कहता है मै इस घर से अपने अंदर ले कर गई हूँ ?
(स्त्री की दोनों बाँहें हाथ में ले कर) बताओ ममा, क्या है ? कहाँ है वह इस घर में ?
काफी लंबा वक्फा। कुछ देर बड़ी लड़की के हाथ स्त्री की बाँहों पर रुके रहते हैं। और दोनों की आँखें मिली रहती हैं। धीरे-धीरे पुरुष एक की गरदन उनकी तरफ मुड़ती है। तभी स्त्री आहिस्ता से बड़ी लड़की के हाथ अपनी बाँहों से हटा देती है। उसकी आँखें पुरुष एक से मिलती हैं और वह जैसे उससे कुछ कहने के लिए कुछ कदम उसकी तरफ बढ़ाती है। बड़ी लड़की जैसे अब भी अपने सवाल का जवाब चाहती , अपनी जगह पर रुकी उन दोनों को देखती रहती है। पुरुष एक स्त्री को अपनी ओर आते देख आँखें उधर से हटा लेता है और एक-दो पल असमंजस में रहने के बाद अनजाने में ही अखबार को गोल करके दोनों हाथो से उसकी रस्सी बटने लगता है। स्त्री आधे रास्ते में ही कुछ कहने का विचार छोड़ कर अपने को सहेजती है। फिर बड़ी लड़की के पास वापस जा कर हलके से उसके कंधे को छूती है। बड़ी लड़की पल-भर आँखें मूँदे रह कर अपने आवेग दबाने का प्रयत्न करती है ,फिर स्त्री का हाथ कंधे से हटा कर एक कुरसी का सहारा लिए उस पर बैठ जाती है। स्त्री यह समझ न आने से कि अब उसे क्या करना चाहिए, पल-भर दुविधा में हाथ उलझाए रहती है। उसकी आँखें फिर एक बार पुरुष एक से मिल जाती हैं। और वह जैसे आँखों से ही उसका तिरस्कार कर अपने को एक मोढ़े की स्थिति बदलने में व्यस्त कर लेती है। पुरुष एक अपनी जगह से उठ पड़ता है। अखबार की रस्सी अपने हाथों में देख कर अटपटा महसूस करता है। और कुछ देर अनिश्चित खड़ा रहने के बाद फिर से बैठ कर उस रस्सी के टुकड़े करने लगता है। तभी छोटी लड़की बाहर के दरवाजे से आती है और उन तीनों को उस तरह देख कर अचानक ठिठक जाती है।
छोटी लड़की : कुछ पता ही नहीं चलता यहाँ तो।
तीनों में से केवल एक ही स्त्री उसकी तरफ देखती है।
स्त्री : क्या कह रही है तू ?
छोटी लड़की : बताओ चलता है कुछ पता ? स्कूल से आई हूँ, तो तुम भी हो डैडी भी हैं, बिन्न-दी भी हैं- पर सबलोग ऐसे चुप हैं जैसे…
स्त्री : (स्त्री उसकी तरफ आती है) तू अपना बता कि आते ही चली कहाँ गई थी ?
छोटी लड़की : कहीं भी चली गई थी। घर पर था कोई जिसके पास बैठती यहाँ ? दूध गरम हुआ है मेरा ?
स्त्री : अभी हुआ जाता है।
छोटी लड़की : अभी हुआ जाता है ! स्कूल में भूख लगे तो कोई पैसा नहीं होता पास
में। और घर आने पर घंटा-घंटा दूध ही नहीं होता गरम।
स्त्री : कहा है न तुमसे, अभी गरम हुआ जाता है। (पुरुष एक से) तुम उठ रहे हो या मैं जाऊँ ?
पुरुष एक अखबार के टुकड़े को दोनों हाथों में समेटे उठ खड़ा होता है।
पुरुष एक : (कोई भी कड़वी चीज निगलने की तरह) जा रहा हूँ मैं ही…।
अखबार के टुकड़े पर इस तरह नजर डाल लेता है जैसे कि वह कोई महत्वपूर्ण दस्तावेज था जिसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।
स्त्री : (छोटी लड़की से) तू फिर एक किताब फाड़ लाई है आज ?
पुरुष एक चलते-चलते रुक जाता कि इस महत्वपूर्ण प्रकरण का भी निपटारा भी देख ही ले।
छोटी लड़की : अपने आप फट गई, तो मैं क्या करूँ ? आज सिलाई की क्लास में फिर वही हुआ मेरे साथ। मिस ने कहा….
स्त्री : तू मिस की बात बाद में करना। पहले यह बता कि..
छोटी लड़की : रोज कहती हो, बाद में करना। आज भी मुझे रीलें ला कर न दीं, तो मैं स्कूल नहीं जाऊँगी कल से। मिस ने सारी क्लास के सामने मुझसे कहा कि…
स्त्री : तू और तेरी मिस ! रोग लगा रखा है जान को !
छोटी लड़की : तो उठा लो न मुझे स्कूल से। जैसे शोकी मारा-मारा फिरता है सारा दिन, मैं भी फिरती रहा करूँगी।
बड़ी लड़की इस बीच काफी अस्थिर महसूस करती छोटी लड़की को देखती है।
बड़ी लड़की : (अपने को रोक पाने में असमर्थ) तुझे तमीज से बात करना नहीं आता ? बड़ा भाई है तेरा।
छोटी लड़की : क्यों…फिरता नहीं मारा-मारा सारा दिन ?
बड़ी लड़की : किन्नी !
छोटी लड़की : तुम यहाँ थीं, तो क्या कुछ कहा करती थीं उसके बारे में? तुम्हारा भी तो बड़ा भाई है। चाहे एक ही साल बड़ा है, है तो बड़ा ही।
बड़ी लड़की : (स्त्री से) ममा, तुमने इस लड़की की जबान बहुत खोल दी है।
पुरुष एक : अगर यही बात मैं कह दूँ ना इससे….।
स्त्री : पहले जो-जो कहना है, वह कह लो तुम। उसके बाद देख लेना अगर…
पुरुष एक : (अहाते के दरवाजे की तरफ चलता) कहना क्या है ? कहता ही नहीं कभी । मैं दूध गरम कर रहा हूँ इसका ।
दरवाजे से निकल जाता है ।
छोटी लड़की : कल मुझे रीलों का डिब्बा जरूर चाहिए और मिस बैनर्जी ने सब लड़कियों से कहा है आज कि फाऊंडर्स-डे पी. टी. के लिए तीन-तीन नए किट…
स्त्री : कितने ?
छोटी लड़की : तीन-तीन। सब लड़कियों को बनाने हैं। और तुमने कहा था क्लिप और मोजे इस हफ्ते जरूर आ जाएँगे, आ गए हैं ? कितनी शरम आती है मुझे फटे मोजे पहन कर स्कूल जाते!
पल-भर की औघड़ खामोशी।
स्त्री : (जैसे अपने को उस प्रकरण से बचाने की कोशिश में) अच्छा, देख… स्कूल से आ कर तू अपना बैग यहाँ खुला छोड़ गई थी ! मैंने आ कर बंद किया है। पहले इसे अंदर रख कर आ।
छोटी लड़की : तुमने मेरी बात सुनी है ?
स्त्री : सुन ली है।
छोटी लड़की : तो जवाब क्यों नहीं दिया कुछ? (कोने से बैग उठा कर झटके से अंदर को चलती) मै कर रही हूँ क्लिप और मोजों की बात और कह रही हैं बैग रख कर आ अंदर ।
चली जाती है। बड़ी लड़की कुरसी से उठ पड़ती है।
बड़ी लड़की : हम कह पाते थे कभी इतनी बात ? आधी बात भी कह दें इससे, तो रासें इस तरह कस दी जाती थीं कि बस !
स्त्री पल-भर अपने में डूबी खड़ी रहती है।
स्त्री : (चेष्टा से अपने को सहेज कर) क्या कहा तूने ?
बड़ी लड़की : मैंने कहा कि…(सहसा स्त्री के भाव के प्रति सचेत हो कर) तुम सोच रही थीं कुछ ?
स्त्री : नहीं…सोच नहीं रही थी (इधर-उधर नजर डालती) देख रही थी कि और कुछ समेटने को तो नहीं है। अभी कोई आनेवाला है बाहर से और….।
बड़ी लड़की : कौन आनेवाला है ?
पुरुष एक दूध के गिलास में चीनी हिलाता अहाते के दरवाजे से आता है।
पुरुष एक : सिंघानिया। इसका बॉस। वह नया आना शुरू हुआ है आजकल।
गिलास डायनिंग टेबल पर छोड़ कर बिना किसी की तरफ देखे वापस चला जाता है। स्त्री कड़ी नजर से उसे जाते देखती है। बड़ी लड़की स्त्री के पास जाती है।
बड़ी लड़की : ममा !
स्त्री की आँखें घूम कर बड़ी लड़की के चेहरे पर अस्थिर होती हैं। कह कुछ नहीं पाती।
: क्या बात है, ममा !
स्त्री : कुछ नहीं।
बड़ी लड़की : फिर भी ?
स्त्री : कहा है ना, कुछ नहीं।
वहाँ से हट कर कबर्ड के पास चली जाती है और उसे खोल कर अंदर से कोई चीज ढूँढ़ने लगती है।
बड़ी लड़की : (उसके पीछे जा कर) ममा !
स्त्री कोई उत्तर न दे कर कबर्ड में से एक मेजपोश निकाल लेती और कबर्ड बंद कर देती है।
: तुम तो आदी हो रोज-रोज ऐसी बातें सुनने की। कब तक इन्हें मन पर लाती रहोगी ?
स्त्री उसका वाक्य पूरा होने तक रुकी रहती है फिर जाकर तिपाई का मेजपोश बदलने लगती है।
: (उसकी तरफ आती) एक तुम्हीं करनेवाली हो सब-कुछ इस घर में। अगर तुम्हीं….
स्त्री के बदलते भाव को देख कर बीच में ही रुक जाती है। स्त्री पुराने मेजपोश को हाथों में लिए एक नजर उसे देखती है , फिर उमड़ते आवेग को रोकने की कोशिश में चेहरा मेजपोश से ढँक लेती है।
: (काफी धीमे स्वर में) ममा !
स्त्री आहिस्ता से मोढ़े पर बैठती हुई मेजपोश चेहरे से हटाती है।
स्त्री : (रुलाई लिए स्वर में) अब मुझसे नहीं होता, बिन्नी। अब मुझसे नहीं सँभलता।
पुरुष एक अहाते के दरवाजे से आता है-दो जले टोस्ट एक प्लेट में लिए। स्त्री के शब्द उसके कानो में पड़ते हैं, पर वह जानबूझ कर अपने चेहरे से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं होने देता। प्लेट दूध के गिलास के पास छोड़ कर किताबों के शेल्फ की तरफ चला जाता है और उसके निचले हिस्से में रखी फाइलों में से जैसे कोई खास फाइल ढूँढ़ने लगता है। बड़ी लड़की बात करने से पहले पल भर को वक्फा ले कर उसे देखती है।
बड़ी लड़की : (विशेष रूप से उसी को सुनाती , स्त्री से) जो तुमसे नहीं सँभलता, वह और किससे सँभल सकता है इस घर में… जान सकती हूँ ?
पुरुष एक जैसे फाइल की धूल झाड़ने के लिए उसे दो-एक जोर के हाथ लगा कर पीट देता है।
: जब से बड़ी हुई हूँ तभी से देख रही हूँ। तुम सब-कुछ सह कर भी रात-दिन अपने को इस घर के लिए हलाक करती रही हो और…
पुरुष एक अब एक और फाइल को उससे भी तेज और ज्यादा बार पीट देता है
स्त्री : पर हुआ क्या है उससे?
न सह पाने की नजर से पुरुष एक की तरफ देख कर मोढ़े से उठ पड़ती है। पुरुष एक दोनों फाइलों को जोर-जोर आपस में से टकराता है।
: (एकाएक पुरुष एक की थप-थप से उतावली पड़ कर) तुम्हें सारे घर में यह धूल इसी वक्त फैलानी है क्या ?
पुरुष एक : जुनेजा की फाइल ढूँढ़ रहा था। नहीं ढूँढ़ता।
जैसे-तैसे फाइलों को उसकी जगह में वापस ठूँसने लगता है। छोटी लड़की पाँव पटकती अंदर से आती है।
छोटी लड़की : देख लो ममा, यह मुझे फिर तंग कर रहा है।
बड़ी लड़की : (लगभग डाँटती) तू चिल्ला क्यों रही है इतना ?
छोटी लड़की : चिल्ला रही हूँ क्योंकि शोकी अंदर मुझे…
बड़ी लड़की : शोकी-शोकी क्या होता है ? तू अशोक भापाजी नहीं कह सकती ?
छोटी लड़की : अशोक भापाजी ?… वह ?
व्यंग्य के साथ हँसती है।
स्त्री : अशोक अंदर क्या कर रहा है इस वक्त ? मैं सोचती थी कि वह…
छोटी लड़की : पड़ा सो रहा था अब तक। मैंने जा कर जगा दिया, तो लगा मेरे बाल खींचने।
लड़का अंदर से आता है। लगता है , दो-तीन दिन से उसने शेव नहीं की।
लड़का : कौन सो रहा था ? मैं ? बिलकुल झूठ।
बड़ी लड़की : शेव करना छोड़ दिया है क्या तूने ?
लड़का : (अपने चेहरे को छूता) फ्रेंचकट रखने की सोच रहा हूँ। कैसी लगेगी मेरे चेहरे पर ?
छोटी लड़की : (उतावली पकड़ कर) मेरी बात सुनी नहीं किसी ने। अंदर मेरे बाल खींच रहा था और बाहर आ कर अपनी फ्रेंचकट बता रहा है।
डायनिंग टेबल से दूध का गिलास ले कर गटगट दूध पी जाती है। पुरुष एक इस बीच शेल्फ और फाइलों से उलझा रहता है। एक फाइल को किसी तरह अंदर समाता है तो कुछ और फाइलें बाहर को गिर आती है , उन्हें सँभालता है, तो पहले की फाइलें पीछे गिर जाती हैं।
स्त्री : (लड़के के पास आती) तुमसे एक बात पूछूँ ?
लड़का : पूछो ।
स्त्री : इस लड़की की क्या उम्र है ?
लड़का : यही तो मै तुमसे पूछना चाहता हूँ कि बारह साल की उम्र में यह लड़की… ?
बड़ी लड़की : तेरह साल की उम्र में।
स्त्री : तेरह साल की लड़की कितनी बड़ी होती है?
स्त्री : तेरह साल की लड़की तेरह साल बड़ी होती है और तेरह साल
बड़ी ही होनी चाहिए उसे, जबकि यह लड़की….
स्त्री : बच्ची नहीं है अब जो तू इसके बाल खींचता रहे।
छोटी लड़की लड़के की तरफ जबान निकालती है। पुरुष एक फाइलों को किसी तरह समेट कर उठ पड़ता है।
लड़का : तब तो सचमुच मुझे गलती माननी चाहिए।
स्त्री : जरूर माननी चाहिए… ।
लड़का : कि मैंने खामखाह इसके हाथ से वह किताब छीन ली।
पुरुष एक : (अपनी तटस्थता बनाए रखने में असमर्थ , आगे आता) कौन- सी किताब ?
छोटी लड़की : झूठ बोल रहा है। मैंने कोई किताब नहीं ली इसकी।
टोस्टों वाली प्लेट हाथ में लिए मेज पर बैठ जाती है।
पुरुष एक : (लड़की के पास पहुँच कर) कौन-सी किताब ?
लड़का : (बुशर्ट के अंदर से किताब निकाल कर दिखाता) यह किताब।
छोटी लड़की : झूठ, बिलकुल झूठ। मैंने देखी भी नहीं यह किताब।
लड़का : (आँखे फाड़ कर उसे देखता) नहीं देखी ?
छोटी लड़की : (कमजोर पड़ कर ढीठपन के साथ) तू तकिए के नीचे रख कर सोए, तो भी नहीं। मैंने जरा निकाल कर देख देख-भर ली, तो…।
पुरुष एक : (हाथ बढ़ा कर) मैं देख सकता हूँ ?
लड़का : (किताब वापस बुशर्ट में रखता) नहीं…आपके देखने की नहीं है। (स्त्री से) अब फिर पूछो मुझसे कि इसकी उम्र कितने साल है ?
बड़ी लड़की : क्यों अशोक… यह वही किताब है न कैसानोवा… ?
पुरुष : (ऊँचे स्वर में) ठहरो (बारी-बारी से उन सबकी ओर देखता) पहले मैं यह जान सकता हूँ यहाँ किसी से कि मेरी उम्र कितने साल की है ?
कुछ पलों का व्यवधान , जिसमें सिर्फ छोटी लड़की की मुँह और टाँगें चलती रहती हैं ।
स्त्री : ऐसी क्या बात कह दी किसी ने कि…
पुरुष : (एक-एक शब्द पर जोर देता) मैं पूछ रहा हूँ कि मेरी उम्र कितने साल की है ? कितने साल है मेरी उम्र ?
स्त्री : (उठ रही स्थिति के लिए तैयार हो कर) यह तुम्हें पूछ कर जानना है क्या ?
पुरुष एक : हाँ, पूछ कर ही जानना है आज। कितने साल हो चुके हैं मुझे जिंदगी का भार ढोते ? उनमें से कितने साल बीते हैं मेरे परिवार की देख-रेख करते ? और उस सबके बाद मैं आज पहुँचा कहाँ हूँ ? यहाँ कि जिसे देखो वही मुझसे उलटे ढंग से बात करता है ? जिसे देखो, वही मुझसे बदतमीजी से पेश आता है ?
लड़का : (अपनी सफाई देने की कोशिश में) मैंने तो सिर्फ इसलिए कहा था, डैडी, कि…
पुरुष एक : हर-एक के पास एक-न-एक वजह होती है। इसने इसलिए कहा था। उसने उसलिए कहा था। मैं जानना चाहता हूँ कि मेरी क्या यही हैसियत है इस घर में कि जो जब जिस वजह से जो भी कह दे मैं चुपचाप सुन लिया करूँ ? हर वक्त की दुत्कार, हर वक्त की कोंच, बस यही कमाई है यहाँ मेरी इतने सालों की…
स्त्री : (वितृष्णा से उसे देखती) यह सब किसे सुना रहे हो तुम ?
