हर औरत ने पोषित किया प्रेम अपने तरीक़े से
मेरी गली की राजाबो दिखती थीं प्रेम से तृप्त
जब पति बनारसी साड़ियों के लिए रेशमी धागे रंगता
कह उठता, ‘ई रंग क तोहरे खातिर साड़ी बनाब।’
कमलेश्वर बो उदास हो जातीं जब
पति बिना कहे सो जाता-
‘का रे बुजरिया, गोड़ न दबईबी।’
चौरिसीआईन कुप्पा हो जातीं जब
नालायक बच्चों को धूँसते पति
उनके एक बार कहे से कि ‘जाये द बच्चा हैन’
एकदम से हाथ रोक, रिहा कर देते बच्चों को।
कुस बो लहालोट थीं
जब से अदमी उठा लाया था
बैठक से टीवी लड़-झगड़
‘कि हमार दहेज में मिलल रहल।’
तो राम बो हर रोज़ पति के लाए
दो रुपिया के चाट पकौड़ी में
बिछने को तैयार रहीं आजीवन।
हर औरत के दुःख टँगे रहे अलगनी पर
मेरी सोसायटी की रोमा को पसन्द नहीं
पति के लाए उपहार,
कहती है— गँवरपन झलकता है।
लीना अक्सर उदास हो जाती है
किटी में किसी का नया नेकलेस या ड्रेस देख
कहती है उसकी ऐसी क़िस्मत कहाँ
रवि के साथ जो बँधी है।
तारा सुपर मार्केट से सब फ़ैट फ़्री
सामान चुन-चुनकर लाती और
कार में बैठते ही पाती है
पति खा रहा खोमचे से बीस रुपये के छोले-भठूरे।
मोना को नहीं भाती पति की
आए दिन सोशल गैदरिंग
जब-तब याद दिलाती रहती है
ये शहर है, तुम्हारे क़स्बे का चौराहा नहीं।
ज़िन्दगी स्याह-सफ़ेद सी।