अग्नि का दर्प लिए जन्मीं औरतें
सदा आकर्षण का केन्द्र रहीं,
पितृसत्ता के अहंकार से पोषित पुरुषों के लिए
उन्हें पाना
उनका सर्वप्रथम अधिकार था,
कभी पासे फेंक जीत लिया
हार गए तो छल से छीन लिया
पर जिस अग्नि को देख वो लोलुप हुए थे
उसकी तपिश से झुलसने लगे
चाहते तो उसकी आँच से
अपनी आत्मा पवित्र कर लेते
फिर वो पुरुष कैसे कहलाते!

जिन नेत्रों का आत्मविश्वास
उन्हें आहत करता था
उसमें आँसुओं को भर
सब बहा दिया
फिर भी वो सुलगती रहीं…

पर ‘इन ऊँची नाक वाली औरतों का यही हश्र होता है’
कहकर उनकी ही अग्रजाओं ने उन्हें बुझा दिया।

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