पुरुष एक : किसे सुना सकता हूँ ? कोई है जो सुन सकता है ? जिन्हें सुनना चाहिए, वे सब तो एक रबड़-स्टैंप के सिवा कुछ समझते ही नहीं मुझे। सिर्फ जरूरत पड़ने पर इस स्टैंप का ठप्पा लगा कर…
स्त्री : यह बहुत बड़ी बात नहीं कह रहे तुम ?
लड़का : (उसे रोकने की कोशिश में) ममा…!
स्त्री : मुझे सिर्फ इतना पूछ लेने दे इनसे कि रबड़-स्टैंप के माने क्या होते हैं? एक अधिकार, एक रुतबा, एक इज्जत यही न ?
लड़का : (फिर उसी कोशिश में) सुनो तो सही, ममा… !
स्त्री : (बिना किसी तरफ ध्यान दिए) यह सब कब-कब मिला है इनसे किसी को भी इस घर में ? किस माने में ये कहते है कि….?
पुरुष-एक : किसी माने में नहीं । मैं इस घर मेँ एक रबड़-स्टैंप भी नहीं, सिर्फ एक रबड़ का टुकड़ा हूँ–बार-बार घिसा जानेवाला रबड़ का टुकड़ा। इसके बाद क्या कोई मुझे वजह बता सकता है, एक भी ऐसी वजह, कि क्यों मुझे रहना चाहिए इस घर में?
सब लोग चुप रहते हैं।
: नहीं बता सकता न ?
स्त्री : मैंने एक छोटी-सी बात पूछी है तुमसे…
पुरुष एक : (सिर हिलाता) हाँ…छोटी-सी बात ही तो है यह। अधिकार, रुतबा, इज्जत – यह सब बाहर के लोगों से मिल सकता है इस घर को। इस घर का आज तक कुछ बना है, या आगे बन सकता है, तो सिर्फ बाहर के लोगों के भरोसे। मेरे भरोसे तो सब-कुछ बिगड़ता आया है और आगे बिगड़-ही-बिगड़ सकता है। (लड़के की तरफ इशारा करके) यह आज तक बेकार क्यों घूम रहा है ? मेरी वजह से। (बड़ी लड़की की तरफ इशारा करके) यह बिना बताए एक रात घर से क्यों भाग गई थी ? मेरी वजह से। (स्त्री के बिलकुल सामने आ कर) और तुम भी…तुम भी इतने सालों से क्यों चाहती रही हो कि… ?
स्त्री : (बौखला कर , शेष तीनों से) सुन रहे हो तुम लोग ?
पुरुष एक : अपनी जिंदगी चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ। इन सबकी जिंदगियाँ चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ। फिर भी मैं इस घर से चिपका हूँ क्योंकि अंदर से मैं आराम-तलब हूँ, घरघुसरा हूँ, मेरी हड्डियों में जंग लगा है।
स्त्री : मैं नहीं जानती, तुम सचमुच ऐसा महसूस करते हो या.. ?
पुरुष : सचमुच महसूस करता हूँ। मुझे पता है, मैं एक कीड़ा हूँ जिसने अंदर-ही-अंदर इस घर को खा लिया है (बाहर के दरवाजे की तरफ चलता) पर अब पेट भर गया है मेरा। हमेशा के लिए भर गया है (दरवाजे के पास रुक कर) और बचा भी क्या है जिसे खाने के लिए और रहता रहूँ यहाँ ?
चला जाता है। कुछ देर के लिए सब लोग जड़-से हो रहते हैं। फिर छोटी लड़की हाथ के टोस्ट को मुँह की ओर ले जाती है।
बड़ी लड़की : तुम्हारा खयाल है, ममा…?
स्त्री : लौट आएँगे रात तक। हर शुक्र-शनीचर यही सब होता है यहाँ।
छोटी लड़की : (जूठे टोस्ट को प्लेट में वापस पटकती है) थू:-थू:।
बड़ी लड़की : (काफी गुस्से के साथ) तुझे क्या हो रहा है वहाँ ?
छोटी लड़की : मुझे क्या हो रहा है यहाँ ? यह टोस्ट है, कोयला है ?
स्त्री : (दाँत भींचे) तू इधर आएगी एक मिनट ?
छोटी लड़की : नहीं आऊँगी।
बड़ी लड़की : नहीं आएगी ?
छोटी लड़की : नहीं आऊँगी। (सहसा उठ कर बाहर को चलती) अंदर जाओ, तो बाल खींचे जाते हैं। बाहर आओ, तो किटपिट-किटपिट-किटपिट और खाने को कोयला – अब उधर आ कर इनके तमाचे और खाने हैं।
चली जाती है।
लड़का : (उसके पीछे जाने को हो कर) मैं देखता हूँ इसे कम-से-कम लड़की को तो मुझे…
दरवाजे के पास पहुँचता ही है कि पीछे से स्त्री आवाज दे कर उसे रोक लेती है।
स्त्री : सुन।
लड़का : (किसी तरह निकल जाने की कोशिश में) पहले मैं जा कर इसे…
स्त्री : (काफी सख्त स्वर में) पहले तू आ कर यहाँ… बात सुन मेरी।
लड़का किसी जरूरी काम पर जाने से रोक लिए जाने की मुद्रा में लौट कर स्त्री के पास आ जाता है।
लड़का : बताओ।
स्त्री : कम-से-कम तुझे इस वक्त कहीं नहीं जाना है। वह आज फिर आनेवाला है थोड़ी देर में और…
लड़का : (‘मुझे क्या, कोई आनेवाला है तो ?’ की मुद्रा में) कौन आनेवाला है?
बड़ी लड़की : ममा का बॉस…क्या नाम है उसका ?
लड़का : अच्छा, वह… आदमी !
बड़ी लड़की : तू मिला है उससे ?
लड़का : दो बार।
बड़ी लड़की : कहाँ ?
लड़का : इसी घर में।
स्त्री : (बड़ी लड़की से) दोनों बार के लिए बुलाया था मैंने उसे, आज भी इसी की खातिर?
लड़का : (कुछ तीखा पड़ कर) मेरी खातिर ? मुझे क्या लेना-देना है उससे ?
बड़ी लड़की : ममा उसके जरिए तेरी नौकरी के लिए कोशिश कर रही होंगी न… ।
लड़का : मुझे नहीं चाहिए नौकरी। कम-से-कम उस आदमी के जरिए हरगिज नहीं।
बड़ी लड़की : क्यों, उस आदमी को क्या है ?
लड़का : चुकंदर है। वह आदमी है जिसे बैठने का शऊर है, न बात करने का।
स्त्री : पाँच हजार तनख्वाह है उसकी। पूरा दफ्तर सँभलता है।
लड़का : पाँच हजार तनख्वाह है, पूरा दफ्तर सँभलता है, पर इतना होश नहीं है कि अपनी पतलून के बटन…
स्त्री : अशोक !
लड़का : तुम्हारा बॉस न होता, तो उस दिन मैं कान से पकड़ कर घर से निकाल दिया होता। सोफे पे टाँग पसारे आप सोच कुछ रहे हैं, जाँघ खुजलाते देख किसी तरफ रहे है और बात मुझसे कर रहे हैं… (नकल उतारता) ‘अच्छा, यह बतलाइए कि आपके राजनीतिक विचार क्या हैं?’ राजनीतिक विचार हैं मेरी खुजली और उसकी मरहम !
स्त्री : (अपना माथा सहला कर बड़ी लड़की से) ये लोग हैं जिनके लिए मैं जानमारी करती हूँ रात-दिन।
लड़का : पहले पाँच सेकंड आदमी की आँखों में देखता रहेगा फिर होंठों के दाहिने कोनो से जरा-सा मुस्कुराएगा। फिर एक-एक लफ्ज को चबाता हुआ पूछेगा… (उसके स्वर में) ‘आप क्या सोचते हैं, आजकल युवा लोगों में इतनी अराजकता क्यों है?’ ढूँढ़-ढूँढ़ कर सरकारी हिंदी के लफ्ज लाता है-युवा लोगों में ! अराजकता !
स्त्री : तो फिर ?
लड़का : तो फिर क्या ?
स्त्री : तो फिर क्या मरजी है तेरी ?
लड़का : किस चीज को ले कर ?
स्त्री : अपने-आपको।
लड़का : मुझे क्या हुआ ?
स्त्री : जिंदगी में तुझे भी कुछ करना-धरना है या बाप ही की तरह…?
लड़का : (फिर तीखा पकड़ कर) हर बात में खामखाह उनका जिक्र क्यों बीच में लाती हो ?
स्त्री : पढ़ाई थी, तो तूने पूरी नहीं की। एयर-फ्रिज में नौकरी दिलवाई थी, तो वहाँ से छह हफ्ते बाद छोड़ कर चला आया। अब मैं नए सिरे से कोशिश करना चाहती हूँ तो…
लड़का : पर क्यों करना चाहती हो ? मैंने कहा है तुमसे कोशिश करने के लिए ?
बड़ी लड़की : तो तेरा मतलब है कि तू…जिंदगी-भर कुछ भी नहीं करना चाहता?
लड़का : ऐसा कहा है मैंने ?
बड़ी लड़की : तो नौकरी के सिवा ऐसा क्या है जो तू….?
लड़का : यह मैं नहीं कह सकता। सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि जिस चीज में मेरी अंदर से दिलचस्पी नहीं है…।
स्त्री : दिलचस्पी तो तेरी…।
बड़ी लड़की : ठहरो ममा… !
स्त्री : तू ठहर, मुझे बात करने दे। (लड़के से) दिलचस्पी तो तेरी सिर्फ तीन चीजों में है- दिन-भर ऊँघने में, तस्वीरे काटने में और…घर की यह चीज वह चीज ले जा कर….
लड़का : (कड़वी नजर से उसे देखता) इसे घर कहती हो तुम ?
स्त्री : तो तू इसे क्या समझ कर रहता है यहाँ ?
लड़का : मैं इसे…
बड़ी लड़की : (उसे बोलने न देने के लिए) देख अशोक, ममा के यह सब कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि…
लड़का : मैं नहीं जानता मतलब ? तू चली गई है यहाँ से, मैं तो अभी यहीं रहता हूँ।
स्त्री : (हताश भाव से) तो क्यों नहीं तू भी फिर… ?
बड़ी लड़की : (झिड़कने के स्वर में) कैसी बात कर रही हो, ममा !
स्त्री : कैसी बात कर रही हूँ ? यहाँ पर सब लोग समझते क्या हैं मुझे ? एक मशीन, जोकि सबके लिए आटा पीस कर रात को दिन और दिन को रात करती रहती है? मगर किसी के मन में जरा- सा भी खयाल नहीं है इस चीज के लिए कि कैसे मैं.. ।
इस बीच ही बाहर के दरवाजे पर पुरुष दो की आकृति दिखाई देती है जो किवाड़ को हलके से खटखटा देता है। स्त्री चौंक कर उधर देखती है और अपनी अधकही बात को बीच में ही चबा जाती है।
:(स्वर को किसी तरह सँभालती) आप?.. आ गए हैं आप ? …आइए-आइए अंदर।
बड़ी लड़की : (दायित्वपूर्ण ढंग से दरवाजे की तरफ बढ़ती) आइए।
पुरुष दो अभ्यस्त मुद्रा में उनके अभिवादन का उत्तर देता अंदर आ जाता है।
स्त्री : यह मेरी बड़ी लड़की बिन्नी। अशोक तो आपसे मिल ही चुका है।
पुरुष दो : अच्छा-अच्छा यही है वह लड़की। तुम चर्चा कर रही थीं इसकी। इसका ऑपरेशन हुआ था न पिछले साल…न-न-न न। वह तो मिसेज माथुर की लड़की का ? नहीं शायद…पर हुआ था किसी की लड़की का।
स्त्री : यहाँ आ जाइए सोफे पर !
सोफे की तरफ बढ़ते हुए पुरुष दो की आँखें लड़के से मिल जाती हैं। लड़का चलते ढंग से उसे हाथ जोड़ देता है। पुरुष दो फिर उसी अभ्यस्त ढंग से उत्तर देता है।
पुरुष दो : (बैठता हुआ) इतने लोगों से मिलना-जुलना होता है कि…(अपनी घड़ी देख कर) पाँच मिनट हैं सात में। उनका अनुरोध था, सात तक अवश्य पहुँच जाऊँ। कई लोगों को बुला रखा है उन्होंने – विशेष रूप से मिलने के लिए (बड़ी लड़की को ध्यान से देखता, स्त्री से) तुमने बताया था कुछ इसके विषय में। किस कॉलेज में है यह?
स्त्री : अब कॉलेज में नहीं है…
पुरुष दो : हाँ-हाँ-हाँ…बताया था तुमने। (बड़ी लड़की से) बैठो न। (स्त्री से) बैठो तुम भी।
स्त्री सोफे के पास कुरसी पर बैठ जाती है। बड़ी लड़की कुछ दुविधा में खड़ी रहती है।
स्त्री : बैठ जा, खड़ी क्यों है ?
बड़ी लड़की : ये जल्दी चले जाएँगे, सोच रही थी चाय का पानी… ।
पुरुष दो : नहीं-नहीं, चाये-वाय नहीं इस समय। वैसे भी बहुत कम पीता हूँ। एक लेख था कहीं रिजर्ड डाइजेस्ट में था?… कि अधिक चाय पीने से (जाँघ खुजलाता) रीडर्स डाइजेस्ट भी क्या चीज निकालते हैं ! अपने यहाँ तो बस ये कहानियाँ वो कहानियाँ, कोई अच्छी पत्रिका मिलती ही नहीं देखने को। एक अमेरिकन आया हुआ था पिछले दिनों। बता रहा था कि…
लड़का जो इतनी देर परे खड़ा रहता है , अब बढ़ कर उनके पास आ जाता हैं।
लड़का : (स्त्री से) ऐसा है ममा, कि...
स्त्री : रुक अभी। (पुरुष दो से) एक प्याली भी नहीं लेंगे ?
पुरुष दो : ना, बिलकुल नहीं।…अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं कंपनी के, सो सभी देशों के लोग मिलने आते रहते हैं। जापान से तो पूरा प्रतिनिधि-मंडल ही आया हुआ था पिछले दिनों…। कुछ भी कहिए, जापान ने सबकी नाक में नकेल कर रखी है आजकल। अभी उस दिन मैं जापान की पिछले वर्ष की औद्योगिक सांख्यकी देख रहा था… ।
लड़का : मैं क्षमा चाहूँगा क्योंकि…
स्त्री : तुमसे कहा है, रुक अभी थोड़ी देर। (पुरुष दो से) आप कॉफी पसंद करते हों, तो…
पुरुष दो : न चाय, न कॉफी। एक घटना सुनाऊँ आपको, कॉफी पीने के संबंध में। आज की बात नहीं, बहुत साल पहले की है। तब की जब मैं विश्वविद्यालय की साहित्य-सभा का मंत्री था। (मन में उस बात का रस लेता) हैं-हैं-ह-हैं-हाँ-हैं।…साहित्यिक गतिविधियों में रुचि आरंभ से ही थी। सो… (बड़ी लड़की और लड़के से) बैठ जाओ तुम लोग।
बड़ी लड़की बैठ जाती है।
लड़का : बात यह है कि…
स्त्री : (उठती हुई) ! मैं थोड़ा नमकीन ले कर आ रही हूँ।
लड़के को बैठने के लिए कोंच कर अहाते के दरवाजे से चली जाती है। लड़का असंतुष्ट भाव से उसे देखता है , फिर टहेलता हुआ पढ़ने की मेज के पास चला जाता है। बड़ी लड़की से आँख मिलने पर हलके से मुँह बनाता है और कुरसी का रुख थोड़ा सोफे की तरफ करके बैठ जाता है।
पुरुष दो : (बड़ी लड़की से) तुम्हें पहले कहीं देखा है… नहीं देखा ?
बड़ी लड़की : मुझे ?…आपने ?
पुरुष दो : किसी इंटरव्यू में ?
बड़ी लड़की : नहीं तो।
पुरुष दो : फिर भी लगता है देखा है।…कोई और होगी। बिलकुल तुम्हारे जैसी थी। विचित्र बात नहीं है यह ?
बड़ी लड़की : क्या ?
पुरुष दो : कि बहुत-से लोग एक-दूसरे जैसे होते हैं। हमारे अंकल हैं एक। पीठ से देखो – मोरारजी भाई लगते हैं।
लड़का इस बीच मेज की दराज खोल कर तस्वीरें निकाल लेता है और उन्हें मेज पर फैलाने लगता है।
लड़का : हमारी आंटी हैं एक। गरदन काट कर देखो – जीता लोलोब्रिजिदा नजर आती हैं।
पुरुष दो : हाँ !…कई लोग होते हैं ऐसे। जीवन की विचित्रताओं की ओर ध्यान देने लगें, तो कई बार तो लगता है कि… (सहसा जेबें टटोलता) भूल तो नहीं आया घर पर ?(जेब से चश्मा निकाल कर वापस रखता) नहीं। तो मैं कह रहा था कि…क्या कह रहा था ?
बड़ी लड़की : कि जीवन की विचित्रताओं की ओर ध्यान देने लगें, तो…
लड़का : जापान की औद्योगिक… क्या थी वह ? उसकी बात नहीं कर रहे थे ?
स्त्री इस बीच नमकीन की प्लेट लिए अहाते के दरवाजे से आ जाती है।
स्त्री : कोई घटना सुना रहे थे कॉफी पीने के संबंध में।
पुरुष दो : हाँ…तो…तो…तो वह…वह जो…।
स्त्री : लीजिए थोड़ा-सा।
पुरुष दो : हाँ-हाँ… जरूर (बड़ी लड़की से) लो तुम भी (स्त्री से) बैठ जाओ अब।
स्त्री : (मोढ़े पर बैठती) उस विषय में सोचा आपने कुछ ?
पुरुष दो : (मुँह चलाता) किस विषय में ?
स्त्री : वह जो मैंने बात की थी आपसे…कि कोई ठीक-सी जगह हो आपकी नजर में, तो…
पुरुष दो : बहुत स्वादिष्ट है।
स्त्री : याद है न आपको ?
पुरुष दो : याद है। कुछ बात कि थी तुमने एक बार। अपनी किसी कजिन के लिए कहा था…नहीं वह तो मिसेज मल्होत्रा ने कहा था। तुमने किसके लिए कहा था ?
स्त्री : (लड़के की तरफ देखती) इसके लिए।
पुरुष दो घूम कर लड़के की तरफ देखता है , तो लड़का एक बनावटी मुस्कुराहट मुस्कुरा देता है।
पुरुष दो : हूँ-हूँ… । क्या पास किया है इसने ? बी॰ कॉम॰ ?
स्त्री : मैंने बताया था। बी॰ एससी॰ कर रहा था… तीसरे साल में बीमार हो गया इसलिए…
पुरुष दो : अच्छा-अच्छा…हाँ…बताया था तुमने कि कुछ दिन एयर इंडिया में…
स्त्री : एयर-फ्रिज में
पुरुष दो : हाँ, एयर-फ्रिज में।…हूँ-हूँ…हूँ।
फिर घूम कर लड़के की ओर की तरफ देख लेता है। लड़का फिर उसी तरह मुस्कुरा देता है।
: इधर आ जाइए आप। वहाँ दूर क्यों बैठे हैं ?
लड़का : (अपनी नाक की तरफ इशारा करता) जी, मुझे जरा…
पुरुष दो : अच्छा-अच्छा देश का जलवायु ही ऐसा है, क्या किया जाए? जलवायु की दृष्टि से जो देश मुझे सबसे पसंद है, वह है इटली। पिछले वर्ष काफी यात्रा पर रहना पड़ा। पूरा यूरोप घूमा, पर जो बात मुझे इटली में मिली, वह और किसी देश में नहीं। इटली की सबसे बड़ी विशेषता पता है, क्या है ?…बहुत ही स्वादिस्ट है। कहाँ से लाती हो ? (घड़ी देख कर)सात पाँच यहीं हो गए। तो…
स्त्री : यहीं कोने पर एक दुकान है।
पुरुष दो : अच्छी दुकान है। मैं प्रायः कहा करता हूँ कि खाना और पहनना, इन दो दृष्टियों से… वह अमरीकन भी यही बात कह रहा था कि जितनी विविधता इस देश के खान-पान और पहनावे में है…और वही क्या, सभी विदेशी लोग इस बात को स्वीकार करते हैं। क्या रूसी, क्या जर्मन ! मैं कहता हूँ, संसार में शीत युद्ध को कम करने में हमारी कुछ वास्तविक देन है, तो यही कि…तुम अपनी इस साड़ी को ही लो। कितनी साधारण है, फिर भी…यह हड़तालों-हड़तालों का चक्कर न चलता अपने यहाँ, तो हमारा वस्त्र उद्योग अब तक…अच्छा, तुमने वह नोटिस देखा है जो यूनियन ने मैनेजमेंट को दिया है ?
स्त्री ‘हाँ‘ के लिए सिर हिला देती है।
: कितनी बेतुकी बातें हैं उसमें !हमारे यहाँ डी॰ए॰ पहले ही इतना है कि…
लड़का दराज से एक पैड निकाल कर दराज बंद करता है। पुरुष दो फिर घूम कर उस तरफ देख लेता है। लड़का फिर मुस्कुरा देता है। पुरुष दो के मुँह मोड़ने के साथ ही वह पैड पर पेंसिल से लकीरें खींचने लगता है।
: तो मैं कह रहा था कि…क्या कह रहा था ?
स्त्री : कह रहे थे… ।
बड़ी लड़की : कई बातें कह रहे थे।
पुरुष दो : पर बात शुरू कहाँ से की थी मैंने ?
लड़का : इटली की सबसे बड़ी विशेषता से।
पुरुष : हाँ, पर उसके बाद… ?
लड़का : खान-पान और पहनावे की विविधता…अमरीकन, जर्मन, रूसी… शीत-युद्ध, हड़तालें…वस्त्र-उद्योग…डी॰ए॰।
पुरुष दो : बहुत अच्छी स्मरण शक्ति है लड़के की। तो कहने का मतलब था कि…
स्त्री : थोड़ा और लीजिए।
पुरुष दो : और नहीं अब।
स्त्री : थोड़ा-सा…देखिए, जैसे भी हो, इसके लिए आपको कुछ-न-कुछ जरूर करना है ?
पुरुष दो : जरूर…। किसके लिए क्या करना है ?
स्त्री : (लड़के की तरफ देख कर) इसके लिए कुछ-न-कुछ।
पुरुष दो : हाँ-हाँ… जरूर। वह तो है ही। (लड़के की तरफ मुड़ कर) बी॰एससी॰ में कौन-सा डिवीजन था आपका ?
लड़का उँगली से हाथ में सिफर खींच देता है।
: कौन-सा ?
लड़का : (तीन चार बार उँगली घुमा कर) ओ !
पुरुष दो : (जैसे बात समझ कर) ओ !
स्त्री : तीसरे साल में बीमार हो गया था, इसलिए…
पुरुष दो : अच्छा-अच्छा…हाँ।…ठीक हैं…देखूँगा मैं। (घड़ी देख कर) अब चलना चाहिए। बहुत समय हो गया है। (उठता हुआ) तुम घर पर आओ किसी दिन। बहुत दिनों से नहीं आई।
स्त्री और बड़ी लड़की साथ ही उठ खड़ी होती हैं।
स्त्री : मैं भी सोच रही थी आने के लिए। बेबी से मिलने।
पुरुष दो : वह पूछती रहती है, आंटी इतने दिनों से क्यों नहीं आई ? बहुत प्यार करती है अपनी आंटियों से। माँ के न होने से बेचारी…।
स्त्री : बहुत ही प्यारी बच्ची है। मैं पूछ लूँगी किसी दिन आपसे। इससे भी कह दूँ, आ कर मिल ले आप से एक बार।
पुरुष दो : (बड़ी लड़की को देखता) किससे ? इससे ?
स्त्री : अशोक से।
पुरुष दो : हाँ-हाँ…क्यों नहीं। पर तुम तो आओगी ही। तुम्हीं को बता दूँगा।
स्त्री : ये जा रहे हैं, अशोक !
लड़का : (जैसे पहले पता न चला हो) जा रहे हैं आप !
उठ कर पास आ जाता है।
पुरुष दो : (घड़ी देखता) सोचा नहीं था, इतनी देर रुकूँगा।(बाहर से दरवाजे की तरफ बढ़ता बड़ी लड़की से) तुम नहीं करती नौकरी ?
बड़ी लड़की : जी नहीं।
स्त्री : चाहती है करना, पर…(बड़ी लड़की से) चाहती है न ?
बड़ी लड़की : हाँ…नहीं…ऐसा है कि…।
स्त्री : डरती है।
पुरुष दो : डरती है ?
स्त्री : अपने पति से।
पुरुष दो : पति से ?
स्त्री : हाँ…उसे पसंद नहीं है।
पुरुष दो : यह लड़की ?
स्त्री : नहीं, इसका नौकरी करना।
पुरुष दो : अच्छा-अच्छा…हाँ…।
स्त्री : तो आपको ध्यान रहेगा न इसके लिए…?
पुरुष दो : इसके लिए ?
स्त्री : मेरा मतलब है उसके लिए…।
पुरुष दो : हाँ-हाँ-हाँ-हाँ-हाँ…तुम आओगी ही घर पर। दफ्तर की भी कुछ बातें करनीं हैं। वही जो यूनियन-ऊनीयन का झगड़ा है।
स्त्री : मैं तो आऊँगी ही। यह भी अगर मिल ले…?
पुरुष दो : (घड़ी देख कर) बहुत देर हो गई। (लड़के से) अच्छा, एक बात बताएँगे आप कि ये जो हड़तालें हो रही हैं सब क्षेत्रों में आजकल, इनके विषय में आप क्या सोचते हैं ?
लड़का ऐसे उचक जाता है जैसे कोई कीड़ा पतलून के अंदर चला आया हो।
लड़का : ओह ! ओह ! ओह !
जैसे बाहर से कीड़ा पकड़ने की कोशिश करने लगता है।
बड़ी लड़की : क्या हुआ ?
स्त्री : (कुछ खीज के साथ) उन्होंने क्या पूछा है ?
लड़का : (बड़ी लड़की से) हुआ कुछ नहीं…कीड़ा है एक।
बड़ी लड़की : कीड़ा ?
पुरुष दो : अपने देश में तो…।
लड़का : पकड़ा गया।
पुरुष दो : …इतनी तरह का कीड़ा पाया जाता है कि…
लड़का : मसल दिया ।
पुरुष दो : मसल दिया ? शिव-शिव-शिव ! यह हिंसा की भावना…
स्त्री : बहुत है इसमें। कोई कीड़ा हाथ लग जाए सही।
लड़का : और कीड़ा चाहे जितनी हिंसा करता रहे ?
पुरुष दो : मूल्यों का प्रश्न है। मैं प्रायः कहा करता हूँ…बैठो तुम लोग।
स्त्री : मैं सड़क तक चल रही हूँ साथ।
पुरुष दो : इस देश में नैतिक मूल्यों के उत्थान के लिए…तुमने भाषण सुना है…वे जो आए हुए हैं आजकल, क्या नाम है उनका?
लड़का : निरोध महर्षि ?
पुरुष दो : हाँ-हाँ-हाँ…यही नाम है न ? इतना अच्छा भाषण देते हैं…जन्म-कुंडली भी बनाते हैं… वैसे आप भाषण? वाह-वाह-वाह !
अंतिम शब्दों के साथ दरवाजा लाँघ जाता है। स्त्री भी साथ ही बाहर चली जाती है।
लड़का : हाहा !
बड़ी लड़की : यह किस बात पर ?
लड़का : एक्टिंग देखा ?
बड़ी लड़की : किसका ?
लड़का : मेरा।
बड़ी लड़की : तो क्या तू…?
लड़का : उल्लू बना रहा था उसे।
बड़ी लड़की : पता नहीं, असल में कौन उल्लू बना रहा था।
लड़का : क्यों ?
ब ड़ी लड़की : उसे तो फिर भी पाँच हजार तनखाह मिल जाती है।
लड़का : चेहरा देखा है पाँच हजार तनखाहवाले का ?
पैड पर बनाया गया खाका ला कर उसे दिखाता है।
बड़ी लड़की : यह उसका चेहरा है।
लड़का : नहीं है ?
बड़ी लड़की : सिर पर क्या है यह ?
लड़का : सींग बनाए थे, काट दिए। कहते हैं…सींग नहीं होते।
बड़ी लड़की पैड उसके हाथ से ले कर देखती है। स्त्री लौट कर आती है।
स्त्री : तू एक मिनट जाएगा बाहर।
लड़का : क्यों ?
स्त्री : गाड़ी चल नहीं रही उनकी ?
लड़का : क्या हुआ ?
स्त्री : बैटरी डाउन हो गई है। धक्का लगाना पड़ेगा।
लड़का : अभी से ? अभी तो नौकरी की बात तक नहीं की उसने…।
स्त्री : जल्दी चला जा। उन्हें पहले ही देर हो गई है।
लड़का : अगर सचमुच दिला दी उसने नौकरी, तब तो पता नहीं…।
बाहर के दरवाजे से चला जाता है।
स्त्री : कुछ समझ में नहीं आता, क्या होने को है इस लड़के का…यह तेरे हाथ में क्या है?
बड़ी लड़की : मेरे हाथ में? यह तो वह है…वह जो बना रहा था।
स्त्री : क्या बना रहा था ?…देखूँ !
बड़ी लड़की : (पैड उसकी तरफ बढ़ाती) ऐसे ही…पता नहीं क्या बना रहा था ! बैठे-बैठे इसे भी बस… ?
स्त्री पल-भर खाके को ले कर देखती रहती है।
स्त्री : यह चेहरा कुछ-कुछ वैसा नहीं है ?
बड़ी लड़की : कैसा ?
स्त्री : तेरे डैडी जैसा ?
बड़ी लड़की : डैडी जैसा ? नहीं तो।
स्त्री : लगता तो है कुछ-कुछ।
बड़ी लड़की : वह तो इस आदमी का चेहरा बना रहा था…यह जो अभी गया है।
स्त्री : (त्यौरी डाल कर) यह करतूत कर रहा था ?
लड़का लौट कर आ जाता है।
लड़का : (जैसे हाथों से गर्द झाड़ता) क्या तो अपनी सूरत है और क्या गाड़ी की !
स्त्री : इधर आ।
लड़का : (पास आता) गाड़ी का इंजन तो फिर भी धक्के से चल जाता है, पर जहाँ तक (माथे की तरफ इशारा करके) इस इंजन का सवाल है…
स्त्री : (कुछ सख्त स्वर में) यह क्या बना रहा था तू ?
लड़का : तुम्हें क्या लगता है?
स्त्री : तू क्या बना रहा था ?
लड़का : एक आदिम बन-मानुस ।
स्त्री : क्या ?
लड़का : बन-मानुस।
स्त्री : नाटक मत कर। ठीक से बता।
लड़का : देख नहीं रही यह लपलपाती जीभ, ये रिसती गुफाओं जैसी आँखेँ, ये…
स्त्री : मुझे तेरी ये हरकतें बिलकुल पसंद नहीं हैं। सुन रहा है तू ?
लड़का उत्तर न दे कर पढ़ने की मेज की तरफ बढ़ जाता है और वहाँ से तस्वीरें उठा कर देखने लगता है।
: सुन रहा है या नहीं ?
लड़का : सुन रहा हूँ।
स्त्री : सुन रहा है, तो कुछ कहना नहीं है तुझे ?
लड़का उसी तरह तस्वीरें देखता रहता है।
: नहीं कहना है ?
लड़का : (तस्वीरें वापस मेज पर रख देता) क्या कह सकता हूँ ?
स्त्री : मत कह, नहीं कह सकता तो। पर मैं मिन्नत-खुशामत से लोगों को घर पर बुलाऊँ और तू आने पर उनका मजाक उड़ाए, उनके कार्टून बनाए… ऐसी चीजें अब मुझे बिलकुल बरदाश्त नहीं हैं। सुन लिया? बिलकुल-बिलकुल बरदाश्त नहीं हैं।
लड़का : नहीं बरदाश्त है, तो बुलाती क्यों हो ऐसे लोगों को घर पर कि जिनके आने से… ?
स्त्री : हाँ-हाँ…बता, क्या होता है जिनके आने से ?
लड़का : रहने दो। मैं इसीलिए चला जाना चाहता था पहले ही।
स्त्री : तू बात पूरी कर अपनी।
लड़का : जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में।
स्त्री : (कुछ स्तब्ध हो कर) मतलब ?
लड़का : मतलब वही जो मैने कहा है। आज तक जिस किसी को बुलाया है तुमने, जिस वजह से बुलाया है ?
स्त्री : तू क्या समझता है, किस वजह से बुलाया है ?
लड़का : उसकी किसी ‘बड़ी’ चीज की वजह से। एक को कि वह इंटेलेक्चुअल बहुत बड़ा है। दूसरे को कि उसकी तनखाह पाँच हजार है। तीसरे को कि उसकी तख्ती चीफ कमिश्नर की है। जब भी बुलाया है, आदमी को नहीं-उसकी तनख्वाह को, नाम को, रुतबे को बुलाया है।
स्त्री : तू कहना क्या चाहता है इससे कि ऐसे लोगों के आने से इस घर के लोग छोटे हो जाते हैं ?
लड़का : बहुत-बहुत छोटे हो जाते हैं।
स्त्री : और मैं उन्हें इसलिए बुलाती हूँ कि…
लड़का : पता नहीं किसलिए बुलाती हो, पर बुलाती सिर्फ ऐसे ही लोगों को हो। अच्छा, तुम्हीं बताओ, किसलिए बुलाती हो ?
स्त्री : इसलिए कि किसी तरह इस घर का कुछ बन सके, कि मेरे अकेली के ऊपर बहुत बोझ है इस घर का। जिसे कोई और भी मेरे साथ देनेवाला हो सके। अगर मैं कुछ खास लोगों के साथ संबंध बना कर रखना चाहती हूँ तो अपने लिए नहीं, तुम लोगों के लिए। पर तुम लोग इससे छोटे होते हो, तो मैं छोड़ दूँगी कोशिश। हैं, इतना कह कर कि मैं अकेले दम इस घर की जिम्मेदारियाँ नहीं उठाती रह सकती और एक आदमी है जो घर का सारा पैसा डुबो कर सालों से हाथ धरे बैठा है। दूसरा अपनी कोशिश से कुछ करना तो दूर, मेरे सिर फोड़ने से भी किसी ठिकाने लगाना अपना अपमान समझता है। ऐसे में मुझसे भी नहीं निभ सकता। जब और किसी को यहाँ दर्द नहीं किसी चीज का, तो अकेली मैं ही क्यों अपने को चीथती रहूँ रात-दिन ? मैं भी क्यों न सुखर्रु हो कर बैठ रहूँ अपनी जगह ? उससे तो तुममें से कोई छोटा नहीं होगा।
लड़का चुप रह कर मेज की दराज खोलने-बंद करने लगता है।
: चुप क्यों है अब ? बता न, अपने बड़प्पन से जिंदगी काटने का क्या तरीका सोच रखा है तूने ?
लड़का : बात को रहने दो, ममा ! नहीं चाहता, मेरे मुँह से कुछ ऐसा निकल जाए जिससे तुम…
स्त्री : जिससे मैं क्या ? कह, जो भी कहना है तुझे।
लड़का : (कुरसी पर बैठता) कुछ नहीं कहना है मुझे।
उड़ते मन से एक मैगजीन और कैंची दराज से निकाल कर उसे जोर बंद कर देता है।
स्त्री : कुछ नई तैना है तुझे। बैथ दा तुलछी पल औल तछवीलें तात । तितनी तछवीलें ताती ऐं अब तत लाजे मुन्ने ने ? अगर कुछ नहीं कहना था तुझे तो पहले ही क्यों नहीं अपनी जबान….?
बड़ी लड़की : (पास आ कर उसकी बाँह थामती) रुक जाओ ममा, मैं बात करूँगी इससे (लड़के से) देख अशोक… ।
लड़का : तेरा इस वक्त बात करना जरूरी है क्या ?
बड़ी लड़की : मैं तुझसे सिर्फ इतना पूछना चाहती हूँ कि…?
लड़का : पर क्यों पूछना चाहती हैं ? मैं इस वक्त किसी की किसी भी बात का जवाब नहीं देना चाहता।
बड़ी लड़की : (कुछ रुक कर) यह तू भी जानता है कि ममा ने ही आज तक…
लड़का : तू फिर भी कह रही है बात !
स्त्री : क्यों कर रही है बात तू इससे ? कोई जरूरी नहीं किसी से बात करने की। आज वक्त आ गया है जब खुद ही मुझे अपने लिए कोई-न-कोई फैसला….
लड़का : जरूर कर लेना चाहिए।
बड़ी लड़की : अशोक!
लड़का : मैं कहना नहीं चाहता था, लेकिन..
स्त्री : तो कह क्यों नहीं रहा है ?
लड़का : कहना पड़ रहा है क्योंकि…जब नहीं निभता इनसे यह सब, तो क्यों निभाए जाती हैं इसे ?
स्त्री : मैं निभाए जाती हूँ क्योंकि…
लड़का : कोई और निभानेवाला नहीं है। यह बात बहुत बार कही जा चुकी है इस घर में।
बड़ी लड़की : तो तू सोचता है कि मम्मा जो कुछ भी करती हैं यहाँ…?
लड़का : मैं पूछता हूँ क्यों करती हैं ? किसके लिए करती हैं…?
बड़ी लड़की : मेरे लिए करती थीं… ।
लड़का : तू घर छोड़ कर चली गई।
बड़ी लड़की : किन्नी के लिए करती हैं… ।
लड़का : वह दिन-ब-दिन पहले से बदतमीज होती जा रही है।
बड़ी लड़की : डैडी के लिए करती हैं…।
लड़का : और मैं ही शायद इस घर में सबसे ज्यादा नाकारा हूँ।…पर क्यों हूँ?
बड़ी लड़की : यह…यह मैं कैसे बता सकती हूँ ?
लड़का : कम-से-कम अपनी बात तो बता ही सकती है। तू यह घर छोड़ कर क्यों चली गई थी ?
बड़ी लड़की : (अप्रतिभ हो कर) मैं चली गई थी…चली गई थी… क्योंकि…
लड़का : क्योंकि तू मनोज से प्रेम करती थी।…खुद तुझे ही यह गुट्टी कमजोर नहीं लगती ?
बड़ी लड़की : (रुँआसी पड़ कर) तो तू मुझसे… मुझसे भी कह रहा है कि….?
शिथिल होती एक मोढ़े पर बैठ जाती है।
लड़का : मैंने कहा था कि मुझसे…मत कर बात।
स्त्री आहिस्ता से दो कदम चल कर लड़के के पास आ जाती है।
स्त्री : (अत्यधिक गंभीर) तुझे पता है न, तूने क्या बात कही है ?
लड़का बिना कहे मैगजीन खोल कर उसमें से एक तस्वीर काटने लगता है। लड़का उसी तरह चुपचाप तस्वीर काटता रहता है।
: पता है न ?
लड़का उसी तरह चुपचाप तसवीर काटता रहता है।
: तो ठीक है। आज से मैं सिर्फ अपनी जिंदगी को देखूँगी – तुम लोग अपनी-अपनी जिंदगी को खुद देख लेना।
बड़ी लड़की एक हाथ से दूसरे हाथ के नाखूनों को मसलने लगती है।
: मेरे पास अब बहुत साल नहीं हैं जीने को। पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह और निभते हुए नहीं काटूँगी। मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका आज तक। मेरे तरफ से यह अंत है उसका निश्चित अंत !
एक खँडहर की आत्मा को व्यक्त करता हलका संगीत। लड़का अपनी कटी तस्वीर पल-भर हाथ में ले कर देखता है , फिर चक-चक उसे बड़े-बड़े टुकड़ों में कतरने लगता है जो नीचे फर्श पर बिखरते जाते हैं। प्रकाश आकृतियों पर धुँधला कर कमरे के अलग-अलग कोनों में सिमटता विलीन होने लगता है। मंच पर पूरा अँधेरा होने के साथ संगीत रुक जाता है। पर कैंची की चक-चक फिर भी कुछ क्षण सुनाई देती रहती है।
[अंतराल विकल्प]
दो अलग-अलग प्रकाश-वृत्तों में लड़का और बड़ी लड़की। लड़का सोफे पर औंधा लेट कर टाँगें हिलाता सामने ‘पेशेंस‘ के पत्ते फैलाए। बड़ी लड़की पढ़ने की मेज पर प्लेट में रखे स्लायसों पर मक्खन लगाती। पूरा प्रकाश होने पर कमरे में वह बिखराव नजर आता है जो एक दिन ठीक से देख-रेख न होने से आ सकता है। यहाँ-वहाँ चाय की खाली प्यालियाँ , उतरे हुए कपड़े और ऐसी ही अस्त-व्यस्त चीजें।
बड़ी लड़की : यह डिब्बा खोल देगा तू ?
लड़का : (पत्तों में व्यस्त) मुझसे नहीं खुलेगा।
बड़ी लड़की : नहीं खुलेगा तो लाया किसलिए था ?
लड़का : तूने कहा था जो-जो उधार मिल सके, ले आ बनिए से। मैं उधार में एक फोन भी कर आया।
बड़ी लड़की : कहाँ ?
लड़का : जुनेजा अंकल के यहाँ।
बड़ी लड़की : डैडी से बात हुई ?
लड़का : नहीं।
बड़ी लड़की : तो ?
लड़का : जुनेजा अंकल से हुई।
बड़ी लड़की : कुछ कहा उन्होंने ?
लड़का : बात हुई, इसका यह मतलब नहीं कि…
बड़ी लड़की : मतलब डैडी के घर आने के बारे में।
लड़का : कहा – नहीं आएँगे।
बड़ी लड़की : नहीं आएँगे ?
लड़का : नहीं।
बड़ी लड़की : तो पहले क्यों नहीं बताया तूने ? मैं ऐसे ही ये सैंडविच- ऐंडविच…?
लड़का : मैंने सोचा, चीज सैंडविच तुझे खुद पसंद है, इसलिए कह रही है।
बड़ी लड़की : मैंने कहा नहीं था कि ममा के दफ्तर से लौटने तक डैडी भी आ जाएँ शायद ? चीज सैंडविच दोनों को पसंद हैं ।
लड़का : जुनेजा अंकल को भी पसंद हैं। वे आएँगे, उन्हें खिला देना।
बड़ी लड़की : कहा है आएँगे ?
लड़का : ममा से बात करना चाहते हैं। छह-साढ़े छह तक आएँ शायद।
बड़ी लड़की : ममा का मूड वैसे ही ऑफ है, ऊपर से वे आ कर बात करेंगे। तो…चेहरा देखा था ममा का सुबह दफ्तर जाते वक्त ?
लड़का : मैं पड़ा ही नहीं सामने।
बड़ी लड़की : रात से ही चुप थीं, सुबह तो…। इतनी चुप पहले कभी नहीं देखा।
लड़का : बात हुई थी तेरी तेरी कुछ ?
बड़ी लड़की : यही चाय-वाय के बारे में।
लड़का : साड़ी तो बहुत बढ़िया बाँध कर गई हैं – जैसे किसी ब्याह का न्यौता हो।
बड़ी लड़की : देखा था तूने ?
लड़का : झलक पड़ी थी जब बाहर निकल रही थीं ।
बड़ी लड़की : मैंने सोचा दफ्तर से कहीं और जाएँगी वह। कहा, साढ़े पाँच तक आ जाएँगी – रोज की तरह।
लड़का : तूने पूछा था ?
बड़ी लड़की : इसलिए पूछा था कि मैं भी उसी हिसाब से अपना प्रोग्राम…पर सच कुछ पता नहीं चला।
लड़का : किस चीज का ?
बड़ी लड़की : कि मन में क्या सोच रही हैं। कहा तो कि साढ़े पाँच तक लौट आएँगी, पर चेहरे पर लगता था जैसे…
लड़का : जैसे ?
बड़ी लड़का : जैसे सचमुच मन में कोई फैसला कर लिया हो और…
लड़का : अच्छा नहीं है यह ?
बड़ी लड़की : अच्छा कहता है इसे ?
लड़का : इसलिए कि हो सकता है, कुछ-न-कुछ हो इससे।
बड़ी लड़की : क्या हो ?
लड़का : कुछ भी। जो चीज बरसों से एक जगह रुकी है, वह रुकी ही नहीं चाहिए।
बड़ी लड़की : तो तू सचमुच चाहता है कि…
लड़का : (अपनी बाजी का अंतिम पत्ता चलता) सचमुच चाहता हूँ कि बात किसी भी एक नतीजे तक पहुँच जाए। तू नहीं चाहती ?
पत्ते समेटता उठ खड़ा होता है।
बड़ी लड़की : मुझे तेरी बातों से डर लगता है आजकल।
लड़का : (उसकी तरफ आता) पर गलत तो नहीं लगतीं मेरी बातें?
बड़ी लड़की : पता नहीं…सही भी नहीं लगतीं हालाँकि…। (डब्बा और टिन-कटर हाथ में ले कर) यह डब्बा…. ?
लड़का : इस टिन-कटर से नहीं खुलेगा। इसकी नोक इतनी मर चुकी है कि…
बड़ी लड़की : तो क्या करें फिर ?
लड़का : कोई और चीज नहीं है ?
बड़ी लड़की : मैं कैसे बता सकती हूँ ? मैं तो इतनी बेगानी महसूस करती हूँ अब इस घर में कि…
लड़का : पहले नहीं करती थी ?
बड़ी लड़की : पहले ? पहले तो….।
लड़का : महसूस करना ही महसूस नहीं होता था। और कुछ-कुछ महसूस होना शुरू हुआ, तो पहला मौका मिलते ही घर से चली गई ।
बड़ी लड़की : (तीखी पड़ कर ) तू फिर कलवाली बात कह रहा है ?
लड़का : बुरा क्यों मानती है ? मैं खुद अपने को बेगाना महसूस करता हूँ यहाँ…और महसूस करना शुरू किया है मैंने तेरे जाने के दिन से ।
बड़ी लड़की : मेरे जाने के दिन से ?
लड़का : महसूस शायद पहले भी करता था, पर सोचना तभी से शुरू किया है।
बड़ी लड़की : और सोच कर जाना है कि…
लड़का : एक खास चीज है इस घर के अंदर जो…
बड़ी लड़की : (अस्थिर हो कर) तू भी यही कहता है ?
लड़का : और कौन कहता है ?
बड़ी लड़की : कोई भी…पर कौन-सी चीज है वह ?
लड़का : (स्थिर दृष्टि से उसे देखता) तू नहीं जानती ?
बड़ी लड़की : (आँखें बचाती) मैं ? मैं कैसे ?
लड़का : तुझसे तो मैंने जाना है उसे, और तू कहती है, तू कैसे ?
बड़ी लड़की : तूने मुझसे जाना है उसे – मैं नहीं समझी ?
लड़का : ठीक है, ठीक है। उस चीज को जान कर भी न जानना ही बेहतर है शायद। पर दूसरे को धोखा दे भी ले आदमी, अपने आपको कैसे दे ?
बड़ी लड़की इस तरह हो जाती है कि उसका हाथ ठीक से स्लाइस पर मक्खन नहीं लगा पाता ।
बड़ी लड़की : तू तो बस हमेशा ही ….. देख, ऐसा है कि…. मैं कह रही थी तुझसे कि… भाई, यह डब्बा खुला कर ला पहले कहीं से। या अगर नही खुलेगा, तो…
लड़का : हाथ काँप क्यों रहा है तेरा ? (डब्बा लेता ) अभी खुल जाता है यह। तेज औजार चाहिए… एक मिनट नहीं लगेगा।
बाहर के दरवाजे से चला जाता है। बड़ी लड़की काम जारी रखने की कोशिश करती है , पर हाथ नहीं चलते, तो छोड़ देती है।
बड़ी लड़की : (माथे पर हाथ फेरती , शिथिल स्वर में) कैसे कहता है यह? …मैं सचमुच जानती हूँ क्या ?
सिर को झटक लेती है-जैसे अंदर एक बवंडर उठ रहा हो। कोशिश से अपने को सहेज कर उठ पड़ती है और अंदर के दरवाजे के पास जा कर आवाज देती है।
: किन्नी !
जवाब नहीं मिलाता , तो एक बार अंदर झाँक कर लौट आती है।
: कहाँ चली जाती है ? सुबह स्कूल जाने से पहले रोना कि जब तक चीजें नहीं आएँगी, नहीं जाएगी। और अब दिन-भर पता नहीं, कब घर में है, कब बाहर है।
लड़का बाहर के दरवाजे से छोटी लड़की को अंदर ढकेलता है।
लड़का : चल अंदर।
छोटी लड़की अपने को बचा कर बाहर जाती भाग जाना चाहती है , पर वह उसे बाँह से पकड़ लेता है।
: कहा है, अंदर चल।
बड़ी लड़की : (ताव से) यह क्या हो रहा है ?
छोटी लड़की : देख लो बिन्नी दी, यह मुझे…
झटके से हाथ छुड़ाने की कोशिश करती है , पर लड़का उसे सख्ती से खींच कर अंदर ले आता है।
लड़का : इधर आना, पता चलता है तुझे….
बड़ी लड़की पास आ कर छोटी लड़की की बाँह छुड़ाती है।
लड़का : छोड़ दे इसे। किया क्या है इसने जो… ?
लड़का : (डिब्बा उसे देता) यह डिब्बा ले। खुल गया है (छोटी लड़की पर तमाचा उठा कर) इसे तो मैं अभी… ।
बड़ी लड़की : (उसका हाथ रोकती) सिर फिर गया तेरा ?
लड़का : फिर नहीं, फिर जाएगा।….बाई जोव !
बड़ी लड़की : क्या बात है ?
लड़का : इससे पूछ, क्या बात हुई है।…. माई गॉड !
बड़ी लड़की : क्या बात हुई है, किन्नी ? क्या कर रही थी तू ?
छोटी लड़की जवाब न दे कर सुबकने लगती है ।
: बता न, क्या कर रही थी ?
छोटी लड़की चुपचाप सुबकती रहती है।
लड़का : कर नहीं, कह रही थी किसी से कुछ।
बड़ी लड़की : क्या ?
लड़का : इसी से पूछ ।
बड़ी लड़की : (छोटी लड़की से) बोलती क्यों नहीं ? जबान सिल गई है तेरी ?
लड़का : सिल नहीं, थक गई है। बताने में कि औरतें और मर्द किस तरह से आपस में…
बड़ी लड़की : क्या ? ? ?
लड़का : पूछ ले इससे। अभी बता देगी तुझे सब…जो सुरेखा को बता रही थी बाहर।
छोटी लड़की : (सुबकने के बीच) वह बता रही थी मुझे कि मैं उसे बता रही थी ?
लड़का : तू बता रही थी।
छोटी लड़की : वह बता रही थी।
लड़का : तू बता रही थी। अचानक मुझ पर नजर पड़ी कि मैं पीछे खड़ा सुन रहा हूँ तो…
छोटी लड़की : सुरेखा भागी थी कि मैं भागी थी ?
लड़का : तू भागी थी।
छोटी लड़की : सुरेखा भागी थी।
लड़का : तू भागी थी और मैंने पकड़ लिया दौड़ कर, तो लगी चिल्ला कर आस-पास को सुनाने कि यह ममा से मेरी शिकायतें करता है और ममा घर पर नहीं हैं। इसलिए मैं इसे पीट रहा हूँ ।
बड़ी लड़की : (छोटी लड़की से) यह सच कहा रहा है।
छोटी लड़की : बात सुरेखा से की थी। वह बता रही थी कि कैसे उसके मम्मी-डैडी…
बड़ी लड़की : (सख्त पड़ कर) और तुझे शौक है जानने का कि कैसे उसके मम्मी-डैडी आपस में…?
लड़का : आपस में नहीं। यही तो बात थी खास ।
बड़ी लड़की : चुप रह, अशोक !
छोटी लड़की : इससे कभी कुछ नहीं कहता कोई। रोज किसी-किसी बात पर मुझे पीट देता है।
बड़ी लड़की : क्यों पीट देता है ?
छोटी लड़की : क्योंकि मैं सब चीजें इसे नहीं ले जाने देती उसे देने।
बड़ी लड़की : किसे देने ?
बड़ी लड़की : वह जो है इसकी…कभी मेरी बर्थडे प्रजेंट की चूड़ियाँ दे आता है उसे, कभी-कभी मेरे प्राइज का फाउंटेन पेन। मैं अगर ममा से कह देती हूँ, अकेले में मेरा गला दबाने लगता है।
बड़ी लड़की : (लड़के से) किसकी बात कर रही है यह ?
लड़का : ऐसे ही बक रही है। झूठ-मूठ।
छोटी लड़की : झूठ-मूठ? मेरी फाउंटेन पेन वर्णा के पास नहीं है ?
बड़ी लड़की : वर्णा कौन ?
छोटी लड़की : वही उद्योग सेंटरवाली, जिसके पीछे जूतियाँ चटकाता फिरता है।
लड़का : (फिर से उसे पकड़ने को हो कर) तू ठहर जा, आज मैं तेरी जान निकाल कर रहूँगा।
छोटी लड़की उससे बचने के लिए इधर-उधर भागती है। लड़का उसका पीछा करता है।
बड़ी लड़की : अशोक !
लड़का : आज मैं नहीं छोड़ने का इसे। इसकी जबान जिस तरह से खुल गई है उससे…
छोटी लड़की रास्ता पा कर बाहर के दरवाजे से निकल जाती है।
छोटी लड़की : (जाती हुई) वर्णा उद्योग सेंटरवाली लड़की… वर्णा उद्योग सेंटरवाली लड़की ! वर्णा उद्योग सेंटरवाली लड़की !!
लड़का उसके पीछे बाहर जाने ही लगता है कि अचानक स्त्री को अंदर आते देख कर ठिठक जाता है। स्त्री अंदर आती है जैसे वहाँ की किसी चीज से उसे मतलब ही नहीं है। वातावरण के प्रति उदासीनता के अतिरिक्त चेहरे पर संकल्प और असमंजस का मिला-जुला भाव। उन लोगों की ओर न देख कर वह हाथ का सामान परे की एक कुरसी पर रखती है। लड़का अपने को एक भोंड़ी स्थिति में पाता है , इस चीज उस चीज को छू कर देखने लगता है। बड़ी लड़की प्लेट, स्लाइसें और चीज का डब्बा लिए अहाते के दरवाजे की तरफ चल देती है।
बड़ी लड़की : (स्त्री के पास से गुजरती) मैं चाय ले कर आती हूँ अभी।
स्त्री : मुझे नहीं चाहिए।
बड़ी लड़की : एक प्याली ले लेना।
चली जाती है। स्त्री कमरे के बिखराव पर एक नजर डालती है , पर सिवाय अपने साथ लाई चीजों को यथास्थान रखने के और किसी चीज को हाथ नहीं लगती। बड़ी लड़की लौट कर आती है।
: (पत्ती का खाली पैकेट दिखाती) पत्ती खत्म हो गई।
स्त्री : मैं नहीं लूँगी चाय।
बड़ी लड़की : सबके लिए बना रही हूँ एक-एक प्याली।
लड़का : मेरे लिए नहीं।
बड़ी लड़की : क्यों ? पानी रख रही हूँ, सिर्फ पत्ती लानी है…।
लड़का : अपने लिए बनानी है, बना ले।
बड़ी लड़की : मैं अकेले पियूँगी ? इतने चाव से चीज-सैंडविच बना रही हूँ?
लड़का : मेरा मन नहीं है।
स्त्री : मुझे चाय के लिए बाहर जाना है।
बड़ी लड़की : तो तुम घर पर नहीं रहोगी इस वक्त ?
स्त्री : नहीं, जगमोहन आएगा लेने।
बड़ी लड़की : यहाँ आएँगे वो ?
स्त्री : लेने आएगा वो क्यों ?
बड़ी लड़की : वो भी आनेवाले हैं अभी…जुनेजा अंकल।
स्त्री : उनका कैसे पता है, आनेवाले हैं ?
बड़ी लड़की : अशोक ने फोन किया था। कह रहे थे, कुछ बात करनी है।
स्त्री : लेकिन मुझे कोई बात नहीं करनी है।
बड़ी लड़की : फिर भी जब वे आएँगे ही, तो…
स्त्री : कह देना, मैं घर पर नहीं हूँ। पता नहीं, कब लौटूँगी ।
बड़ी लड़की : कहें, इंतजार करते हैं, तो ?
स्त्री : करने देना इंतजार ।
कबर्ड से दो-तीन पर्स निकाल कर देखाती है कि उनमें से कौन-सा साथ रखना चाहिए। बड़ी लड़की एक नजर लड़के को देख लेती है जो लगता है किसी तरह वहाँ से जाने के बहाना ढूँढ़ रहा है।
बड़ी लड़की : (एक पर्स को छू कर) यह अच्छा है इनमें।…कब तक सोचती हो लौट आओगी ?
स्त्री : (उस पर्स को रख कर दूसरा निकालती) पता नहीं। बात करने में देर भी हो सकती है।
बड़ी लड़की : (उस पर्स के लिए) यह और भी अच्छा है।….। अगर पूछें कहाँ गई हैं, किसके साथ गई हैं ?
स्त्री : कहना बताया नहीं…या जगमोहन आया था लेने।
(एक नजर फिर कमरे में डाल कर) कितना गंदा पड़ा है !
बड़ी लड़की : समेट रही हूँ। (व्यस्त होती) बताना ठीक होगा उन्हें ?
स्त्री : क्यों ?
बड़ी लड़की : ऐसे ही वे जा कर डैडी से बतलाएँगे खामखाह….।
स्त्री : तो क्या होगा ? (कुछ चीजें खुद उठा कर उसे देती) अंदर रख आ अभी।
बड़ी लड़की : होगा यही कि….
स्त्री : एक आदमी के साथ चाय पीने जा रही हूँ मैं, कहीं चोरी करने तो नहीं।
बड़ी लड़की : तुम्हें तो पता ही है, डैडी जगमोहन अंकल को….
स्त्री : पसंद भी करते हैं तेरे डैडी किसी को ?
बड़ो लड़की : फिर भी थोड़ा जल्दी आ सको तुम, तो….
स्त्री : मुझे उससे कुछ जरूरी बात करनी हैं। उसे कई काम थे शाम को जो उसने मेरी खातिर कैंसिल किए हैं। बेकार आदमी नहीं है वह कि जब चाहा बुला लिया, जब चाहा कह दिया जाओ अब ।
लड़का अस्थिर भाव से टहेलता दरवाजे के पास पहुँच जाता है।
लड़का : मैं जरा जा रहा हूँ बिन्नी !
बड़ी लड़की : तू भी ?…तू कहाँ जा रहा है ?
लड़का : यहीं तक जरा। आ जाऊँगा थोड़ी देर में।
बड़ी लड़की : तो जुनेजा अंकल के आने पर मैं…. ?
लड़का : आ जाऊँगा तब तक शायद ।
बड़ी लड़की : शायद ?
लड़का : नहीं…आ ही जाऊँगा।
चला जाता है।
बड़ी लड़की : (पीछे से) सुन। (दरवाजे की तरफ बढ़ती) अशोक !
लड़का नहीं रुकता तो होंठ सिकोड़ स्त्री की तरफ लौट आती है।
: कम से कम पत्ती ले कर तो दे जाता।
स्त्री : (जैसे कहने से पहले तैयारी करके) तुमसे एक बात करना चाहती थी।
बड़ी लड़की : यह सब छोड़ आऊँ अंदर। वहाँ भी कितना कुछ बिखरा है। सोचती हूँ, जगमोहन अंकल के आने से पहले…।
स्त्री : मुझे जरा-सी बात करनी हैं।
बड़ी लड़की : बताओ ।
स्त्री : अगली बार आने पर पर मैं यहाँ न मिलूँ शायद।
बड़ी लड़की : कैसी बात कर रही हो ?
स्त्री : जगमोहन को आज मैंने इसीलिए फोन किया था ।
बड़ी लड़की : तो ?
स्त्री : तो अब जो भी हो। मैं जानती थी एक दिन आना ही है ऐसा।
बड़ी लड़की : तो तुमने पूरी तरह सोच लिया है कि…
स्त्री : (हलके से आँखें मूँद कर) बिलकुल सोच लिया है (आँखें झपकाती) जा तू अब ।
बड़ी लड़की पल-भर चुपचाप उसे देखती खड़ी रहती है। फिर सोचते भाव से अंदर को चल देती है।
बड़ी लड़की : (चलते-चलते) और सोच लेती थोडा…।
चली जाती है।
स्त्री : कब तक और ?
गले की माला को उँगली से लपेटते हुए झटके लगाने से माला टूट जाती है। परेशान हो कर माला को उतार देती है और कबर्ड से दूसरी माला निकाल लेती है।
: साल पर साल….इसका यह हो जाए, उसका वह हो जाए।
मालाओं का डिब्बा रख कर कबर्ड को बंद करना चाहती है , पर बीच की चीजों के अव्यवस्थित हो जाने से कबर्ड ठीक से बंद नहीं होती।
: एक दिन….दूसरा दिन !
नहीं ही बंद होता , तो उसे पूरा खोल कर झटके से बंद करती है।
: एक साल…दूसरा साल !
कबर्ड के नीचे रखे जूते चप्पलों को पैर से टटोल कर एक चप्पल निकालने की कोशिश करती है ; पर दूसरा पैर नहीं मिलता, तो सबको ठोकरें लगा कर पीछे हटा देती है।
: अब भी और सोचूँ थोड़ा !
ड्रेसिंग टेबल के सामने चली जाती है। कुछ पल असमंजस में रहती है कि वहाँ क्यों आई है। फिर ध्यान हो आने से आईने में देख कर माला पहनने लगती है। पहन कर अपने को ध्यान से देखती है। गरदन उठा कर और खाल को मसल कर चेहरे की झुर्रियाँ निकालने की कोशिश करती है।
: कब तक…? क्यों…?
फिर समझ में नहीं आता कि क्या करना है। ड्रेसिंग टेबल की कुछ चीजों को ऐसे ही उठाती-रखती है। क्रीम की शीशी हाथ में आ जाने पर पल-भर उसे देखती रहती है। फिर खोल लेती है।
: घर दफ्तर…घर दफ्तर !
क्रीम चेहरे पर लगते हुए ध्यान आता है कि वह इस वक्त नहीं लगानी थी। उसे एक और शीशी उठा लेती है। उसमें से लोशन रूई पर ले कर सोचती है। कहाँ लगाए और कहीं का नहीं सूझता , तो उससे कलाइयाँ साफ करने लगती है।
: सोचो…सोचो।
ध्यान सिर के बालों में अटक जाता है। अनमनेपन में लोशनवाली रूई सिर पर लगाने लगती है , पर बीच में ही हाथ रोक कर उसे अलग रख देती है। उँगलियों से टटोल कर देखती है कि कहाँ सफेद बाल ज्यादा नजर आ रहे हैं। कंघी ढूँढ़ती है, पर वह मिलती नहीं। उतावली में सभी खाने-दराजें देख डालती है। आखिर कंघी वहीं तौलिए के नीचे से मिल जाती है।
: चख-चख….किट…किट…चख-चख…किट-किट। क्या सोचो?
कंघी से सफेद बालों को ढँकने लगती है। ध्यान आँखों की झाँइयों पर चला जाता है तो कंघी रख कर उन्हें सहलाने लगती है। तभी पुरुष तीन बाहर के दरवाजे से आता है…सिगरेट के कश खींच कर छल्ले बनाता है। स्त्री उसे नहीं देखती , तो वह राख झाड़ने के लिए तिपाई पर रखी ऐश-ट्रे की तरफ बढ़ जाती है। स्त्री पाउडर की डब्बी खोल कर आँखों के नीचे पाउडर लगती है। डब्बीवाला हाथ काँप जाने से थोड़ा पाउडर बिखर जाता है।
: (उसाँस के साथ) कुछ मत सोचो।
उठा खड़ी होती है , एक बार अपने को अच्छी तरह आईने में देख लेती है। पुरुष तीन पहले सिगरेट से दूसरा सिगरेट सुलगता है।
: होने दो जो होता है।
सोफे की तरफ मुड़ती ही है कि पुरुष तीन पर नजर पड़ने से ठिठक जाती है , आँखों में एक चमक भर आती है।
पुरुष तीन : (काफी कोमल स्वर में) हलो, कुकू !
स्त्री : अरे ! पता ही नहीं चला तुम्हारे आने का ।
पुरुष तीन : मैंने देखा, अपने से ही बात कर रही हो कुछ। इसीलिए…।
स्त्री : इंतजार में ही थी मैं। तुम सीधे आ रहे हो दफ्तर से ?
पुरुष तीन कश खींच कर छल्ले बनाता है।
पुरुष तीन : सीधा ही समझो।
स्त्री : समझो यानी कि नहीं ।
पुरुष तीन : नाउ-आउ।…दो मिनट रुका बस, पोल स्टोर में। एक डिजाइन देना था उनका। फिर घर जा कर नहाया और सीधे….।
स्त्री : सीधा कहते हो इसे ?
पुरुष तीन : (छल्ले बनाता) तुम नहीं बदलीं बिलकुल। उसी तरह डाँटती हो आज भी। पर बात-सी है कुकू डियर, कि दफ्तर के कपड़ों में सारी शाम उलझन होती इसीलिए सोचा कि….
स्त्री : लेकिन मैंने कहा नहीं था, बिलकुल सीधे आना ? बिना एक भी मिनट जाया किए ?
पुरुष तीन : जाया कहाँ किया एक मिनट भी ? पोल स्टोर में तो….
स्त्री : रहने दो अब। तुम्हारी बहानेबाजी नई चीज नहीं है मेरे लिए।
पुरुष तीन : (सोफे पर बैठता है) कह लो जो जी चाहे। बिना वजह लगाम खींचे जाना मेरे लिए भी नई चीज नहीं है।
स्त्री : बैठ रहे हो – चलना नहीं है ?
पुरुष तीन : एक मिनट चल ही रहे हैं बस। बैठो।
स्त्री अनमने ढंग से सोफे पर बैठ जाती है।
: जिस तरह फोन किया तुमने अचानक, उससे मुझे कहीं लगा कि…
स्त्री की आँखें उमड़ आती हैं।
स्त्री : (उसके हाथ पर हाथ रख कर ) जोग !
पुरुष तीन : (हाथ सहलाता) क्या बात है, कुकू ?
स्त्री : मैं वहाँ पहुँच गई हूँ जहाँ पहुँचने से डरती रही हूँ जिंदगी-भर। मुझे आज लगता है कि…
पुरुष तीन : (हाथ पर हलकी थपकियाँ देता) परेशान नहीं होते इस तरह।
स्त्री : मैं सच कह रही हूँ। आज अगर तुम मुझसे कहो कि…. ।
पुरुष तीन : (अंदर की तरफ देख कर) घर पर कोई नहीं है ?
स्त्री : बिन्नी है अंदर ।
हाथ हटा लेता है।
पुरुष तीन : यहीं है वह ? उसका तो सुना था कि…
स्त्री : हाँ ! पर आई हुई है कल से ।
पुरुष तीन : तब का देखा है उसे। कितने साल ही गए !
स्त्री : अब आ रही होगी बाहर। देखो, तुमसे बहुत-बहुत बातें करनी हैं मुझे आज।
पुरुष तीन : मैं सुनने के लिए ही तो आया हूँ। फोन पर तुम्हारी आवाज से ही मुझे लग गया था कि…
स्त्री : मैं बहुत….वो थी उस वक्त।
पुरुष तीन : वह तो इस वक्त भी हो।
स्त्री : तुम कितनी अच्छी तरह समझते हो मुझे…कितनी अच्छी तरह ! इस वक्त मेरी जो हालत है अंदर से…।
स्वर भर्रा जाता है ।
पुरुष तीन : प्लीज !
स्त्री : जोग !
पुरुष तीन : बोलो !
स्त्री : तुम जानते हो, मैं…एक तुम्हीं हो जिस पर मैं…
पुरुष तीन : कहती क्यों हो ? कहने की बात है यह ?
स्त्री : फिर भी मुँह से निकल जाती है। देखो ऐसा है कि….नहीं। बाहर चल कर ही बात करूँगी।
पुरुष तीन : एक सुझाव है मेरा।
स्त्री : बताओ।
पुरुष तीन : बात यहीं कर लो जो करनी है उसके बाद….
स्त्री : ना-ना यहाँ नहीं।
पुरुष तीन : क्यों ?
स्त्री : यहाँ हो ही नहीं सकेगी बात मुझसे। हाँ, तुम कुछ वैसा समझते हो बाहर चलने में मेरे साथ, तो…
पुरुष तीन : कैसी बात करती हो ?तुम जहाँ भी कहो, चलते हैं। मैं तो इसीलिए कह रहा था कि…
स्त्री : मैं जानती हूँ सब। तुम्हारी बात गलत नहीं समझती मैं कभी।
पुरुष तीन : तो बताओ, कहाँ चलोगी ?
स्त्री : जहाँ ठीक समझो तुम।
पुरुष तीन : मैं ठीक समझूँ ? हमेशा तुम्हीं नहीं तय किया करती थी ?
स्त्री : गिंजा कैसा रहेगा ?….वहाँ वही कोनेवाली टेबल खाली मिल जाए शायद।
पुरुष तीन : पूछो नहीं। यह कहो – गिंजा।
स्त्री : या यार्क्स ? वहाँ इस वक्त ज्यादा लोग नहीं होते।
पुरुष तीन : मैंने कहा न…
स्त्री : अच्छा, उस छोटे रेस्तराँ में चले जहाँ के कबाब तुम्हें बहुत पसंद हैं? मैं तब के बाद कभी वहाँ नहीं गई।
पुरुष तीन : (हिचकिचाट के साथ) वहाँ ? जाता नहीं वैसे मैं वहाँ अब। …पर तुम्हारा वहीं के लिए मन हो तो चल भी सकते हैं।
स्त्री : देखो एक बात तो बता ही दूँ तुम्हें चलने से पहले।
पुरुष तीन : (छल्ले छोड़ता) क्या बात?
स्त्री : मैंने…कल एक फैसला कर लिया है मन में।
पुरुष तीन : हाँ-हाँ ?
स्त्री : वैसे उन दिनों भी सुनी होगी तुमने ऐसी बात मेरे मुँह से…पर इस बार सचमुच कर लिया है।
पुरुष तीन : (जैसे बात को आत्मसात करता) हूँ ।
पल-भर की खामोशी जिसमें वह कुछ सोचता हुआ इधर-उधर देखता है फिर जैसे किसी किताब पर आँख अटक जाने से उठ कर शेल्फ की तरफ चला जाता है।
स्त्री : उधर क्यों चले गए ?
पुरुष तीन : (शेल्फ से किताब निकलता) ऐसे ही ।…यह किताब देखना चाहता था जरा।
स्त्री : तुम्हें शायद विश्वास नहीं आया मेरी बात पर ?
पुरुष तीन : सुन रहा हूँ मैं।
स्त्री : मेरे लिए पहले भी असंभव था यहाँ यह सब सहना। तुम जानते ही हो। पर आ कर बिलकुल-बिलकुल असंभव हो गया है।
पुरुष तीन : (पन्ने पलटता) तो मतलब है….?
स्त्री : ठीक सोच रहे हो तुम।
पुरुष तीन : (किताब वापस रखता) हूँ !
स्त्री उठ कर उसकी तरफ आती है।
स्त्री : मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मुझे हमेशा कितना अफसोस रहा है इस बात का कि मेरी वजह से तुम्हें भी…तुम्हें भी इतनी तकलीफ उठानी पड़ी है जिंदगी में।
पुरुष तीन : (अपनी गरदन सहलाता) देखो…सच पूछो, तो मैं अब ज्यादा सोचता ही नहीं इस बारे में।
टहलता हुआ उसके पास से आगे निकाल आता है।
स्त्री : मुझे याद है तुम कहा करते थे, ‘सोचने से कुछ होना हो, तब तो सोचे भी आदमी।’
पुरुष तीन : हाँ…वही तो।
स्त्री : पर यह भी कि कल और आज में फर्क होता है। होता है न
पुरुष तीन : हाँ…होता है। बहुत-बहुत।
स्त्री : इसीलिए कहना चाहती हूँ तुमसे कि….।
बड़ी लड़की अंदर से आती है।
बड़ी लड़की : ममा, अंदर जो कपड़े इस्तरी के लिए रखे हैं… (पुरुष तीन को देख कर) हलो अंकल !
पुरुष तीन : हलो, हलो !…अरे वह ! यह तू ही है क्या ?
बड़ी लड़की : आपको क्या लगता है ?
पुरुष तीन : इतनी-सी थी तू तो ! (स्त्री से) कितनी बड़ी नजर आने लगी अब
स्त्री : हाँ…यह चेहरा निकल आया है !
पुरुष तीन : उन दिनों फ्राक पहना करती थी… ।
बड़ी लड़की : (सकुचाती) पता नहीं किन दिनों !
पुरुष तीन : याद है, कैसे मेरे हाथ पर काटा था इसने एक बार ? बहुत ही शैतान थी ।
स्त्री : (सिर हिला कर) धरी रह जाती है सारी शैतानी आखिर ।
बड़ी लड़की : बैठिए आप । मैं अभी आती हूँ उधर से ।
अहाते के दरवाजे की तरफ चल देती है।
पुरुष तीन : भाग कहाँ रही है ?
बड़ी लड़की : आ रही हूँ बस ।
चली जाती है ।
पुरुष तीन : कितनी गदराई हुई लड़की थी ! गाल इस तरह फुले-फुले थे…
स्त्री : सब पिचक जाते हैं गाल-वाल !
पुरुष तीन : पर मैंने तो सुना था कि…अपनी मर्जी से ही इसने…?
स्त्री : हाँ, अपनी मर्जी से ही। अपनी मर्जी का ही तो फल है यह कि…
पुरुष तीन : बात लेकिन काफी बड़प्पन से करती है?…
स्त्री : यह उम्र और इतना बड़प्पन ?… हाँ, तो चलें अब फिर ?
पुरुष तीन : जैसा कहो ।
स्त्री : (अपने पर्स में रूमाल ढूँढ़ती) कहाँ गया ? (रूमाल मिल जाने से पर्स बंद करती है।) है यह इसमें…तो कब तक लौट आऊँगी मैं ? इसलिए पूछ रही हूँ कि उसी तरह कह जाऊँ इससे ताकि…
पुरुष तीन : तुम पर है यह। जैसा भी कह दो ।
स्त्री : कह देती हूँ-शायद देर हो जाए मुझे । कोई आनेवाला है, उसे भी बता देगी ।
पुरुष तीन : कोई और आनेवाला है ?
स्त्री : जुनेजा। वही आदमी जिसकी वजह से…तुम जानते ही हो सब । (अहाते की तरफ देखती) बिन्नी! (जवाब न मिलने से) बिन्नी! …कहाँ चली गई यह ?
अहाते के दरवाजे से जा कर उधर देख लेती है और कुछ उत्तेजित-सी हो कर लौट आती है।
: पता नहीं कहाँ चली गई यह लड़की भी अब… !
पुरुष तीन : इंतजार कर लो ।
स्त्री : नहीं, वह आदमी आ गया तो, मुश्किल हो जाएगी । मुझे बहुत जरूरी बात करनी है तुमसे। आज ही। अभी ।
पुरुष तीन : (नया सिगरेट सुलगता) तो ठीक है। एट योर डिस्पोजल ।
स्त्री : (इस तरह कमरे को देखती जैसे कि कोई चीज वहाँ छूटी जा रही हो) हाँ…आओ ।
पुरुष तीन : (चलते-चलते रुक कर ) लेकिन…घर इस तरह अकेला छोड़ जाओगी ?
स्त्री : नहीं, अभी आ जाएगा कोई-न-कोई ।
पुरुष तीन : (छल्ले छोड़ता ) तुम्हारे ऊपर है जैसा भी ठीक समझो ।
स्त्री : (फिर एक नजर कमरे पर डाल कर) मेरे लिए तो…आओ
पुरुष तीन पहले निकल जाता है। स्त्री फिर से पर्स खोल कर उसमें कोई चीज ढूँढ़ती पीछे – पीछे। कुछ क्षण मंच खाली रहता है। फिर बाहर से छोटी लड़की के सिसक कर रोने का स्वर सुनाई देता है। वह रोती हुई अंदर आ कर सोफे पर औंधे हो जाती है। फिर उठ कर कमरे के खालीपन पर नजर डालती है और उसी तरह रोती-सिसकती अंदर के कमरे में चली जाती है। मंच फिर दो-एक क्षण खाली रहता है। उसके बाद बड़ी लड़की चाय की ट्रे के लिए अहाते के दरवाजे से आती है।
बड़ी लड़की : अरे ! चले भी गए ये लोग ?
ट्रे डायनिंग टेबल पर छोड़ कर बाहर के दरवाजे तक आती है , एक बार बाहर देख लेती है और कुछ क्षण अंतमुख भाव से वहीं रुकी रहती है। फिर अपने की झटक कर वापस डायनिंग टेबल की तरफ चल देती है।
: कैसे पथरा जाता है सिर कभी-कभी।
रास्ते में ड्रेसिंग टेबल के बिखराव को देख कर रुक जाती है और जल्दी से वहाँ की चीजों को सहेज देती है।
: जरा ध्यान न दे आदमी…जंगल हो जाता है सब।
वहाँ से हट कर डायनिंग टेबल के पास आ जाती है और अपने लिए चाय की प्याली बनाने लगती है। छोटी लड़की उसी तरह सिसकती अंदर से आती है।
छोटी लड़की : जब नहीं हो-होना होता, तो सब लोग होते हैं सिर पर। और जब हो-होना होता है तो कोई भी नहीं दि-दिखता कहीं।
बड़ी लड़की चाय बनाना बीच में छोड़ कर उसकी तरफ बढ़ आती है।
बड़ी लड़की : किन्नी ! यह फिर क्या हुआ तुझे ? बाहर से कब आई तू ?
छोटी लड़की : कब आई मैं ! यहाँ पर को- कोई भी क्यों नहीं था ? तू-तुम भी कहाँ थी थोड़ी देर पहले ?
बड़ी लड़की : मैं चाय की पत्ती लाने चली गई थी ।…किसने, अशोक ने मारा है तुझे ?
छोटी लड़की : वह भी क-कहाँ था इस वक्त ? मेरे कान खिंचने के लिए तो पता नहीं क-कहाँ से चला आएगा। पर ज-जब सुरेखा की ममी से बात करने की बात की थी, त-त्तो ?
बड़ी लड़की : सुरेखा की ममी ने कुछ कहा है तुमसे ?
छोटी लड़की : ममा कहाँ हैं ? मुझे उन्हें स-साथ ले कर जाना है वहाँ।
बड़ी लड़की : कहाँ ? सुरेखा के घर ?
छोटी लड़की : सुरेखा की ममी बुला रही हैं उन्हें। कहती हैं, अभी ले-ले कर आ।
बड़ी लड़की : पर किस बात के लिए ?
छोटी लड़की : अशोक को देख लिया था सबने हम लोगों को डाँटते। सुरेखा की ममी ने सुरखा को घ-घर में ले जा कर पिटा, तो उसने…उसने म-मेरा नाम लगा दिया।
बड़ी लड़की : क्या कहा ?
छोटी लड़की : कि मैं सिखाती हूँ उसे वे सब ब-बातें।
बड़ी लड़की : तो…सुरेखा कि ममी ने मुझे बुलाया इस तरह डाँटा है जैसे…पहले बताओ, ममा कहाँ हैं ? मैं उन्हें अभी स-साथ ले कर जाऊँगी। क-कहती हैं, मैं उनकी लड़की को बिगाड़ रही हूँ। और भी बु-बुरी बातें हमारे घर को ले कर।
बड़ी लड़की : ममा बाहर गई हैं।
छोटी लड़की : बाहर कहाँ ?
बड़ी लड़की : तुझे सब जगह का पता है कि कहाँ-कहाँ जाया जा सकता है बाहर ?
छोटी लड़की : (और बिफरती) तु-तुम भी मुझी को डाँट रही हो ? ममा नहीं हैं तो तुम चलो मेरे साथ।
बड़ी लड़की : मैं नहीं चल सकती।
छोटी लड़की : (ताव में) क्यों नहीं चल सकती ?
बड़ी लड़की : नहीं चल सकती कह दिया न।
छोटी लड़की : (उसे परे धकेलती) मत चलो, नहीं चल सकती तो।
बड़ी लड़की : (गुस्से से) किन्नी !
छोटी लड़की : बात मत करो मुझसे। किन्नी !
बड़ी लड़की : तुझे बिलकुल तमीज नहीं है क्या ?
छोटी लड़की : नहीं है मुझे तमीज।
बड़ी लड़की : देख, तू मुझसे ही मार खा बैठेगी आज।
छोटी लड़की : मार लो न तुम।…इनसे ही म-मार खा बैठूँगी आज।
बड़ी लड़की : तू इस वक्त यह रोना बंद करेगी या नहीं।
छोटी लड़की : नहीं करूँगी।…रोना बंद करेगी या नहीं ?
बड़ी लड़की : तो ठीक है। रोती रह बैठ कर।
छोटी लड़की : रो-रोती रह बैठ कर।
अहाते के पीछे से दरवाजे की कुंडी खटखटाने की आवाज सुनाई देती है।
बड़ी लड़की : (उधर देख कर) यह…यह इधर से कौन आया हो सकता है इस वक्त ?
जल्दी से अहाते के दरवाजे से चली जाती है। छोटी लड़की विद्रोह के भाव से कुरसी पर जम जाती है। बड़ी लड़की पुरुष चार के साथ वापस आती है।
: (आती हुई) मैंने सोचा कि कौन हो सकता है पीछे का दरवाजा खटखटाए। आपका पता था, आप आनेवाले हैं। पर आप तो हमेशा आगे के दरवाजे से ही आते हैं, इसलिए…।
पुरुष चार : मैं उसी दरवाजे से आता, लेकिन…(छोटी लड़की को देख कर) इसे क्या हुआ है ? इस तरह क्यों बैठी है वहाँ ?
बड़ी लड़की : (छोटी लड़की से) जुनेजा अंकल आए हैं, इधर आ कर बात तो कर इनसे।
छोटी लड़की मुँह फेर कर कुरसी की पीठ पर बैठ कर बाँह फैला लेती है।
पुरुष चार : (छोटी लड़की के पास आता) अरे ! यह तो रो रही है। (उसके सिर पर हाथ फेरता) क्यों ? क्या हुआ मुनिया को ? किसने नाराज कर दिया ? (पुचकारता) उठो बेटे, इस तरह अच्छा नहीं लगता। अब आप बड़े हो गए हैं, इसलिए….।
छोटी लड़की : (सहसा उठ कर बाहर को चलती) हाँ…बड़े हो गए हैं। पता नहीं किस वक्त छोटे हो जाते हैं, किस वक्त बड़े हो जाते हैं ! (बाहर के दरवाजे के पास से) हम नहीं लौट कर आएँगे अब…जब तक ममा नहीं आ जातीं ।
चली जाती है।
पुरुष चार : (लौट कर बड़ी लड़की के तरफ आता) सावित्री बाहर गई है?
बड़ी लड़की सिर्फ सिर हिला देती है।
: मैं थोड़ी देर पहले गया था। बाहर सड़क पर न्यू इंडिया की गाड़ी देखी, तो कुछ देर पीछे को घूमने निकल गया। तेरे डैडी ने बताया था, जगमोहन आजकल यहीं है – फिर से ट्रांसफर हो कर आ गया है।…वह ऐसे ही आया था मिलने, या…?
बड़ी लड़की : ममा को पता होगा। मैं नहीं जानती ।
पुरुष चार : अशोक ने जिक्र नहीं किया मुझसे। उसे भी पता नहीं होगा शायद।
बड़ी लड़की : अशोक मिला है आपसे ?
पुरुष चार : बस स्टाप पर खड़ा था। मैंने पूछा, तो बोला कि आप ही के यहाँ जा रहा हूँ डैडी का हालचाल पता करने। कहने लगा, आप भी चलिए, बाद में साथ ही आएँगे पर मैंने सोचा कि एक बार जब इतनी दूर आ ही गया हूँ, तो सावित्री से मिल कर ही जाऊँ । फिर उसे भी जिस हाल में छोड़ आया हूँ, उसकी वजह से… ।
बड़ी लड़की : किसकी बात कर रहे हैं….डैडी की ?
पुरुष चार : हाँ, महेंद्रनाथ की ही। एक तो सारी रात सोया नहीं वह। दूसरे…।
बड़ी लड़की : तबीयत ठीक नहीं उनकी ?
पुरुष चार : तबीयत भी ठीक नहीं और वैसे भी…मैं तो समझता हूँ, महेंद्रनाथ खुद जिम्मेदार है अपनी यह हालत करने के लिए ।
बड़ी लड़की : (उस प्रकरण से बचना चाहती) चाय बनाऊँ आपके लिए ?
पुरुष चार : (चाय का समान देख कर) किसके लिए बनाई बैठी थी इतनी चाय ? पी नहीं लगता किसी ने ?
बड़ी लड़की : (असमंजस में) यह मैंने बनाई थी क्योंकि…क्योंकि सोच रही थी कि…
पुरुष चार : (जैसे बात को समझ कर) वे लोग चले गए होंगे।…सावित्री को पता था न, मैं आनेवाला हूँ ?
बड़ी लड़की : (आहिस्ता से) पता था।
पुरुष चार : यह भी बताया नहीं मुझे अशोक ने…पर उसके लहजे से ही मुझे लग गया था कि…(फिर जैसे कोई बात समझ में आ जाने से) अच्छा, अच्छा, अच्छा ! काफी समझदार लड़का है ।
बड़ी लड़की : (चीनीदानी हाथ में लिए) चीनी कितनी ?
पुरुष चार : चीनी बिलकुल नहीं। मुझे मना है चीनी। वह शायद इसीलिए मुझे वापस ले चलना चाहता था कि…कि उसे मालूम होगा जगमोहन का।
बड़ी लड़की : दूध ?
पुरुष चार : हमेशा जितना।
बड़ी लड़की : कुछ नमकीन लाऊँ अंदर से ?
पुरुष चार : नहीं।
बड़ी लड़की : बैठ जाइए ।
पुरुष चार : ओ, हाँ !
वही एक कुरसी खींच कर बैठ जाता है। बड़ी लड़की एक प्याली उसे दे कर दूसरी प्याली खुद ले कर बैठ जाती है। कुछ पल खामोशी।
बड़ी लड़की : कहाँ-कहाँ घूम आए इस बीच? सुना था कहीं बाहर गए थे ?
पुरुष चार : हैं, गया था बाहर। पर किसी नई जगह नहीं गया।
फिर कुछ पल खामोशी।
बड़ी लड़की : सुषमा का क्या हाल है ?
पुरुष चार : ठीक-ठाक है अपने घर में।
बड़ी लड़की : कोई बच्चा-अच्चा ?
पुरुष चार : अभी नहीं।
फिर कुछ पल खामोशी।
बड़ी लड़की : आप तो बिलकुल चुप बैठे हैं। कोई बात कीजिए न !
पुरुष चार : (उसाँस के साथ) क्या बात करूँ ?
बड़ी लड़की : कुछ भी ।
पुरुष चार : सोच कर तो बहुत-सी बातें आया था। सावित्री होती तो शायद कुछ बात करता भी पर अब लग रहा है बेकार ही है सब।
फिर कुछ पल खामोशी। दोनों लगभग एक साथ अपनी-अपनी प्याली खाली करके रख देते हैं।
बड़ी लड़की : एक बात पूछूँ – डैडी को फिर से वही दौरा तो नहीं पड़ा, ब्लड प्रेशर का ?
पुरुष चार : यह भी पूछने की बात है ?
बड़ी लड़की : आप उन्हें समझाते क्यों नहीं कि….
पुरुष चार : (उठता हुआ) कोई समझा सकता है उसे ? वह इस औरत को इतना चाहता है अंदर से कि…
बड़ी लड़की : यह आप कैसे कह सकते हैं ?
पुरुष चार : तुझे लगता है यह बात सही नहीं है ?
बड़ी लड़की : (उठती हुई) कैसे सही हो सकती है? (अंतर्मुख भाव से)…आप नहीं जानते, हमने इन दोनों के बीच क्या-क्या गुजरते देखा है इस घर में।
पुरुष चार : देखा जो कुछ भी हो….
बड़ी लड़की : इतने साधारण ढंग से उड़ा देने की बात नहीं है, अंकल ! मैं यहाँ थी, तो मुझे कई बार लगता था कि मैं एक घर में नहीं, चिड़ियाघर के एक पिंजरे में रहती हूँ जहाँ…आप शायद सोच भी नहीं सकते कि क्या-क्या होता रहा है यहाँ। डैडी का चीखते हुए ममा के कपड़े तार-तार कर देना…उनके मुँह पर पट्टी बाँध कर उन्हें बंद कमरे में पीटना…खींचते हुए गुसलखाने में कमोड पर ले जा कर…(सिहर कर) मैं तो बयान भी नहीं कर सकती कि कितने-कितने भयानक दृश्य देखे हैं इस घर में मैंने। कोई भी बाहर का आदमी उस सबको देखता-जानता, तो यही कहता कि क्यों नहीं बहुत पहले ही ये लोग…?
पुरुष चार : तूने नई बात नहीं बताई कोई। महेन्द्रनाथ खुद मुझे बताता रहा है यह सब।
बड़ी लड़की : बताते रहे हैं ? फिर भी आप कहते हैं कि… ?
पुरुष चार : फिर भी कहता हूँ कि वह इसे बहुत प्यार करता है।
बड़ी लड़की : कैसे कहते हैं यह आप ? दो आदमी जो रात-दिन एक-दूसरे की जान नोंचने में लगे रहते हों …?
पुरुष चार : मैं दोनों की नहीं, एक की बात कह रहा हूँ ।
बड़ी लड़की : तो आप सचमुच मानते हैं कि…?
पुरुष चार : बिलकुल मानता हूँ, इसीलिए कहता हूँ कि अपनी आज की हलात के लिए जिम्मेदार महेन्द्र नाथ खुद है। अगर ऐसा न होता, तो आज सुबह से ही रिरिया कर मुझसे न कह रहा होता कि जैसा भी हो मैं इससे बात करके इसे समझाऊँ। मै इस वक्त यहाँ न आया होता, तो पता है क्या होता ?
बड़ी लड़की : क्या होता ?
पुरुष चार : महेन्द्र खुद यहाँ चला आया होता। बिना परवाह किए कि यहाँ आ कर इस ब्लेड प्रेशर में उसका क्या हाल होता और ऐसा पहली बार न होता, तुझे पता ही है। मैने कितनी मुश्किल से समझा-बुझा कर उसे रोका है, मैं ही जानता हूँ। मेरे मन में थोड़ा-सा भरोसा बाकी था कि शायद अब भी कुछ हो सके… मेरे बात करने से ही कुछ बात बन सके। पर आ कर बाहर न्यू इंडिया की गाड़ी देखी, तो मुझे लगा कि नही, कुछ नहीं हो सकता। कुछ नही हो सकता। बात करके मै सिर्फ आपको…मेरा खयाल है चलना चाहिए अब। जाते हुए मुझे उसके लिए दवाई भी ले जानी है।…अच्छा।
बाहर के दरवाजे की तरफ चल देता है। बड़ी लड़की अपनी जगह पर जड़-सी खड़ी रहती है। फिर-एक कदम उसकी तरफ बढ़ जाती है।
बड़ी लड़की : अंकल !
पुरुष चार : (रुक कर) कहो।
बड़ी लड़की : आप जा कर डैडी को यह बात बता देंगे ?
पुरुष चार : कौन-सी ?
बड़ी लड़की : यही …जगमोहन अंकल के आने की ?
पुरुष चार : क्यों…नही बतानी चाहिए ?
बड़ी लड़की : ऐसा है कि…
पुरुष चार : (हलके से आँख मूँद कर खोलता) मैं न भी बताऊँ शायद पर कुछ फर्क नहीं पड़ने का उससे।…बैठ तू।
दरवाजे से बाहर जाने लगता है।
बड़ी लड़की : अंकल ?
पुरुष चार : (और फिर रुक कर) हाँ, बेटे !
बड़ी लड़की : सचमुच कुछ नही हो सकता क्या ?
पुरुष चार : एक दिन के लिए हो सकता है शायद। दो दिन के लिए हो सकता है। पर हमेशा के लिए… कुछ भी नहीं।
बड़ी लड़की : तो उस हालत से क्या यहीं बेहतर नहीं कि… ?
बाहर से स्त्री के स्वर सुनाई देते हैं।
स्त्री : छोड़ दे मेरा हाथ। छोड़ भी ।
बड़ी लड़की : आ गई हैं वे लौट कर।
पुरुष चार : हाँ।
बाहर जाने के बजाय होंठ चबाता डाइनिंग टेबल की तरफ बढ़ जाता है। स्त्री छोटी लड़की के साथ आती है। छोटी लड़की उसे बाँह से बाहर खींच रही है।
छोटी लड़की : चलती क्यों नहीं तुम मेरे साथ ? चलो न !
स्त्री : (बाँह छुड़ाती) तू हटेगी या नहीं ?
छोटी लड़की : नहीं हटूँगी। उस वक्त तो घर पर नहीं थी, और अब कहती हो… ।
स्त्री : छोड़ मेरी बाँह ।
छोटी लड़की : नहीं छोड़ूँगी ।
स्त्री : नहीं छोड़ेगी ? (गुस्से से बाँह छुड़ा कर उसे परे धकेलती) बड़ा जोम चढ़ने लगा है तुझे !
छोटी लड़की : हाँ, चढ़ने लगा है। जब-जब कोई बात कहता मुझसे, यहाँ किसी को फुरसत नहीं होती चल कर उससे पूछने की।
बड़ी लड़की : उन्हें साँस तो लेने दे। वे अभी घर में दाखिल नहीं हुई कि तूने…।
छोटी लड़की : तुम बात मत करो। मिट्टी के लोंदे की तरह हिली नहीं जब मैंने…।
स्त्री : (उसे फ्राक से पकड़ कर) फिर से कह जो कहा है तूने !
छोटी लड़की : (अपने को छुड़ाने के लिए संघर्ष करती) क्या कहा है मैंने ? पूछो इनसे जब मैंने आ कर इन्हें बताया था, तो…।
पल-भर की खामोशी जिसमें सबकी नजरें स्थिर हो रहती हैं – छोटी लड़की की स्त्री पर और शेष सबकी छोटी लड़की पर।
छोटी लड़की : (अपने आवेश से बेबस) मिट्टी के लोंदे !…सब-के-सब मिट्टी के लोंदे !
पुरुष चार : (उनकी तरफ आता) छोड़ दो लड़की को, सावित्री ! उस पर इस वक्त पागलपन सवार है, इसलिए…।
स्त्री : आप मत पड़िए बीच में।
पुरुष चार : देखो…।
स्त्री : आपसे कहा है, आप मत पड़िए बीच में। मुझे अपने घर में किससे किस तरह बरतना चाहिए, यह मैं औरों से बेहतर जानती हूँ। (छोटी लड़की के एक और चपत जड़ती) इस वक्त चुपचाप चली जा उस कमरे में। मुँह से एक लफ्ज भी और कहा, तो खैर नहीं तेरी।
छोटी लड़की के केवल होंठ हिलते हैं। शब्द उसके मुँह से कोई नहीं निकल पाता। वह घायल नजर से स्त्री को देखती उसी तरह खड़ी रहती है।
: जा उस कमरे में। सुना नहीं ?
छोटी लड़की फिर भी खड़ी रहती है।
: नहीं जाएगी ?
छोटी लड़की दाँत पीस कर बिना कुछ कहे एकाएक झटके से अंदर के कमरे में चली जाती है। स्त्री जा कर पीछे से दरवाजे की कुंडी लगा देती है।
: तुझसे समझूँगी अभी थोड़ी देर में।
बड़ी लड़की : बैठिए, अंकल !
पुरुष चार : नहीं, मैं अभी जाऊँगा।
स्त्री : (उसकी तरफ आती) आपको कुछ बात करनी थी मुझसे…बताया था इसने।
पुरुष चार : हाँ…पर इस वक्त तुम ठीक मूड में नहीं हो…।
स्त्री : मैं बिलकुल ठीक मूड में हूँ। बताइए आप।
बड़ी लड़की : अंकल कह रहे थे, डैडी की तबीयत फिर ठीक नहीं है।
स्त्री : घर से जा कर तबीयत ठीक कब रहती है उनकी ? हर बार का यही एक किस्सा नहीं है ?
बड़ी लड़की : तुम थकी हुई हो। अच्छा होगा जो भी बात करनी हो, बैठ कर आराम से कर लो।
स्त्री : मैं बहुत आराम से हूँ (पुरुष चार से) बताइए आप ।
पुरुष चार : ज्यादा बात अब नहीं करना चाहता। सिर्फ एक ही बात कहना चाहता हूँ तुमसे।
स्त्री : (पल-भर प्रतीक्षा करने के बाद) कहिए।
पुरुष चार : तुम किसी तरह छुटकारा नहीं दे सकती उस आदमी को ?
स्त्री : छुटकारा ? मैं ? उन्हें ? कितनी उल्टी बात है !
पुरुष चार : उलटी बात नहीं है। तुमने जिस तरह से बाँध रखा है उसे अपने साथ…. ।
स्त्री : उन्हें बाँध रखा है ? मैंने अपने साथ… ? सिवा आपके कोई नहीं कह सकता यह बात।
पुरुष चार : क्योंकि और कोई जानता भी तो नहीं उतना जितना मैं जानता हूँ।
स्त्री : आप हमेशा यही मानते आए है कि आप बहुत ज्यादा जानते हैं। नहीं ?
पुरुष चार : महेंद्रनाथ के बारे में, हाँ। और जान कर ही कहता हूँ कि तुमने इस तरह शिकंजे में कस रखा है उसे कि वह अब अपने दो पैरों पर चल सकने लायक भी नहीं रहा।
स्त्री : अपने दो पैरों पर ! अपने दो पैर कभी थे भी उसके पास ?
पुरुष चार : कभी बात क्यों करती हो ? जब तुमने उसे जाना, तब से दस साल पहले से मैं उसे जानता हूँ।
स्त्री : इसीलिए शायद जब मैंने जाना, तब तक अपने दो पैर रहे नहीं थे उसके पास।
पुरुष चार : मैं जानता हूँ सावित्री, कि तुम मेरे बारे में क्या-क्या सोचती और कहती हो…।
स्त्री : जरूर जानते होंगे…लेकिन फिर भी कितना कुछ है जो सावित्री कभी किसी के सामने नहीं कहती।
पुरुष चार : जैसे ?
स्त्री : जैसे…पर बात तो आप करने आए हैं।
पुरुष चार : नहीं। पहले तुम बात कर लो (बड़ी लड़की से) तू बेटे, जरा उधर चली जा थोड़ी देर।
बड़ी लड़की चुपचाप जाने लगती है।
स्त्री : सुन लेने दीजिए इसे भी, अगर मुझे बात करनी है तो।
पुरुष चार : ठीक है यहीं रह तू, बिन्नी !
बड़ी लड़की : पर मैं सोचती हूँ कि…।
स्त्री : मैं चाहती हूँ तू यहाँ रहे, तो किसी वजह से ही चाहती हूँ।
बड़ी लड़की आहिस्ता से आँखें झपका कर उन दोनों से थोड़ी दूर डायनिंग टेबल कि कुरसी पर जा बैठती है।
पुरुष चार : (स्त्री से) बैठ जाओ तुम भी।
कटता हुआ खुद सोफे पर बैठ जाता है। स्त्री एक मोढ़ा ले लेती है।
: कह डालो अब जो भी कहना है तुम्हें।
स्त्री : कहने से पहले एक बात पूछनी है आप से। आदमी किस हालत में सचमुच एक आदमी होता है ?
पुरुष चार : पूछो कुछ नहीं। जो कहना है, कह डालो।
स्त्री : यूँ तो जो कोई भी एक आदमी की तरह चलता-फिरता, बात करता हैं, वह आदमी ही होता है…। पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियत हो ?
पुरुष चार : महेंद्र को सामने रख कर यह तुम इसलिए कह रही हो कि…
स्त्री : इसलिए कह रही हूँ कि जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज के लिए किसी-न-किसी का सहारा ढूँढ़ते पाया है। खास तौर से आपका। यह करना चाहिए या नहीं – जुनेजा से राय ले लूँ। कोई छोटी-से-छोटी चीज खरीदनी है, तो भी जुनेजा की पसंद से। कोई बड़े-से-बड़ा खतरा उठाता है – तो भी जुनेजा की सलाह से। यहाँ तक कि मुझसे ब्याह करने का फैसला भी कैसे किया उसने ? जुनेजा के हामी भरने से।
पुरुष चार : मैं दोस्त हूँ उसका। उसे भरोसा रहा है मुझ पर।
स्त्री : और उस भरोसे का नतीजा ?… कि अपने-आप पर उसे कभी किसी चीज के लिए भरोसा नहीं रहा। जिंदगी में हर चीज कि कसौटी – जुनेजा। जो जुनेजा सोचता है, जो जुनेजा चाहता है, जो जुनेजा करता है, वही उसे भी सोचना है, वही उसे भी चाहना है, वही उसे भी करना है। क्योंकि जुनेजा तो खुद एक पूरे आदमी का आधा-चौथाई भी नहीं हैं।
पुरुष चार : तुम इस नजर से देख सकती हो इस चीज को; पर असलियत इसकी यह है कि…
स्त्री : (खड़ी होती) मुझे उस असलियत की बात करने दीजिए जिसे मैं जानती हूँ।…एक आदमी है। घर बसाता है। क्यों बसाता है ? एक जरूरत पूरी करने के लिए। कौन-सी जरूरतें ? अपने अंदर से किसी उसको…एक अधूरापन कह दीजिए उसे…उसको भर सकने की। इस तरह उसे अपने लिए…अपने में पूरा होना होता है । किन्हीं दूसरों के पूरा करते रहने में ही जिंदगी नहीं काटनी होती। पर आपके महेंद्र के लिए जिंदगी का मतलब रहा है…जैसे सिर्फ दूसरों के खाली खाने भरने की ही चीज है वह। जो कुछ वे दूसरे उससे चाहते हैं, उम्मीद करतें हैं…या जिस तरह वे सोचते हैं उनकी जिंदगी में उसका इस्तेमाल हो सकता है।
पुरुष चार : इस्तेमाल हो सकता है?
स्त्री : नहीं ? इस काम के लिए और कोई नहीं जा सकता, महेंद्र चला जाएगा। इस बोझ को और कोई नहीं ढो सकता, महेंद्रनाथ ढो लेगा। प्रेस खुला, तो भी। फैक्टरी शुरू हुई, तो भी। खाली खाने भरने की जगह पर महेंद्रनाथ अपना हिस्सा पहले ही ले चुका है, पहले ही खा चुका है। और उसका हिस्सा ? (कमरे के एक-एक सामान की तरफ इशारा करती) ये ये ये ये ये दूसरे-तीसरे-चौथे दरजे की घटिया चीजें जिनसे वह सोचता था, उसका घर बन रहा है ?
पुरुष चार : महेंद्रनाथ बहुत जल्दबाजी बरतता था इस मामले में, मैं जानता हूँ। मगर वजह इसकी…
स्त्री : वजह इसकी मैं थी-यही कहना चाहते हैं न ? वह मुझे खुश रखने के लिए ह यह लोहा-लकड़ी जल्दी-से-जल्दी घर में भर कर हर बार अपनी बरबादी की नींव खोद लेता था। पर असल में उसकी बरबादी की नींव क्या चीज खोद रही थी…क्या चीज और कौन आदमी…अपने दिल में तो आप भी जानते होंगे।
पुरुष चार : कहती रहो तुम। मैं बुरा नहीं मान रहा। आखिर तुम महेंद्र की पत्नी हो और…
स्त्री : (आवेश में उसकी तरफ मुड़ती) मत कहिए मुझे महेंद्र की पत्नी। महेंद्र भी एक आदमी है, जिसके अपना घर-बार है, पत्नी है, यह बात महेंद्र को अपना कहनेवालों को शुरू से ही रास नहीं आई। महेंद्र ने ब्याह क्या किया, आप लोगों की नजर में आपका ही कुछ आपसे छीन लिया। महेंद्र अब पहले की तरह हँसता नहीं। महेंद्र अब दोस्तों में बैठ कर पहले की तरह खिलता नहीं ! महेंद्र अब पहलेवाला महेंद्र रह ही नहीं गया ! और महेंद्र ने जी-जान से कोशिश की, वह वही बना रहे किसी तरह। कोई यह न कह सके जिससे कि वह पहलेवाला महेंद्र रह ही नहीं गया। और इसके लिए महेंद्र घर के अंदर रात-दिन छटपटाता है। दीवारों से सिर पटकता है। बच्चों को पीटता है। बीवी के घुटने तोड़ता है। दोस्तों को अपना फुरसत का वक्त काटने के लिए उसकी जरूरी है। महेंद्र के बगैर कोई पार्टी जमती नहीं ! महेंद्र के बगैर किसी पिकनिक का मजा नहीं आता था ! दोस्तों के लिए जो फुरसत काटने का वसीला है, वही महेंद्र के लिए उसका मुख्य काम है जिंदगी में। और उसका ही नहीं, उसके घर के लोगों का भी वही मुख्य काम होना चाहिए। तुम फलाँ जगह चलने से इन्कार कैसे कर सकती हो ? फलाँ से तुम ठीक तरह से बात क्यों नहीं करतीं ? तुम अपने को पढ़ी-लिखी कहती हो ?…तुम्हें तो लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज नहीं। एक औरत को इस तरह चलना चाहिए, इस तरह बात करनी चाहिए, इस तरह मुस्कराना चाहिए। क्यों तुम लोगों के बीच हमेशा मेरी पोजीशन खराब करती हो? और वही महेन्द्र जो दोस्तों के बीच दब्बू-सा बना हलके-हलके मुस्कराता है, घर आ कर एक दारिंदा बन जाता है। पता नहीं, कब किसे नोच लेगा, कब किसे फाड़ खाएगा! आज वह ताव में अपनी कमीज को आग लगा लेता है। कल वह सावित्री की छाती पर बैठ कर उसका सिर जमीन से रगड़ने लगता है। बोल, बोल, बोल, चलेगी उस तरह कि नहीं जैसे मैं चाहता हूँ ? मानेगी वह सब कि नहीं जो मैं कहता हूँ ? पर सावित्री फिर भी नहीं चलती। वह सब नहीं मानती। वह नफरत करती है इस सबसे – इस आदमी के ऐसा होने से। वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए एक…पूरा…आदमी। गला फाड़ कर वह यह बात कहती है। कभी इस आदमी को ही यह आदमी बना सकने की कोशिश करती है। कभी तड़प कर अपने को इससे अलग कर लेना चाहती है। पर अगर उसकी कोशिशों से थोड़ा फर्क पड़ने लगता है इस आदमी में, तो दोस्तों में इनका गम मनाया जाने लगता है। सावित्री महेन्द्र की नाक में नकेल डाल कर उसे अपने ढंग से चला रही है। सावित्री बेचारे महेन्द्र की रीढ़ तोड़ कर उसे किसी लायक नहीं रहने दे रही है ! जैसे कि आदमी न हो कर बिना हाड़-मांस का टुकड़ा हो वह एक – बेचारा महेन्द्र!
हाँफती हुई चुप कर जाती है। बड़ी लड़की कुहनियाँ मेज पर रखे और मुट्ठियों पर चहेरा टिकाए पथराई आँखों से चुपचाप दोनों को देखती है।
पुरुष चार : (उठता हुआ) बिना हड़-मांस का पुतला, या जो भी कह लो तुम उसे – पर मेरी नजर में वह हर आदमी जैसे एक आदमी है-सिर्फ इतनी ही कमी है उसमें।
स्त्री : यह आप मुझे बता रहे हैं ? जिसने बाईस साल साथ जी कर जाना है उस आदमी को ?
पुरुष चार : जिया जरूर है तुमने उसके साथ…जाना भी है उसे कुछ हद तक…लेकिन…
स्त्री : (हताशा से सिर हिलती है) ओफ्फ़ोह! ओफ्फ़ोह! ओफ्फ़ोह !
पुरुष चार : जो-जो बातें तुमने कही हैं अभी, वे गलत नहीं हैं अपने में। लेकिन बाईस साल जी कर जानी हुई बातें वे नहीं हैं। आज से बाईस साल पहले भी एक बार लगभग ऐसी ही बातें मैं तम्हारे मुँह से सुन चुका हूँ – तुम्हें याद हैं ?
स्त्री : आप आज ही की बात नहीं कर सकते ? बाईस साल पहले पता नहीं किस जिंदगी की बात हैं वह ?
पुरुष चार : मेरे घर हुई थी वह बात। तुम बात करने के लिए खास आई थीं वहाँ, और मेरे कंधे पर सिर रखे देर तक रोती रही थीं। तब तुमने कहा था कि…
स्त्री : देखिए, उन दिनों की बात अगर छेड़ना ही चाहते हैं आप, तो मैं चाहूँगी कि यह लड़की…
पुरुष चार : क्या हर्ज है अगर यह यहीं रहे तो ? जब आधी बात उसके सामने हुई है, तो बाक़ी आधी भी इसके सामने ही हो जानी चाहिए।
बड़ी लड़की : (उठने को हो कर) लेकिन अंकल… !
पुरुष चार : (स्त्री से) तुम समझती हो कि इसके सामने मुझे नहीं करनी चाहिए यह बात ?
स्त्री : मैं अपनी खयाल से नहीं कह रही थी।…ठीक है। आप कीजिए बात।
कहती हुई एक कुरसी पर बैठ जाती है।
: (स्त्री से) उस दिन पहली बार मैंने तुम्हें उस तरह ढुलते देखा था। तब तुमने कहा था कि…।
स्त्री : मैं बिलकुल बच्ची थी तब तक, अभी और…।
पुरुष चार : बच्ची थीं या जो भी थीं, पर बात बिलकुल इसी तरह करती थीं जैसे आज करती हो। उस दिन भी बिलकुल इसी तरह तुमने महेन्द्र को मेरे सामने उधेड़ा था। कहा था कि वह बहुत लिजलिजा और चिपचिपा-सा आदमी है। पर उसे वैसा बनानेवालों में नाम तब दूसरों के थे। एक नाम था उसकी माँ का और दूसरा उसके पिता का…।
स्त्री : ठीक है। उन लोगों की भी कुछ कम देन नहीं रही उसे ऐसा बनाने में।
पुरुष चार : पर जुनेजा का नाम तब नहीं था ऐसा लोगों में। क्यों नहीं था, कह दूँ न यह भी ?
स्त्री : देखिए…।
पुरुष चार : बहुत पुरानी बात है। कह देने में कोई हर्ज नहीं है। मेरा नाम इसलिए नहीं था कि…
स्त्री : मैं इज्जत करती थी आपकी…बस, इतनी-सी बात थी।
पुरुष चार : तुम इज्जत कह सकती हो उसे…पर वह इज्जत किसलिए करती थीं ? इसलिए नहीं कि एक आदमी के तौर पर मैं महेन्द्र से कुछ बेहतर था तुम्हारी नजर में; बल्कि सिर्फ इसलिए कि…
स्त्री : कि आपके पास बहुत पैसा था? और आपका दबदबा था इन लोगों के बीच?
पुरुष चार : नहीं। सिर्फ इसलिए कि मैं जैसा भी था जो भी था-महेन्द्र नहीं था।
स्त्री : (एकाएक उठती है) तो आप कहना चाहते हैं कि…?
पुरुष चार : उतावली क्यों होती हो ? मुझे बात कह लेने दो। मुझसे उस वक्त तुम क्या चाहती थीं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता। लेकिन तुम्हारी बात से इतना जरूर जाहिर था कि महेन्द्र को तुम तब भी वह आदमी नहीं समझती थीं जिसके साथ तुम जिंदगी काट सकतीं…।
स्त्री : हालाँकि उसके बाद भी आज तक उसके साथ जिंदगी काटती आ रही हूँ…
पुरुष चार : पर हर दूसरे-चौथे साल अपने को उससे झटक लेने की कोशिश करती हुई। इधर-उधर नजर दौड़ाती हुई कब कोई जरिया मिल जाए जिससे तुम अपने को उससे अलग कर सको। पहले कुछ दिन जुनेजा एक आदमी था तुम्हारे सामने। तुमने कहा है तब तुम उसकी इज्जत करती थीं। पर आज उसके बारे में जो सोचती हो, वह भी अभी बता चुकी हो। जुनेजा के बाद जिससे कुछ दिन चकाचौंध रहीं तुम, वह था शिवजीत। एक बड़ी डिग्री, बड़े-बड़े शब्द और पूरी दुनिया घूमने का अनुभव। पर असल चीज वही कि वह जो भी था और ही कुछ था-महेंद्र नहीं था। पर जल्द ही तुमने पहचानना शुरू किया कि वह निहायत दोगला किस्म का आदमी है। हमेशा दो तरह की बात करता है। उसके बाद सामने आया जगमोहन। ऊँचे संबंध, जबान की मिठास, टिपटॉप रहने की आदत और खर्च की दरिया-दिली। पर तीर की असली नोक फिर भी उसी जगह पर-कि उसमें जो कुछ भी था, जगमोहन का-सा नहीं था। पर शिकायत तुम्हें उससे भी होने लगी थी कि वह सब लोगों पर एक सा पैसा क्यों उड़ता है ? दूसरे की सख्त-से-सख्त बात को एक खामोश मुस्कराहट के साथ क्यों पी जाता है ? अच्छा हुआ, वह ट्रांसफर हो कर चला गया यहाँ से, वरना…. ।
स्त्री : यह खामखाह का तानाबाना क्यों बुन रहे हैं ? जो असल बात कहना चाहते हैं, वही क्यों नहीं कहते ?
पुरुष चार : असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करतीं कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली है। उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या मनमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्यों की तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है-कितना-कुछ एक साथ हो कर, कितना-कुछ एक साथ पा कर और कितना-कुछ एक साथ ओढ़ कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता। इसलिए जिस-किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती। वह आदमी भी इसी तरह तुम्हें अपने आसपास सिर पटकता और कपड़े फाड़ता नजर आता और तुम…
स्त्री : (साड़ी का पल्लू दाँतो में लिए सिर हिलाती हँसी और रुलाई के बीच के स्वर में) हहहहहहहह हःह- हहहहह-हःहहः हःह हःह।
पुरुष चार : (अचकचा कर) तुम हँस रही हो ?
स्त्री : हाँ…पता नहीं…हँस ही रही हूँ शायद। आप कहते रहिए ।
पुरुष चार : आज महेंद्र एक कुढ़नेवाला आदमी है। पर एक वक्त था जब वह सचमुच हँसता था। अंदर से हँसता था पर यह तभी था जब कोई साबित करनेवाला नहीं था कि कैसे हर लिहाज से वह हीन और छोटा है – इससे, उससे, मुझसे, तुमसे, सभी से। जब कोई उससे यह कहनेवाला नहीं था कि जो-जो वह नहीं है, वही-वही उसे होना चाहिए और जो वह है… ।
स्त्री : एक उसी उस को देखा है आपने इस बीच – या उसके आस-पास भी किसी के साथ कुछ गुजरते देखा है ?
पुरुष चार : वह भी देखा है। देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना-कुछ एक साथ भर लेना चाहती थीं, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया है कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया। जिस दिन तुम्हें एक बहुत बड़ा झटका खाना पड़ा…अपनी आखिरी कोशिश में।
स्त्री : किस आखिरी कोशिश में ?
पुरुष चार : मनोज का बड़ा नाम था। उस नाम की डोर पकड़ कर ही कहीं पहुँच सकने की आखिरी कोशिश में। पर तुम एकदम बौरा गईं जब तुमने पाया कि वह उतने नामवाला आदमी तुम्हारी लड़की को साथ ले कर रातों-रात इस घर से…।
बड़ी लड़की : (सहसा उठती) यह आप क्या कह रहे हैं, अंकल ?
पुरुष चार : मजबूर हो कर कहना पड़ रहा है, बिन्नी ! तू शायद मनोज को अब भी उतना नहीं जानती जितना…!
बड़ी लड़की : (हाथों में चेहरा छिपाए ढह कर बैठती) ओह !
पुरुष चार : …जितना यह जानती है। इसीलिए आज यह उसे बरदाश्त भी नहीं कर सकती। (स्त्री से) ठीक नहीं है यह ? बिन्नी के मनोज के साथ चले जाने के बाद तुमने एक अंधाधुंध कोशिश शुरू की – कभी महेन्द्र को ही और झकझोरने की, कभी अशोक को ही चाबुक लगाने की, और कभी उन दोनों से धीरज खो कर कोई और ही रास्ता, कोई और ही चारा ढूँढ़ सकने की। ऐसे में पता चला जगमोहन यहाँ लौट आया है। आगे के रास्ते बंद पा कर तुमने फिर पीछे की तरफ देखना चाहा। आज अभी बाहर गई थीं उसके साथ। क्या बात हुई ?
स्त्री : आप समझते हैं आपको मुझसे जो कुछ भी जानने का जो कुछ भी पूछने का हक हासिल है ?
पुरुष चार : न सही ! पर मैं बिना पूछे ही बता सकता हूँ कि क्या बात हुई होगी। तुमने कहा, तुम बहुत-बहुत दुखी हो आज। उसने कहा, उसे बहुत-बहुत हमदर्दी है तुमसे। तुमने कहा, तुम जैसे भी हो अब इस घर से छुटकारा पा लेना चाहती हो। उसने कहा, कितना अच्छा होता अगर इस नतीजे पर तुम कुछ साल पहले पहुँच सकी होतीं। तुमने कहा, जो तब नहीं हुआ, वह अब तो हो ही सकता है। उसने कहा, वह चाहता है हो सकता, पर आज इसमें बहुत-सी उलझनें सामने हैं – बच्चों की जिदंगी को ले कर, इसको-उसको ले कर। फिर भी कि इस नौकरी में उनका मन नहीं लग रहा, पता नहीं कब छोड़ दे, इसीलिए अपने को ले कर भी उसका कुछ तय नहीं है इस समय। तुम गुमशुम हो कर सुनती रहीं और रूमाल से आँखें पोंछती रहीं। आखिर उसने कहा कि तुम्हें देर हो रही है, अब लौट चलना चाहिए। तुम चुपचाप उठ कर उसके साथ गाड़ी में आ बैठीं। रास्ते में उसके मुँह से यह भी निकला शायद कि तुम्हें अगर रुपए-पैसे की जरूरत है इस वक्त तो वह…
स्त्री : बस बस बस बस बस बस ! जितना सुनना चाहिए था, उससे बहुत ज्यादा सुन लिया है आपसे मैंने। बेहतर यही है कि अब आप यहाँ से चले जाएँ क्योंकि…
पुरुष चार : मैं जगमोहन के साथ हुई तुम्हारी बातचीत का सही अंदाज लगा सकता हूँ, क्योंकि उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी तुमसे यही सब कहा होता। वह कल-परसों फिर फोन करने को कह कर घर के बाहर उतार गया। तुम मन में एक घुटन लिए घर में दाखिल हुई और आते ही तुमने बच्ची को पीट दिया। जाते हुए वह सामने थी एक पूरी जिंदगी – पर लौटने तक का कुल हासिल?… उलझे हाथों का गिजगिजा पसीना और…।
स्त्री : मैंने आपसे कहा है न, बस ! सब-के-सब…सब-के-सब! एक-से! बिलकुल एक-से हैं आप लोग ! अलग-अलग मुखोटे, पर चेहरा? चेहरा सबका एक ही !
पुरुष चार : फिर भी तुम्हें लगता रहा है कि तुम चुनाव कर सकती हो। लेकिन दाँए से हट कर बाँए, सामने से हट कर पीछे, इस कोने से हट कर उस कोने में… क्या सचमुच कहीं कोई चुनाव नजर आया है तुम्हें ? बोलो, आया है नजर कहीं ?
कुछ पल खामोशी जिसमें बड़ी लडकी चेहरे से हाथ हटा कर पलकें झपकाती उन दोनों को देखती है। फिर अंदर के दरवाजे पर खट्-खट् सुनाई देती है।
छोटी लड़की : (अंदर से) दरवाजा खोलो। दरवाजा खोलो?
बड़ी लड़की : (स्त्री) क्या करना है, ममा ? खोलना है दरवाजा ?
स्त्री : रहने दे अभी।
पुरुष चार : लेकिन इस तरह बंद रखोगी, तो…
स्त्री : मैंने पहले भी कहा था, मेरा घर है। मैं बेहतर जानती हूँ।
छोटी लड़की : (दरवाजा खटखटाती) खोलो ! (हताश हो कर) मत खोलो !
अंदर से कुंडी लगाने की आवाज।
: अब खुलवा लेना मुझसे भी।
पुरुष चार : तुम्हारा घर है। तुम बेहतर जानती हो कम-से-कम मान कर यही चलती हो। इसीलिए बहुत-कुछ चाहते हुए मुझे अब कुछ भी संभव नजर नहीं आता। और इसीलिए फिर एक बार पूछना चाहता हूँ, तुमसे…क्या सचमुच किसी तरह उस आदमी को तुम छुटकारा नहीं दे सकतीं ?
स्त्री : आप बार-बार किसलिए कह रहे हैं यह बात ?
पुरुष चार : इसलिए कि आज वह अपने को बिलकुल बेसहारा समझता है। उसके मन में यह विश्वास बिठा दिया है तुमने कि सब कुछ होने पर भी उसके जिए जिदंगी में तुम्हारे सिवा कोई चारा, कोई उपाय नहीं है। और ऐसा क्या इसीलिए नही किया तुमने कि जिदंगी में और कुछ हासिल न हो, तो कम-से-कम यह नामुराद मोहरा तो हाथ में बना ही रहे ?
स्त्री : क्यों-क्यों-क्यों-आप और-और बात करते जाना चाहते हैं ? अभी आप जाइए और कोशिश करके उसे हमेशा के लिए अपने पास रख रखिए। इस घर में आना और रहना सचमुच हित में नहीं है उसके। और मुझे भी…मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिलकुल-बिलकुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है, न किसी और को चलने देता है।
पुरुष चार : (पल-भर चुपचाप उसे देखते रह कर हताश निर्णय के स्वर में) तो ठीक है वह नहीं आएगा। वह कमजोर है, मगर इतना कमजोर नहीं है। तुमसे जुड़ा हुआ है, मगर इतना जुड़ा हुआ नहीं है। उतना बेसहारा भी नहीं है जितना वह अपने को समझता है। वह ठीक से देख सके, तो एक पूरी दुनिया है उसके आसपास। मैं कोशिश करूँगा कि वह आँख खोल कर देख सके।
स्त्री : जरूर-जरूर। इस तरह उसका तो उपकार करेगें ही आप, मेरा भी इससे बड़ा उपकार जिदंगी में नहीं कर सकेंगे।
पुरुष चार : तो अब चल रहा हूँ मैं। तुमसे जितनी बात कर सकता था, कर चुका हूँ। और बात उसी से जा कर करूँगा। मुझे पता है कि कितना मुश्किल होगा यह…फिर भी यह बात मैं उसके दिमाग में बिठा कर रहूँगा इस बार कि…
लड़का बाहर से आता है। चेहरा काफी उतरा हुआ है-जैसे कोई बड़ी-सी चीज कहीं हार कर आया हो।
: क्या बात है, अशोक ? तू चला क्यों आया वहाँ से ?
लड़का उससे बिना आँख मिलाए बड़ी लड़की की तरफ बढ़ जाता है।
लड़का : उठ बिन्नी ! अंदर से छड़ी निकाल दे जरा।
बड़ी लड़की : (उठती हुई) छड़ी ! वह किसलिए चाहिए तुझे ?
लड़का : डैडी को स्कूटर रिक्शा से उतार लाना है उनकी तबीयत काफी खराब है।
बड़ी लड़की : डैडी लौट आए हैं।
पुरुष चार : तो…आ ही गया है वह आखिर ?
लड़का : (उसकी ओर देख कर मुरझाए स्वर में) हाँ… आ ही गए हैं।
पुरुष चार के चेहरे पर व्यथा की रेखाएँ उभर आती हैं और उसकी आँखें स्त्री से मिल कर झुक जाती हैं। स्त्री एक कुरसी की पीठ थामे चुप खड़ी रहती है। शरीर में गति दिखाई देती है , तो सिर्फ साँस के आने-जाने की।
: (बड़ी लड़की से) जल्दी से निकाल दे छड़ी, क्योंकि…
बड़ी लड़की : (अंदर से दरवाजे की तरफ बढ़ती ) अभी दे रही हूँ।
जाकर दरवाजा खटखटाती है।
: किन्नी ! दरवाजा खोल जल्दी से ।
छोटी लड़की : ( अंदर से ) नहीं खुलेगा दरवाजा।
बड़ी लड़की : तेरी शामत तो नहीं आई है ? कह रही हूँ। खोल जल्दी से ।
छोटी लड़की : आने दो शामत। दरवाजा नहीं खुलेगा ।
बड़ी लड़की : (जोर से खटखटाती) किन्नी !
सहसा हाथ रुक जाता है। बाहर से ऐसा शब्द सुनाई देता है , जैसे पाँव फिसल जाने से किसी ने दरवाजे का सहारा ले कर अपने को बचाया हो।
पुरुष चार : (बाहर से दरवाजे की तरफ बढ़ता) यह कौन फिसला है ड्योढ़ी में ?
लड़का : (उससे आगे जाता) डैडी ही होंगे। उतर कर चले आए होंगे ऐसे ही। (दरवाजे से निकलता) आराम से डैडी, आराम से ।
पुरुष चार : (एक नजर स्त्री पर डाल कर दरवाजे से निकलता) सँभल कर महेन्द्रनाथ, सँभल कर….
प्रकाश खंडित हो कर स्त्री और बड़ी लड़की तक सीमित रह जाता है। स्त्री स्थिर आँखों से बाहर की तरफ देखती आहिस्ता से कुरसी पर बैठ जाती है। बड़ी लड़की उसकी तरफ एक बार देखती है , फिर बाहर की तरफ। हलका मातमी संगीत उभरता है जिसके साथ उन दोनों पर भी प्रकाश मद्धिम पड़ने लगता है। तभी, लगभग अँधेरे में लड़के की बाँह थामे पुरुष एक की धुँधली आकृति अंदर आती दिखाई देती है।
लड़का : (जैसे बैठे गले से) देख कर डैडी, देख कर…
उन दोनों के आगे बढ़ाने के साथ संगीत अधिक स्पष्ट और अँधेरा अधिक गहरा होता जाता है।
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नुक्कड़ नाटक ‘औरत’
भुवनेश्वर का नाटक ‘ताँबे के कीड़े’
IGNOU MA (हिन्दी) – Study Material
‘आधे-अधूरे’: अपूर्ण महत्त्वाकांक्षाओं की कलह – एक टिप्पणी